अकाल की कोई संभावना नहीं है.
अगर.
अगर हम हर खेत और छत में बरसी बूंदों को सहेज लें.
अगर हम सहेजे पानी से तक खेत की सींच लें जब अगली बारिश न हो या देर से हो.
अगर हम अपने खेत की मिट्टी को टेस्ट करवाकर कम पानी में पकने वाली बीज की किस्में बोयें.
अगर हम ढाल के विपरीत हल चलाकर और फिर ड्रम (या कुली) से नमी को बचा लें.
अगर हम दाल, बाजरा और ग्वार आदि को मिक्स करके बोयें.
आपको ताज्जुब होगा कि इजरायल में हमसे पांच गुना बारिश कम होती है. यानी जिसे हम अकाल कहते हैं, उतनी बारिश वहाँ सामान्य है. और वहाँ हमारी तरह रेगिस्तान भी है. तो भी वे लोग जल संरक्षण और जल ग्रहण विकास से भारी मात्रा में सब्जियां और फल उगाते हैं और विदेशों को निर्यात करते हैं.
हमने नागौर में ही आपको बताया कि कैसे जल संरक्षण और आधुनिक विधि से नागौर के आसपास शानदार खेती हो रही है. यादव जी के खेत में ग्वारपाठा कितना कीमती हो गया है. बगडिया जी ने कितना अच्छा प्रयोग कर दिखाया है.
फिर किस बात का रोना है ? आपको बताऊँ कि जब भी मैं ऐसे उदाहरण देता हूँ तो हमारे किसान मित्र क्या कहते हैं ? कहते हैं कि हो सकता है कि यादव जी या बगडिया जी के खेत की मिट्टी में चमत्कार हो ! फिर कहते हैं कि क्या करें, मजदूर नहीं मिलते ! या कहते हैं कि हो सकता है कि वहाँ की जलवायु अलग हो ! वाह मेरे प्यारों, नागौर के आसपास की बात करता हूँ और कहते ऐसे हो जैसे मैं चीन की बात कह रहा हूँ.
Problem क्या है ? Negative Mindset. कुतर्क. नहीं जानते-समझते हुए भी छद्म ज्ञान का अहंकार. सीधा धन चाहिए ! छः दशक से बात यहीं अटकी हुई है. कृषि वैज्ञानिक भी हार मानकर भाग लिए हैं और नेताऐसी ‘फ़ालतू’ बात करते नहीं हैं. तो समाधान क्या है ? माहौल बनाना होगा, भारतीय गुलाम और कम आत्मविश्वास का मानस माहौल में ही काम करता है. गलत माहौल हो या सही. Justify हो जाता है. ‘सब कर रहे हैं तो हम भी कर रहे हैं’ से ही वे motivate होते हैं. सब मरे हुओं के पीछे मिठाइयाँ खाते हैं तो हम भी खाते हैं, सब डोडा पीते हैं तो हम भी पीते हैं. परन्तु एक सफल उदाहरण काफी नहीं होता. उसे तो वे ‘यूं ही हो गया होगा’ करके टाल देते हैं.
‘अभिनव नागौर’ में हम माहौल बनाने में लगे हैं. अच्छाई की मार्केटिंग से.
‘अभिनव नागौर’ से ‘अभिनव राजस्थान’ तक.
वंदे मातरम !