पहले ऐतिहासिक घटना संक्षेप में
वर्ष १७३०. जोधपुर के शासक अभयसिंह को अपने महलों के विस्तार के काम के लिए चूना पकाना था. इसके लिए लकड़ी की आवश्यकता थी. अधिक मात्रा में लकड़ी, जोजरी नदी के किनारे खेजड़ली क्षेत्र में मिल सकती थी, क्योंकि प्रकृतिप्रेमी बिश्नोई हरे पेड़ों को नहीं काटते है. दीवान गिरधर भंडारी और स्थानीय ठाकुर को यह काम सौंपा गया. बिश्नोइयों ने विरोध किया, तो भंडारी ने मारकाट का डर बताया और एक खेजड़ी के लिए एक जान मांग ली. बात ठन गई और खेजड़ी के लिए शीश कटवाने का क्रम शुरू हो गया. अमृता नाम की बहादुर महिला से शुरू होकर यह बलिदान ३६३ की संख्या पर पहुंचा तो तलवारें भी जैसे पिघल पड़ीं और नरसंहार रोकना पड़ा . भाद्रपदा शुक्ल दशमी के दिन की ह्रदयविदारक घटना जैसा विश्व में कोई दूसरा उदहारण नहीं है.
स्मारक में चिंतन
मैं वहाँ बैठकर अतीत में खो गया. वर्ष १७३० की घटना को कल्पना में देखने की कोशिश करने लगा. क्या हुआ होगा उस दिन ? कैसे हुआ होगा ? कैसे लोग रहे होंगे ? कैसा समाज रहा होगा ? मेरे सामने जैसे राजस्थान की महान् वीरांगना अमृता बिश्नोई के संघर्ष के चित्र उभरने लगे. एक किसान परिवार की साधारण महिला कैसे धर्म और शौर्य के इतने ऊंचे स्तर तक पहुँच गई ? कैसे गुरु जाम्भोजी की सीख उनके मानने वालों के मन में इतने गहरे तक उतर गई, कि वे वृक्षों के लिए जान की बाजी लगाने से पहले जरा भी नहीं हिचकिचाए ? गुरुओं ने तप सिखाया है, ध्यान सिखाया है, भजन गाने को कहा है, शास्त्र पढ़ने को कहा है, शस्त्र चलाना सिखाया है. लेकिन जाम्भोजी तो अद्भुत बात कह गए – सर(सिर) साटे भी रूंख(वृक्ष) रहे, तो भी सस्तो जाण.
यह तो पहले किसी ने नहीं कहा. बाद में भी नहीं कहा. अहिंसा की बात से काफी आगे की यह बात थी. महावीर अहिंसा की बात कह कर गए थे. जीवों पर दया करना. जीवों से उनका तात्पर्य जीव-जंतुओं से था. शायद. लेकिन यहाँ तो जाम्भोजी ने वृक्षों को भी उन जीवों में शामिल कर दिया गया था. ऐसी बात कह दी गई जो सृष्टि को बचाने के लिए जैसे अंतिम बात थी. केवल कहा ही नहीं है, जाम्भोजी ने वृक्षों को बचाने के लिए बलिदान देने की सीख भी दे दी. यह नहीं कि जीवों पर मात्र दया करनी है, बल्कि जरूरत पड़े तो उनकी रक्षा के लिए जीवन न्यौछावर कर देना है. जाम्भोजी के अनुयायी इस बात पर खरे उतरते रहे हैं और आज भी इस बात पर काफी हद तक टिके हैं. गांधी ने भी अहिंसा के साथ सत्याग्रह जोड़कर बात को आगे बढ़ाया था, लेकिन उन्हें भी सत्य के इस आग्रह का आभास नहीं था. गांधी तो सत्याग्रह से अंग्रेजों को हिलाना चाहते थे. लेकिन बिश्नोइयों का यह सत्याग्रह तो अंग्रेजों या ठाकुरों को ही नहीं, परमात्मा को भी हिला देने वाला था. गाँधी को छोडिये. क्या इस प्रकार के सत्याग्रह और बलिदान के बारे में, विश्व में कहीं और मानव सभ्यता कभी सोच भी पाई है ? स्पष्ट है कि नहीं. बिल्कुल नहीं.
सृष्टि बचाने का यज्ञ
शहीद स्मारक के नीचे बैठा बैठा मैं कल्पना कर रहा था कि अमृता किस प्रकार राजा के सैनिकों और उनके दीवान गिरधर भंडारी से जूझी होगी. अमृता के नहीं मानने पर किस निर्दयता से एक सैनिक ने अमृता की गर्दन काटने के लिए कुल्हाड़ी चलाई होगी ? कैसे अमृता अपने गुरु को याद करती हुई निडरता से खेजड़ी से लिपटी रही होगी ? अमृता की मौत के बाद उन सैनिकों और गिरधर भंडारी के चेहरे पर कैसे भाव रहे होंगे ? और जब अमृता की बेटियों भागु, आशी और रतनी ने अपनी माँ के बाद अपने अपने सिर कटवाने को आगे किये होगे तो सैनिकों ने कैसे वीरता(?) दिखाई होगी और कैसे रणबांकुरों(?) ने उन पर वार किये होंगे ? फिर किस भाव में अमृता के पति रामोजी और अन्य ३५८ महावीर भी एक एक कर अपना बलिदान देते गए होंगे ? मैंने सोचा कि भादों के महीने में खून की इस बरसात पर ईश्वर की ऑंखें भी नम हो गई होंगी.
मैं स्मारक के नीचे सहेज कर रखी गई रेत को बार बार छूकर देख रहा था. यहीं पर उन ३६३ शहीदों की लाशों को रखा गया था. इस रेत के कण कण में उन अनूठे वीरों की गूँज आज भी महसूस की जा सकती है. मैं तो द्रवित हो गया था. मैं उस जगह बैठा था, जहाँ सृष्टि को बचाने का यज्ञ हुआ था और जिसमें इंसानों ने स्वयं अपनी बलि दी थी. जानवरों की बलि देने वाले यज्ञ तो हमने खूब पढ़े हैं, लेकिन इंसानों की स्वप्रेरित बलि केवल इसी यज्ञ में दी गई होगी. मुझे लगा , ब्रह्माजी ने पुष्कर में सृष्टि रचने के लिए यज्ञ किया था और यहाँ बिश्नोइयों ने सृष्टि को बचाने का ! मैं वाकई में एक महान स्थल पर बैठा था.
उपेक्षा की हद
वृक्षों के लिए बलिदान को जाम्भोजी ने खडाना कहा था और यह किसी जौहर से कम नहीं था. लेकिन इस बलिदान की कहानी को हम राजस्थान के लोग ठीक से नहीं कह पाए. अगर ऐसा कर पाते तो खेजड़ली आज एक विश्व तीर्थ होता, जहाँ पर्यावरण को लेकर चिंता करने वाले लोग विश्व भर से आते, धरती को बचाने पर चिंतन करते. परन्तु आज खेजड़ली का स्मारक वीरान पड़ा है. स्थान को देखकर ही लगता है कि वन विभाग द्वारा मात्र खानापूर्ति की गई है. अमृता के नाम पर घोषित पुरस्कारों की तरह. वहीं वर्ष में एक बार मेले के समय राजनैतिक पैंतरेबाजी के लिए सभी नेता आते हैं और एक वर्ष के लिए स्मारक को अलविदा कह जाते हैं. कमाल तो यह है कि इस स्मारक में अब केवल बिश्नोइयों की ही रुचि रह गयी है. अन्य समाज इसे बिश्नोइयों का स्मारक मानकर दूर ही रहते हैं. शायद वे भूल गए हैं कि खेजड़ली के अमर शहीदों ने बलिदान बिश्नोई समाज के लिए नहीं, वरन समूची मानव जाति के हित में दिया था.
‘अभिनव राजस्थान’ में खेजड़ली के इस पावन स्थान को इतना भव्य रूप दिया जाएगा कि विश्वभर के लोग जीवन में एक बार यहाँ आना अपना सौभाग्य समझेंगे . भारत में आने वाला प्रत्येक पर्यटक इस स्थान को देखना चाहेगा, यहाँ की मिट्टी को छूना चाहेगा. राजस्थान की विश्वभर में विशिष्ट पहचान इस स्मारक के कारण बनेगी. भारत की भी. देश के अन्य प्रान्तों और राजस्थान के विभिन्न जिलों के लोग भी यहाँ आकर प्रेरणा लेंगे और अपने क्षेत्रों को हराभरा रखने के काम में लग जायेंगे. आखिर इससे बड़ा प्रेरणा का स्रोत दूसरा क्या होगा ?