आँखों में सुनहरे सपने नहीं तैरते हैं, बस सब कुछ सड़ा गला दिखाई देता है। संवेदना और आंख का सम्बन्ध टूट गया है। आंसू केवल अपने नुकसान पर निकलते हैं, परायी पीड़ पर नहीं बहते। कान अविश्वास से भर गये हैं। अपनी प्रशंसा सुनने को आतुर रहते हैं, परन्तु किसी ओर की उपलब्धि से कान के पर्दे झलने लगते हैं। चेहरा मुरझा गया है, झुर्रियों से भर गया है, बेरौनक़ हो गया है। चिन्ता चेहरे पर स्थायी रूप से बस गयी है। हँसने से कभी पेट में दर्द होता था, अब चेहरा दुखता है। सिर गुलामी में झुका रहता है, कभी नेता या अफसर या कभी धनी के सामने, तो कभी किसी गेरुआ या हरे वस्त्रधारी के सामने। इस झुकने में कहीं श्रद्धा नहीं। केवल दिखावा, डर या आत्मविश्वास में कमी झलकती है। हाथों ने लिखना छोड़ दिया है। हस्ताक्षर से, दस्तखत से अधिक लिखने की आदत ही नहीं रही। लिखें भी कैसे, संवेदना के बिना। संवेदना के बिना लिखा असर भी तो नहीं करता। पढ़े-लिखे हैं, परन्तु गम्भीर विषयों को पढऩे से बचते हैं, उबासी आ जाती है। जीभ का मतलब स्वाद रह गया है। दिन भर मसाले-मिठाईयाँ चाटती रहती है। कभी घर में, तो कभी किसी जान पहचान वाले के पांडाल में। बोलती है तो केवल निन्दा से भरकर, शिकायत से भरकर। पैरों को लकवा मार गया है। घर से बाहर निकलने के लायक नहीं रह गये हैं। घर में बैठे-बैठे चिल्लाते रहते हैं, अरे! जाओ और मेरे लिए आराम का प्रबन्ध करो, व्यवस्था को ठीक करो। जाए कौन? लकवा सबको हो गया है।
इधर मन अब मनवा नहीं रह गया है। मन मयूरा नहीं है। मन के हारे हार की कहावत को सार्थक करके ही दम लिया गया है। बुद्धि कुतर्कों के जाल बुनकर नाकामी को जायज ठहरा रही है। एक हजार वर्षों से कुतर्कों का ढेर लगा दिया गया है, जिसके नीचे दबा दिमाग हर बात में ना-ना, नहीं-नहीं कहता रहता है। और दिल? वह तो धड़कता भी है, या नहीं। वरन् इतनी अव्यवस्थाओं के चलते अभी तक वह नाड़ियों के खून को गरम कर चुका होता।
अव्यवस्था भीतर है या बाहर? इस बहस से बाहर निकलकर कुछ कर-गुजरने के लिए प्रदेश के चिन्तनशील तबक़े से एक गुहार। जनजागरण में अग्रणी भूमिका निभाने का आग्रह।
जनता को स्वशासन का अर्थ बतायें
मैं अकसर मूल बातों तक अपने को सीमित रखता हूँ। साहित्य का ज्ञान नहीं होने के कारण मैं इन बातों से आगे नहीं बढ़ पाता हूँ। मेरे पास इतने शब्द भी नहीं हैं, जो पत्तों और फूलों की बातें कर सकें। मूल पर, जड़ पर ही टिका रहता हूँ। इतने ही समाधान मैं सोच पाता हूँ। मैं सोचता हूँ कि मूल सही होगी, जड़ सही होगी, तो पत्ते और फूल अधिक लगेंगे। सुंदर भी लगेंगे, स्वस्थ भी रहेंगे। ऐसी ही एक धारणा है – लोकतन्त्र की, लोकशासन की, स्वशासन की। मेरे माने यह क्या है, बुद्धिजीवी की इसमें क्या जिम्मेदारी है, यही विषय है, जिस पर अभी चिंतन करते हैं।
लोकतंत्र में हम अपनी, खुद की, स्वयं की रचित शासन व्यवस्था को चलाते हैं। इसके लिए हम वोट देते हैं, नोट देते हैं। वोट की बात, मतदान की बात तो सीधे-सीधे पकड़ में आ जाती है, परन्तु नोट या पैसा देने का फंडा क्या है? क्या रिश्वत देने से इसका कोई ताल्लुक है? नहीं। चलती-फिरती बात नहीं है, इसलिए थोड़ा रिलेक्स हो जायें, मन एकाग्र करें।
शासन चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है। इसके लिए हमने टैक्स या कर लगा रखे हैं। अलग-अलग तरह के कर। आमदनी पर कर, उत्पादन पर कर, बिक्री पर कर। ज़मीनों लेने-बेचने पर कर, शराब पर कर, गाड़ियों पर कर। पेट्रोल-डीज़ल पर कर। यानि पग-पग पर हम शासन चलाने के लिए, सरकार चलाने के लिए कर देते हैं। लेकिन अखबारी भाषा में एक गलत फहमी, गलत बयानी प्रभावी हो गयी है कि टैक्स या कर, केवल सेठ लोग या धनी लोग देते हैं। जिनकी आमदनी कम है,उन्हें टैक्स नहीं देना पड़ता है। वे नॉन-टैक्स पेयर या अकरदाता हैं, करदाता नहीं है। इसी पेंच को पकड़ लीजिये। सरकार को टाटा-बिड़ला-अंबानी घुड़कियाँ देते रहते हैं कि हम टैक्स देते हैं, हमारी बात सुनो। आम आदमी को यह भाषा 60 वर्षों में नहीं आ पायी है। उसे भी यही लगता है, कि उद्योगपति और व्यापारी ही टैक्स देते हैं। लेकिन यह बात सही नहीं है। उद्योगपति और व्यापारी तो बिचौलिये हैं, जिनके माध्यम से हम सरकार को पैसा देते हैं। आम आदमी ही असली करदाता है। गम्भीर बात है। परन्तु यही बात तो लोकतंत्र में महत्व की है, जिसे प्रचारित करना है।
हम जब भी बाजार से कोई साबुन खरीदते हैं, पेन खरीदते हैं, शक्कर-चाय लेते हैं, हमने सरकार चलाने का पैसा दे दिया है। यह अलग बात है इसमें से कितना खजाने तक पहुँचता है! लेकिन जितना भी उद्योगपति और व्यापारी ऊपर पहुँचाते हैं, उसी पैसे से हमारे नेताओं और अफ़सरों-कर्मचारियों को तनख्वाह मिलती है, सुविधाएँ मिलती हैं। इसी पैसे से हमें भी सुविधाएँ मिलती हैं, जिनके बारे में हम यह सोचते हैं कि ये किसी नेता या अफसर की मेहरबानी है। सड़क बनती है, नेताजी की मेहरबानी। एम.एल.ए. या एम.पी. ‘अपने’ (?) फंड से पैसा दे, तो वाह-वाह। हमारा पैसा और हम ही भिखारी! आपको आश्चर्य नहीं होता कि 60 वर्षों के लोकतंत्र में हम इतनी सी बात को न तो समझ पाये हैं, न समझा पाये हैं और ना मान पाये हैं। हम केवल वोट देने की बात करते हैं, नोट देने वाली बात तो कभी ठीक से कर ही नहीं पाये हैं।
टैक्स देने की वजह बतायें
समाज में कई कार्य ऐसे हैं, जो व्यक्तिगत या पारिवारिक तौर पर संभव नहीं है। घर के लिए आटा-शक्कर-चाय तो हम बाजार से खरीद लायेंगे, परन्तु आने-जाने के लिए सड़क हमें मिलकर बनानी होती है। घर-घर कुआं नहीं खोद सकते, पानी की कोई साझा व्यवस्था करनी होती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि कई सुविधाओं के लिए हम ऐसी ही व्यवस्थाएँ करते हैं। और फिर इनको सुचारु रूप से चलाने के लिए अपने प्रतिनिधि चुनते हैं और उनकी सहायता के लिए अफसर-कर्मचारियों का चयन करते हैं। जैसे गाँव की गोशाला, या शहर की धर्मशाला की व्यवस्था के लिए हम जिम्मेदार लोगों को व्यवस्था सौंपते हैं, वैसा ही प्रबन्ध शासन व्यवस्था के बारे में करते हैं। बस इतनी सी कहानी है, जहाँ मेरी बुद्धि आकर रूक जाती है।
लेकिन हो क्या रहा है?
लोकतंत्र की व्यवस्था अपनाना ही हमारे लिए काफी नहीं था। इसके तौर-तरीके जानना भी लाजिमी था, आवश्यक था। गांधी जी कह भी रहे थे कि पहले लोगों को शिक्षित करो, समझाओ कि लोकतंत्र के मायने क्या हैं? राजतंत्र की सदियों से आदि हो चुकी जनता को लोकतंत्र समझाने के लिए मेहनत करनी है। लेकिन सत्ता पाने की लालसा में नेहरू जी ने कह दिया कि यह काम स्वतन्त्रता मिलने के बाद कर लेंगे। कुछ बुद्धिजीवियों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाकर व्यवस्था बदलवा दी। हमारे कवि स्व. कानदान कल्पित ने उस महत्त्वपूर्ण क्षण को चार लाईनों में कितनी आसानी से बखान कर दिया था –
देश देखभाल री, इण बाग रे रूखाल री,
झूठी तूं गुंजाश बिना साख क्यूं भरी।
थूं बोल तो सरी, जुबान खोल तो सरी।
बस जी, देश आजाद हो गया, गुलाब सूँघने वाले अकबर की जगह नेहरू ने ले ली। बुद्धिजीवी ‘नौरत्न’ बनने की जुगाड़ में लग गये और हमारे यहाँ ‘लोकतांत्रिक राजतंत्र’ विकसित हो गया। वोट देकर राजा चुनने वाली बात इतनी फैली, कि नोट (टैक्स) देकर शासन में मदद करने वाली बात खो गयी। अब मजाक यह बन गया है कि हम टैक्स (कर) देते हैं, सरकारी स्कूल के लिए और हमारे बच्चे पढ़ते हैं, निजी स्कूल में। हमारे टैक्स से वेतन पाने वाले कई शिक्षक, स्कूल में नहीं जाने या नहीं पढ़ाने में अपनी शान समझते हैं। यहाँ तक वे इन स्कूलों में अपने खुद के बच्चों को नहीं पढ़ाते हैं। उनके बच्चे निजी (प्राईवेट) स्कूल में पढ़ते हैं। उधर 50 हजार से एक लाख वेतन पाने वाले कई लेक्चरर-प्रोफेसर कॉलेज को सुनसान करके बैठ गये हैं।
हम टैक्स देते हैं ताकि बीमार पड़ने पर सरकारी हॉस्पीटल में इलाज हो जाये। इलाज प्राईवेट हॉस्पीटल में करवाना पड़ता है। हम टैक्स देते हैं कि पीने के पानी का प्रबन्ध हो जाये, लेकिन पानी या तो कम आता है या फ्लोराइड युक्त खारा आता है। हमें टांका बनवाकर अपनी व्यवस्था करनी होती है। सरकार भी शान से कहती है कि अपने लिए पानी इकट्ठा करो, नहीं तो मकान नहीं बनने देंगे। हम टैक्स देते हैं कि अच्छी सड़क पर सफर कर सकें। लेकिन सड़क टूटी पड़ी है। अगर अच्छी सड़क पर चलना है, तो अलग से टोल-टैक्स दो! 24 घंटे बिजली हल्ला मचाने वाले शहरों को ही मिलती है। गाँव वालों को 6-10 घंटे बिजली देकर अहसान किया जाता है। जैसे गाँव के लोग बाजार में माल खरीद पर टैक्स न देते हों।
लग तो यह रहा है कि हम टैक्स इसलिए देते हैं कि कुछ नेताओं, अफ़सरों और कर्मचारियों के घर ठीक से चल सके। उन्हें सुविधाएँ और वेतन मिलते रहें। शासन चलता रहे, व्यवस्था भले न चलती हो। उस पर देखिये। हमारे टैक्स से शासन चलाने वाले नेता, दानवीर की भूमिका में है। सड़क भी बनाते हैं तो जैसे हम पर दया करते हैं। राजा-महाराजाओं का जीवन जी रहे हैं। विधानसभा या संसद में अपनी जिम्मेदारी निभाते नहीं हैं, बॉयकाट करते समय नहीं सोचते, कि जनता का पैसा क्यूं बर्बाद किया जाये। अफसर कर्मचारी दफ़्तरों में हमारी आँखों के सामने खुले रूप से मजे करते हैं। अफसर-कर्मचारी हमें हमारे ही कार्यालयों में डराते हैं। वैसे ही जैसे, गाँव की गोशाला का मैनेजर, गाँव वालों को गोशाला में घुसने से रोके, गायों की स्थिति पर चर्चा नहीं करने दे और अभद्रता से पेश आये। गाँव वाले क्या करेंगे?
अभिनव राजस्थान में ?
तो क्या अभिनव राजस्थान में कोई क्रांति होगी? जी नहीं। क्रांतियों के लिए भारत की स्थितियाँ इजाजत नहीं देती। देना भी नहीं चाहिये। पुनर्जागरण ही एक मात्र उचित उपाय है। पर्याप्त है। अभिनव राजस्थान में प्रदेश का बुद्धिजीवी वर्ग ऐसा ही पुनर्जागरण करेगा, जिससे व्यवस्थाएँ सुचारु चल सकें। जनता लोकतंत्र को समझ सके और शासन चलाने वाले भी। अभिनव राजस्थान अभियान का यही अंतिम लक्ष्य होगा। मेड़ता की 25 दिसम्बर की आम सभा में यही मूल विषय है।
पिछले अंक में छपे राजस्थान के बजट को कई बुद्धिजीवी मित्रों ने नहीं पढ़ा है। आग्रह करता हूँ कि उसे फिर से अवश्य पढ़ें। तभी हम इस अभियान को सफल बना पायेंगे। वरना आधी-अधूरी तैयारी के साथ और केवल आलोचना के बल पर हम केवल अराजकता को आमन्त्रण देंगे। वर्तमान में देश के कई बुद्धिजीवी सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में ऐसी ही आधी-अधूरी जानकारियों के साथ जनता को भ्रमित कर रहे हैं। लेकिन राजस्थान में हमें जिम्मेदारी से आगे बढ़ना है। इसके लिए हम सबको जो स्वयं को चिन्तनशील मानते हैं, गम्भीरता दिखानी होगी। जब हम लोग ही गंभीर नहीं होंगे तो आम जनता कब जागेगी? बुद्धिजीवियों को देश-प्रदेश के वर्तमान हालात से उबारना होगा। यही उनकी सामाजिक जिम्मेदारी भी है। केवल आलोचना के सहारे वे अपने वर्ग को समाज की मुख्य धारा से अलग कर लेंगे। काफी कुछ तो कर ही चुके। अभिनव राजस्थान उनका अपना मंच होगा, परन्तु इस मंच पर बातें गम्भीरता से होंगी, जिम्मेदारी से होंगी। यहाँ पदों या पुरस्कारों का झमेला नहीं होगा, केवल काम करने का आनन्द होगा, पुनर्जागरण की महक होगी।
इस झंझट से बचने के लिए कुछ बुद्धिजीवी कहेंगे कि यह तो हमें भी पता है, पर क्या सरकार मानेगी? कौन सरकार? क्या सरकार? सरकार कौन चिड़िया है? हमीं तो सरकार हैं। सरकार में बैठे लोग हमीं में से आये हैं, हमने भेजे हैं, हम उनको पैसा देते हैं। जब हम जग जायेंगे, बात को सही ढंग से समझने लगेंगे, पूछने लगेंगे तो सरकार क्या करेगी? सरकार हमसे है, हम सरकार से नहीं। लेकिन हाँ, हमें हमारे जागरण अभियान के पक्ष में जन समर्थन जुटाना होगा, केवल लिखने, बोलने से काम नहीं चलेगा। सकारात्मक जन समर्थन पूर्णतया अहिंसात्मक। इससे हमारी बात की गूंज बढ़ेगी और इससे सरकार को भी परिवर्तन करना आसान होगा। वरन् जनजागरण के अभाव में कई बार चाहते हुए भी सरकारें जनहित के निर्णय नहीं कर पाती हैं। उन्हें स्वार्थी तत्त्व डराते रहते हैं, हड़तालों की धमकियाँ देते हैं। लेकिन हम मजबूती से आगे बढ़े तो 25 दिसम्बर 2011 की आम सभा का असर, फरवरी 2012 के बजट से दिखाई देने लगेगा। लेकिन क्या इतना काफी है? पर्याप्त है? जी हाँ, माहौल बनाना ही सबसे बड़ा काम होता है। अगर सकारात्मकता का, विकास का माहौल बन जाता है, तो व्यवस्थाएँ स्वत: करवट ले लेंगी। ऐसा प्रत्येक विकसित सभ्यता में हुआ है, प्रत्येक विकसित देश में हुआ है और यही एक रास्ता है। बस थूं बोल तो सरी, जुबान खोल तो सरी!
वन्देमातरम्।
wel-come sir,
soye hua ko jagaya jata hai,jaagte ko kya jagayen.
ye budhijivi varg hee hai jo khud peeche rahkar sochta hai ki koi aage ho jaye,salah dene ko to sab taiyar hai lakin action pahle kon le yahi andhera hai. With regd.
mehram chaudhary badu.