मित्रों,
भारत में खेती को लाभकारी बनाने के लिए मेरे अनुसार निम्न बातों पर विचार किया जाना चाहिए.
- हमें एक साधारण विषय को उलझन से बाहर निकालना चाहिए. एक किसान अपने परिवार के साथ आराम से जीवन यापन कर सके, यही विषय है. निराशात्मक बातों से माहौल को खराब करने की आवश्यकता नहीं है, न ही किसान पर दया करने की. कहीं पर कुछ चूक शासन से हुई है तो कहीं समाज की व्यवस्थाओं से भी गड़बड़ हुई है. इसलिए समग्रता से इस पर विचार करें, लेकिन सरलता से.
- सबसे पहले किसान के सामाजिक जीवन पर काम करना होगा, जिसमें कई दकियानूसी परम्पराओं के कारण किसान का खर्च अनावश्यक रूप से और अत्यधिक बढ़ गया है. किसान की कमाई इन फिजूलखर्चियों की भेंट चढ़ रही है. सारे भारत की यही कहानी है. परिणामतः उसके पास पूँजी नहीं बन पा रही है, बल्कि वह तो उलटे कर्ज में और फंस रहा है. इस बात पर से कब तक आँख मूंदी जा सकेगी और कब तक सरकारें इन फिजूल खर्चों की भरपाई करती रहेगी. इसलिए किसानों के सामाजिक पक्ष को हमारी कार्य योजना में सबसे ऊपर रखना चाहिए. समाज में दखल नहीं देने की नीति से हम कहीं नहीं पहुंचेंगे. किसान को कितना भी लाभ हो जाये, फिजूल खर्च में वह लाभ बह जायेगा.
- दूसरी बात यह कि श्रम करने की प्रवृत्ति कम होने से खेती की लागत कृत्रिम रूप से बढ़ रही है. सभी माध्यम निठ्ठले बैठने को आराम की जिंदगी बता रहे हैं. यह बात किसानों के दिमाग में घर कर रही है. इसी लिए तो २०० बीघा जमीन का मालिक भी अपने बेटे को चपरासी बनाने को लालायित रहता है. नेता और समाज सुधारक भी बच्चों को पढ़ा लिखा कर सरकारी नौकर बनाने के भाषण देते हैं. वे यह नहीं कहते कि उन्नत खेती के लिए अगली पीढ़ी को तैयार करना चाहिए. परिणामतःखेती से दूरी पनप रही है. रात दिन सुनी जा रही बातों का असर तो पड़ता ही है.
- बीज, खाद और कीटनाशक को स्थानीय स्तर पर तैयार करने पर पता नहीं क्यों काम नहीं हो रहा है. सब्सिडी की बात कहाँ से आ रही है. सब्सिडी के नाम पर जितना पैसा इन वस्तुओं के उत्पादकों को दिया जा रहा है, उसके आधे में तो भारत के प्रत्येक गाँव में स्थानीय उत्पादन की इकाइयाँ लग सकती हैं.
- इतने आई आई टी संस्थान देश में हैं, परन्तु खेती के लिए सस्ता ट्रेक्टर और अन्य उपकरण वे तैयार नहीं कर पाए हैं. ५ लाख का ट्रेक्टर खरीद कर किसान क्या लाभ कम सकेगा, जबकि यह साधारण सी मशीन १ लाख में बन सकती है. नैनो कार बन गयी ,तो ट्रेक्टर क्यों नहीं बनता. खेती में लगे देश के ७० प्रतिशत लोगों को जब इन तकनीकी संस्थानों से कोई फायदा नहीं पहुँच रहा है, तो इनके होने का औचित्य क्या है ? केवल विदेशियों के लिए तकनीक विकसित करना ही है?
- प्रत्येक वर्ष कुछ गांवों को गोद लेकर उनमें कृषि जगत की आधुनिक विधाओं का प्रदर्शन किया जाना चाहिए. इसके लिए संपूर्ण गाँव को चुना जाना चाहिए, न कि सस्ती लोकप्रियता के लिए केवल बी पी एल परिवारों को. तभी किसान खेती के विज्ञान के प्रभाव को समग्र रूप से समझ पाएंगे, वरन किस्तों में प्रयोग करने से वांछित परिणाम नहीं आ रहे हैं.
- किसानों को कर देने वाले समुदाय के रूप में जाना चाहिए. क्या वे जब साबुन या कपड़ा खरीदते हैं, तो कर नहीं देते हैं? अगर व्यापारी सरकार तक वह कर नहीं पहुंचाते हैं तो इसमें किसान का क्या दोष है? उसने तो अपना कर्त्तव्य निभा दिया है. फिर यह क्या रट है कि सरकार उन पर अहसान कर रही है. किसानों द्वारा आय कर नहीं देने को वर्षों से उनके विरुद्ध हथियार बना कर इस्तेमाल किया जा रहा है. क्या आय कर ही एक मात्र कर होता है? देश की ७० प्रतिशत जनता खेती करती है और वह भले आय कर न देती हो, आय कर के जनक सभी अप्रत्यक्ष कर वह देती है. और उन करों से ही सरकारें चलती हैं. यह बात योजनाकारों को भली-भांति समझ लेनी चाहिए.
- किसानों से बिजली का खर्च लेना सामंती– अंग्रेज़ी मानसिकता है. आजादी के बाद तो इसमें बदलाव आना चाहिए. हमारे प्रदेश में साल भर में १४०० करोड़ रुपये के बिल किसानों को भेजे जा रहे हैं. आज के युग में इतना पैसा क्या मायने रखता है? जब सब तरफ पैसे को तथाकथित कल्याणकारी योजनाओं पर लुटाया जा रहा है, तो किसानों को भी इस मामले में राहत क्यों नहीं दी जा सकती? किसानों के लिए इतनी सी रकम बहुत मायने रखती है.
- खेती के उत्पादों का उचित मूल्य किसानों को नहीं मिलने के पीछे प्रमुख कारण यही है कि उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता के हाथ में न जाकर बिचोलियों के माध्यम से जा रहा है. किसान मूँग ३० रुपये किलो में बेच रहा है, जबकि मूँग की दाल ७२ रुपये किलो बिक रही है. यहीं पर मुख्य बीमारी है, जिससे किसान और उपभोक्ता दोनों लूट रहे हैं और महँगाई- महँगाई का रोना मचा रखा है. लेकिन समर्थन मूल्य बढ़ाना इसका उपचार नहीं है, न ही जमाखोरों पर दोषारोपण करना सही है. जमाखोरी कोलगेट या साबुन की क्यों नहीं हो रही है? साफ है कि कोलगेट और साबुन के उत्पादन के मूल्य और बेचान मूल्य में १५० प्रतिशत का अंतर नहीं है. वस्तु का वितरण उत्पादक के नियंत्रण में है. यही हमें खेती के उत्पाद के साथ करना होगा. सहकारी क्षेत्र को पुनर्जीवित कर प्रत्येक उत्पाद की प्रोसेसिंग गाँव में ही करनी होगी और वहीं से वितरण का प्रबंध करना होगा. जैसा हम दूध के क्षेत्र में सफलता पूर्वक कर पा रहे हैं.
- अब बात, योजना की. कोई भी सरकार हो, योजना में खेती पर खर्च कम करने पर लगी है. अब तो यह ३% से भी कम हो गया है. और जिसे ग्राम विकास कहा जा रहा है, उसका खेती से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है. नरेगा के गड्ढे खोदने से कैसा विकास हो रहा है, सभी जानते हैं. याने ७०% लोगों से जुड़े विषय पर योजना का खर्च केवल ३%. इसी से योजनाकारों की मानसिकता का पता चल जाता है. जबकि ऊर्जा पर ५०% खर्च किया जा रहा है, परन्तु बिजली अभी भी किसानों को ५ घंटे ही मिल रही है. फिर उस खेल का अर्थ क्या है? इसी प्रकार योजनाओं में सामाजिक सेवाओं के नाम से बन्दर बाँट करने के बाद भी सरकारी स्कूल में किसानों के बच्चे अव्यवस्था के कारण पढ़ नहीं पा रहे हैं, तो सरकारी अस्पतालों का बुरा हाल है . कुल मिलाकर कह सकते हैं कि किसान और खेती अब योजना का सबसे उपेक्षित विषय हो गया है. आधारभूत ढाँचा और सूचना तकनीक जैसे हवाई और विदेशी शब्दावली के नक्कारखाने में किसान की तूती की आवाज दब कर रह गयी है. तो सस्ती लोकप्रियता और सत्ता लोलुपता में अंधे हो चुके नेता नरेगा जैसी योजनाओं पर पैसा बहाकर खेती का नुकसान कर रहे हैं.
- अंत में सरकारों की और प्रशासकों की किसानों के बारे में धारणा के बारे में. वे भूल रहे हैं कि खेती का उत्पादन बढ़े बिना भारत के विकास की बात शुरू नहीं होगी, अभी चाहे सच्चाई को वे कितना ही झुठला लें. विदेशी धन से वे क्या क्या कर लेंगे और इसके लिए वे देश के स्वाभिमान को किस हद तक बेचते रहेंगे. शुतुरमुर्ग की तरह कितने समय तक वे देश को गरीबी और बेरोजगारी से बचा पाएंगे . लेकिन उनकी सोच का हाल यह है कि ‘किसान’ शब्द ही अब उनके शब्दकोश से बाहर होता जा रहा है. वहीं जातियों में बंटे किसान भी अपने साझे हित की बात से दूर चले गए हैं. जातिगत नेता और दल भी किसान शब्द से दूर हो गए हैं और जातिगत भावनाओं को भड़का कर वे राज में आने के लक्ष्य तक ही सीमित हो गए हैं. इस स्थिति में किसानों के बारे में सर्वांगीण सोच रखने की आवश्यकता है . देश को किसानों की मेहरबानी चाहिए, यह भावना रख कर किसान को फिर से खेती से जोड़ने की आवश्यकता है. इसी लिये अभिनव राजस्थान अभियान अपनी कार्य योजना में खेती को सबसे ऊपर प्राथमिकता देकर इस विषय के साथ न्याय करेगा.
आय कर के संबंध में उल्लेखनीय है कि कृषि पर आय कर न होने से समृद्ध वर्ग तथा काले धन को सफेद में बदलने के लिए कृषि आय को सर्वाधिक काम में लिया जा रहा है। अतः फसल की बिक्री से प्राप्त राशि को आधार बनाते हुए 20 लाख रुपए से अधिक बिक्री पर 5 प्रतिशत 50 लाख रुपए से अधिक बिक्री पर 10 प्रतिशत तथा 1 करोड़ से अधिक बिक्री पर 20 प्रतिशत की दर से आय कर लगाया जा सकता है। इससे बड़े फार्म हाउस के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपए की आय कर चोरी को भी रोका जा सकेगा तथा सामान्य किसान इसकी सीमा में न आने के कारण या 20 से 50 लाख की बिक्री पर अधिकतम डेढ़ लाख रुपए देकर आयकर दाता की श्रेणी में आ जाएगा। इससे ऊपर बिक्री वालों को अधिकतम 5 लाख देने में कोई समस्या नहीं होगी और 1 करोड़ से ऊपर बिक्री पर यदि कर दर 20 प्रतिशत रहती है तो उनकी समृद्धि अनुसार इसे न्यायोचित ही कहा जाएगा।