केन्द्रीय बजट में किसानों को इस वर्ष आठ लाख करोड़ के ऋण.
लेकिन ऐसा भी हो सकता था-
भारत में छः लाख गाँव हैं. एक गाँव में एक वर्ष में खेती के लिए औसतन एक करोड़ रूपये की जरूरत पूरे गाँव को पड़ती है. इसमें डीजल, बीज, खाद और दवाइयां कवर हो जाती हैं. यानि छः लाख करोड़ रूपये में भारत की खेती को मौते तौर पर मेनेज किया जा सकता है तो. उस पर एक लाख करोड़ रूपये का बीमा करवा दिया जाए, तो खेती को रिस्क फ्री बनाया जा सकता है. लेकिन यह कब होगा ?
जब यह मान लिया जाएगा कि भारत में सबसे अधिक लोग खेती के व्यवसाय से जुड़े हैं और उनके उत्पादन और उनकी आमदनी को बढाए बगैर भारत का असली विकास नहीं होगा. अब देखिये न, भारत में ताजा आर्थिक सर्वे के अनुसार 56% लोग खेती करते हैं और अर्थ व्यवस्था में उनका योगदान 15 % है. यानि काम करने वाले खेती में ज्यादा पर उनका योगदान कम या कहिये कि उनकी आमदानी बहुत ही कम है. इससे बेरोजगारी बढ़ती है.
किसान को लोन के नाम पर मदद से वह नहीं हो रहा है, जिसके लिए यह लोन दिया जाता है. इस लोन से खेती को बढ़ावा कम किसान ही दे पाते हैं. अधिकतर लोन आज भी खेती के अलावा कामों में बिखर सा जाता है. इसलिए इस पैसे को प्लान करके खेती के काम में लगाया जाकर ही वांछित परिणाम मिल पायेंगे.
पर खेती की बातों को कहना अब fashionable नहीं रह गया है और यह जब तक रहेगा, भारत उधार के पैसों के बल पर और पूंजीपतियों की गिरफ्त में एक शोषण व्यवस्था बना रहेगा. मीडिया दस प्रतिशत लोगों की प्रगति के समाचार दिखाता-छापता रहेगा और एक भ्रम में भारत के कुछ और साल बीत जायेंगे.
‘अभिनव राजस्थान अभियान’
जनजागरण से लोकतंत्र और असली विकास का उद्धेश्य लिए.
वंदे मातरम !