मौसम की मार से परेशान किसान इन दिनों क्या कर रहे होंगे ?
क्या घर में बैठकर रो रहे होंगे ?
क्या शासन से कोई उम्मीद है उनको ?
नहीं जी ! जो ऊपरवाला कष्ट देता है, वह हिम्मत भी सबसे ज्यादा किसान को देता है.
और शासन से उनको उम्मीद अंग्रेजों के समय भी नहीं थी और आज भी नहीं है.
दो-चार दिन चिंता में डूबे, आगे की योजनाएं चौपट होती दिखाई दीं. लेकिन फिर निकल पड़े बचे कुछे को समेटने. जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई के लिए नए नए प्लान बन रहे हैं. पहले जीरे और इसबगोल की फसल से ज्यादा उम्मीद थी तो गर्मियों में कपास से जूझने का मन नहीं था. भाव बहुत ही कम हैं. लेकिन अब जीरे और इसबगोल में धोखा खा गए तो कपास को पुनः अपनाना होगा. तैयारियां शुरू हो गई हैं. किसान मरते दम तक विकल्प नहीं छोड़ता है. भगवन, देखते जाओ. आपको कर्मयोगी की भक्ति के आगे हारना होगा !
और शासन से उम्मीद ? किसान शासन में बैठे राजनेताओं और अफसरों के बस मजे लेता है. सत्ता के मद में चूर और चमचों से गिरे आज के राजनेताओं को यह मालूम नहीं है. ये जो खेतों में दौरे करने निकले थे न, तो कोई किसानों की भीड़ नहीं आई थी, इनको गुहार लगाने. कुछेक लोग अरेंज करने पड़ते हैं गाँव से ! ताकि अखबार में छपवाया जा सके कि किसान राजनेता-अफसर से मिले और उनको अपना दुःख सुनाया और मुआवजे की मांग की. जबकि आप गाँव के चौपाल पर जाकर कहो कि चलो किसानों, राजनेताजी या अफसर आये हैं, तो वे हँसते हैं या बुरी तरह से व्यंग्य कसते हैं- हम जानते हैं उन सबको !
खैर ! आज लोकसभा में बहस थी- भारत में खेती पर आये संकट पर. घड़ियाली आंसुओं से सदन में बाढ़ सी आई हुई थी. सभी कह रहे थे कि कृषि बीमा एक धोखा है ! तो इस धोखे को रोको न. क्या यह भी अमेरिकी दबाव में झेलना पड़ रहा है ? लेकिन इस बहस में प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री नहीं थे. शायद अन्य जरूरी काम होंगे. भूमि अधिग्रहण बिल के समय सब थे. लोकसभा में कितने सदस्य रहे होंगे ? मुट्ठीभर ! खेती भी कोई विषय है ? और यह बात किसान भी जानता है कि उसका विषय खादी वालों के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है. इसीलिये आजकल किसी भी सभा में भीड़ ‘अरेंज’ करनी पड़ती है ! मन से कोई नहीं आता है.
इधर राजस्थान के शासन की समझ भी किसानों के बारे में बढ़ी है ! नुकसान की भरपाई के लिए कहा गया है कि इनको नरेगा में काम दे देंगे ! वाह रे किसानों के हमदर्दों. नरेगा में तो वे भी काम नहीं कर रहे, जिनके पास खेती का साधन नहीं है. किसान क्या नरेगा के भरोसे बैठा है ? क्या अफसरों के कहे कहे चुटकुले सुनाते हो. कुछ करना ही है तो बीमे की व्यवस्था सुधारों, मंडी में भाव ज्यादा दिलवाओ, ब्जिली और डीजल के भाव कम करो. रहम मत करो, हक दे दो.
या इन्तजार कर रहे हो कि टूटकर किसान जमीन देना मान ले ? किसान को जाति में बांटने में तो कामयाब हो गए हो पर तोड़ नहीं पाओगे. नहीं होगा ऐसा ! किसान को अभी भी नहीं जान पाए आप. जमीन तब भी नहीं दी जब अंग्रेज राज में कलेक्टर छाती पर कोड़े लेकर खड़े थे. अब तो राज उनका अपना है. ज्यादा पीछे मत धकेलो, भड़क गए तो छुपने को जगह नहीं मिलेगी.
जय किसान.
अभिनव राजस्थान की जान किसान.
वंदे मातरम !