मैं अरावली हूँ। भारत की सबसे पुरानी पर्वत शृंखला। मैं तो तब से हूँ, जब सागर की लहरें राजस्थान के पश्चिमी भाग तक आती थीं। तब यहाँ टैथिस सागर था। लेकिन अचानक जमीन ऊँची उठी, तो सागर मुझसे बिछुड़ गया। सागर की जगह रेगिस्तान पसर गया है। अब पानी की लहरों की जगह रेतीली हवाएँ मुझसे टकराती हैं। मैं इन गर्म हवाओं को सहन कर लेती हूँ,परन्तु रेत को आगे पूर्व में जाने से रोक देती हूँ। ऐसा न करूँ, तो भारत के उपजाऊ मैदान इस रेत से ढक़ जायेंगे। मेरी इस सेवा के बारे में कितने लोग जानते हैं? बस भूगोल के जानकार तो बार-बार कहते हैं कि मेरे तिरछा होने के कारण मैं अरब सागर से उठे मानसून को रोक नहीं पाती हूँ। अगर में आडी खड़ी होती, तो यहाँ खूब वर्षा होती। लेकिन मैं कहती हूँ कि बंगाल की खाड़ी की मानसूनी हवाओं को रोककर मैं जो भी वर्षा करवाती हूँ, उसका आप क्या कर लेते हो?
आपको पता है, मेरे आँगन में कई समृद्ध सभ्यताएँ फली फूली हैं? गणेश्वर (सीकर), आहड़ और गिलूण्ड (राजसमन्द), बागोर (भीलवाड़ा) और बैराठ (अलवर) में 2000-3000वर्षों पहले खूब रौनक थी। दुनियाभर के लोग इन सभ्यताओं से व्यापार करते थे। मैं तो कई ऋषि मुनियों की भी सेवा कर चुकी हूँ। गालव ऋषि (जयपुर), भर्तृहरि (अलवर), कपिल मुनि (पुष्कर), हारित ऋ षि (राजसमन्द) और गुरू वशिष्ठ और दत्तात्रैय (आबू) ने मेरे अतिथि बनकर अध्यात्म और दर्शन को नये आयाम दिये हैं। मेरी प्यारी बेटियों (नदियों) – लूनी, कोठारी, खारी, आयड़, बनास, बाणगंगा, कांतली और साबरमती ने जन-जंगल और जानवरों को सदियों तक खूब प्रेम से संभाले रखा है।
भारत के शासन को मेरे बेटों ने हमेशा सुरक्षा और स्थायित्व दिया है। मैं तपती रेत को झेलती हूँ, तो मेरे बेटों ने पश्चिम के आक्रमणों को झेला है। सोलंकी, चौहान और तोमर कितने वर्षों तक भारत को बचाने का संघर्ष करते रहे थे? इस संघर्ष के आखिरी दौर में कुम्भा, मालदेव और प्रताप ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। कुम्भा और मालदेव ने परिहारों की तरह ही एक और स्वर्णकाल राजस्थान को दिया था। कला, साहित्य, अध्यात्म और शासन के क्षेत्रों में गुप्तकाल जैसी उपलब्धियाँ इन्होंने अर्जित की थीं। लेकिन इसके बाद मैंने बर्बादी का दौर भी देखा। तभी प्रताप ने विरासत में मिली बर्बादी के इस ढेर में स्वाभिमान की चिंगारी लगा दी, तो अकबर का अहंकार चूर-चूर हो गया था। मेरा तो जैसे कद हिमालय से भी ऊँचा हो गया था! मैंने हिमालय को खूब चिढ़ाया और कहा कि तुम तो अभी नये हो, अरावली की बराबरी मत करो।
लेकिन भाई, अंग्रेजों के आते ही मेरी दुर्दशा शुरू हो गयी। अपने देश की मजबूती के लिए वे मेरे बाल (पेड़) नोचने लगे। साल, सागवान और बाँस को बड़े पैमाने पर काट-काट कर अपने देश ले गये। मेरे निकम्मे बेटे ऐश-मौज में रमते रहे। मैं पहली बार लज्जित महसूस कर रही थी। तभी मेरे भील बेटों ने तीर कमान संभाले और मोर्चे पर डट गये। गोविन्द गुरू और मोतीलाल जी तेजावत के नेतृत्व को देखकर मेरी मुस्कुराहट फिर लौटी। पर मानगढ़ की पहाड़ी पर 1500 भीलों के शहीद होने पर मैं अपने आँसू नहीं रोक पायी। शासन में बैठे मेरे ही बेटे अंग्रेजों से मिल गये थे।
देश को आजादी मिली, तो मैं नींद से जगी थी। ऐसा लगता था कि अब मेरे आँगन में खुशियाँ फिर लौटेंगे। पर यह क्या? राष्ट्रगान सुना, तो मैं दंग रह गयी। टैगोर गुरू मुझे कैसे भूल गये? मेरी बहिन विंध्या का नाम इसमें था, हिमालय का जिक्र भी था, लेकिन वे मुझे भूल गये। तपती रेत को झेलती इस बूढ़ी पर्वतमाला का नाम भी नहीं लिया। मुझे लगा कि शायद अब मेरी आवश्यकता परिवार में नहीं रही।
मैं फिर उदास हो गयी। निढाल हो गयी। परन्तु तब भी मुझे शांति से नहीं रहने दिया गया। अंग्रेजों से भी बुरे निकले आजाद भारत के मेरे बेटे। मेरे बचे-खुचे बाल (पेड़) भी नोचने लगे और बेचने लगे। मेरे शरीर की बोटियाँ भी वे काटने लगे। कोई जानवर भी अपनी माँ के साथ ऐसा नहीं करता है। लेकिन मेरे नालायक बेटों ने मुझे गंजा और घायल करके रख दिया है। मेरी बेटियाँ (नदियाँ) भी इस हिंसा से नहीं बची हैं। मेरी गोद में खेलते जानवरों को भी मारने में ये नये शासक अंग्रेजों से आगे निकल गये हैं।
आज मेरे इलाज के लिये ये शासक विदेशों से पैसे माँग कर ला रहे हैं। आप जानते हैं कि ये नालायक खुद मेरा इलाज नहीं करवा सकते हैं। शर्म तो अब आ रही है, जब पता चल रहा है कि ये नालायक विदेशी सहायता को भी हजम कर रहे हैं। मेरे ईलाज के पैसों से मौज कर रहे हैं। मेरा सिर शर्म से झुक रहा है। मैं अपनी हालत से भी ज्यादा मेरे बेटों की करतूतों से दुःखी हूँ।