नक्कारखाने में तूतियों की आवाज़ -राजस्थान के किसान, कारीगर, अध्यापक और व्यापारी
मैं राजस्थान का किसान हूँ।
कृषि वैज्ञानिक कहते हैं कि एक बीघा में 1 लाख रुपये की पैदावार कम पानी, कम वर्षा में भी हो सकती है। वे राजस्थान जैसे भूगोल वाले इजराइल देश का उदाहरण भी देते हैं। यही नहीं मेरे नाम से कई सफेद वस्त्रधारी इजराइल घूमकर भी आ गये हैं। वापिस आकर वे कौनसे खेतों में गये हैं, किसी को नहीं पता। इधर मेरा परिवार केवल गुजर-बसर कर रहा है। नेता भी कहते हैं कि खेती घाटे का धंधा है। बच्चों को खेती नहीं सिखाओ, उन्हें पढ़ाओ, ताकि खेती से पीछा छूटे। मैं उनके झाँसे में आ गया हूँ। बच्चों को पढ़ा रहा हूँ। लेकिन यह क्या? पढ़े-लिखे बच्चों को भी तो रोजगार नहीं मिल रहा है। अब वे खेती भी नहीं करना चाहते हैं। कहाँ फंस गया हूँ मैं?
उधर बाजार मेरा शोषण बराबर कर रहा है। मेरी चीज़ें महंगी बिक रही है, परन्तु मुझे उसका लाभ नहीं मिल रहा है। महंगाई-महंगाई देश चिल्ला रहा है, परन्तु मैं तो वही खड़ा हूँ। मेरे टमाटर 8-9 रुपये बिक रहे हैं, उपभोक्ता 15 रू. में खरीद रहा है। मेरा मूँग 30 रुपये में बिक रहा है, मूँग की दाल उपभोक्ता के पास 60-65 रुपये किलो में पहुँच रही है।
मेरे बच्चों को मुफ्त शिक्षा का वादा किया गया है, पर विद्यालय में शिक्षक नहीं है। अस्पताल से चिकित्सक गायब है। थानों में अब भी रिपोर्ट लिखवाने जाता हूँ, तो पैर काँपते हैं। तहसीलदार बँटवारे की फाइल मेरे मुँह पर फेंक देता है। मेरे नाम से राजनीति अब कोई नहीं करता। अब कोई विजयसिंह पथिक, जयनारायण व्यास या कुम्भाराम आर्य नहीं है। अब किसान की बजाय जाति की राजनीति हो गयी है। मैं भी भावनाओं में बहकर अपने अंदर के किसान को मार रहा हूँ। अब तो किसान होना प्रदेश में गर्व की बात नहीं रही है। मैं भी खुद को किसान की जगह अपनी जाति से पहचानने लगा हूँ। जय जवान, जय किसान के नारे पर अब गर्दन तनती नहीं है। कवियों-लेखकों ने भी मुझे नकार दिया है। प्रदेश में अब भी हमारी संख्या का प्रतिशत 70 है, परन्तु अब हम जाट, राजपूत, मीणा, गुर्जर, ब्राह्मण, धाकड़ आदि हो गये हैं। और अब जब जाति गणना हो जायेगी, तो “किसान” शब्द को शब्दकोश से विदा कर दिया जायेगा।
लेकिन मैं जब बी.बी.सी. सुनता हूँ, तो पता चलता है कि चीन, यूरोप, अमरीका और आस्ट्रेलिया में किसान की हालत ठीक है। किसान की अभी भी वहाँ इज्जत है। क्या इसी वजह से तो वे देश इतने मजबूत नहीं हैं। कहते हैं कि वहाँ किसानों को शासन की तरफ से खुलकर मदद की जा रही है। जबकि यहाँ तो सुनते हैं कि अब किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जायेगा। खेतों के नीचे गड़े खनिज को निकालकर विदेश भेजने हैं। चीन भेजने हैं, जापान भेजने हैं। खेतों में विदेशी लोग फैक्ट्रियाँ लगायेंगे। मैं कहां जाऊंगा? शायद इन फैक्ट्रियों में मैं और मेरे बच्चे मजदूर बन जायेंगे। बड़े बलिदानों के बाद मैं खेत का मालिक बना था, अब वापिस मेरा हक छीन लिया जायेगा।
मैं संघर्ष क्यों नहीं करता? क्या करुँ। 30-40 वर्षों में मृत्यु भोज, दहेज और झूठी शान के चक्कर में पूँजी नहीं जोड़ पाया हूँ। ऊपर से मेरे नेता, अब राजा बनकर खानदानी राजनीति चला बैठे हैं। उनको तो मेरी बात करने में ही गंवारूपन लगता है। वे कम्प्यूटर, आई टी, ग्लोबल विलेज जैसी बातें करते हैं। मेरे “विलेज” मेरे गाँव की बात को वे केवल पाँच वर्ष में एक बार करते हैं। मैं लुट चुका हूँ – आर्थिक रूप से, राजनैतिक रूप से।
मैं राजस्थान का कारीगर हूँ।
मेरा सारा परिवार हाथों से चीज़ें बनाने में लगा रहता है। पत्थर से, चमड़े से, मिट्टी से, कपड़े से, लोहे से, पीतल से, सोने से, ऊन से, धागों से, लकड़ी से हम सुंदर-सुंदर चीज़ें बनाते हैं। हमारे परिवार में यह काम पीढ़ियों से हो रहा है। जैसे हमारे रोम-रोम में यह कला बसी है। हमारे पुरखे बताते हैं कि हमारी इन चीजों की मांग दुनिया भर में रहती थी। स्थानीय लोग भी हमारी कारीगरी के दीवाने थे। तभी तो जोश-जोश में हमने पत्थरों को बोलने पर मजबूर कर दिया था। तभी तो लकड़ी से बनी हमारी कलाकृतियों को लोग निर्जीव मानने को तैयार नहीं होते थे। हमारे बनाये कपड़े जब स्त्री-पुरुष-बच्चे पहनते थे, तो देवतुल्य लगते थे। चमड़ा जब जूते में ढल जाता था, ऐसे लगता था कि उसमें खून फिर दौड़ने लगा है। मिट्टी के बर्तन अपनी महक सब तरफ बिखेरते थे। धागे जब बुन दिये जाते, तो उनका ओर-छोर अच्छे अच्छों की पकड़ में नहीं आता था।
लेकिन अब मैं अपने गांव-क़स्बे के कोने में सिमट गया हूँ। कभी अँग्रेज़ी राज के समय उनकी फैक्टरी के माल को खपाने के लिए हमारा माल दोयम दर्जे का कह दिया गया था। इसे आधुनिकता से परे बताकर अंधेरी गलियों में धकेल दिया गया था। आज भी हम उन्हीं गलियों में अपने परिवारों के साथ संघर्ष कर रहे हैं। देश का शासन बदला, तो हमें उम्मीद फिर जगी थी। गांधी जी का ध्यान हम पर पूरा था, परन्तु उनकी चल नहीं पाई। नेहरू जी ने बड़े उद्योगों की अँग्रेज़ी चाल फिर चली, तो हम फिर मात खा गये। हमारे माल को फिर महंगा, दकियानूसी और कम गुणवत्ता का कहा गया। 10-20 वर्ष तो हम संघर्ष भी करते रहे, पर अब बच्चे नहीं मान रहे हैं। वे इस धंधे से अलग होने लगे हैं। वे सुनार, दर्ज़ी या कुम्हार कहलवाने की बजाय राज के ‘नौकर’ बनना पसन्द कर रहे हैं। वे भी क्या करें, ‘नौकरों’ की इज्जत ज्यादा जो है। हम भी तो अब अपने धन्धे के ‘मालिक’ से बड़े सेठों के ‘मजदूर’ बनकर रह गये हैं। हमें अब अपनी ‘कला’ की कीमत नहीं मिलती, केवल मजदूरी मिलती है।
शासन में बैठे लोगों के लिए भी हम उद्यमी नहीं है, मजदूर हैं। अरे हाँ? अब ‘मजदूर’ कहलवाने में जो गर्व था, वह भी तो जाता रहा। अब हम जाति हैं। सुनार, दर्ज़ी, कुम्हार, मोची, सुथार, बुनकर आदि-आदि। हम आजकल वोट भी इसी आधार पर देते हैं। हमारे धन्धे को क्या सहारा शासन दे, यह तो चुनाव का विषय बन नहीं सकता। हमारे नेता भी कहते हैं कि बच्चों को पढ़ाओ और यह बेकार के काम छोड़ो। कुछ बच्चे ‘नौकर’ बनने में कामयाब भी हुए हैं, परन्तु अधिकतर चौराहों पर बेरोजगार बनकर खड़े हैं। अपने काम में उनकी रुचि खत्म हो गयी है और नौकरी मिल नहीं रही है। हमारे लाखों परिवार तो काम की तलाश में गुजरात-महाराष्ट्र भी चले गये हैं। वे वहाँ की अर्थव्यवस्था मजबूत कर रहे हैं। अब हमारा परिवार बेचैन है, निराश है। हमारे पास पूँजी? हम भी समाज के दिखावे के माहौल में बह गये और थोड़ी-बहुत जमा पूँजी कुरीतियों की भेंट चढ़ा बैठे।
मैं राजस्थान का अध्यापक हूँ।
हाँ, वही जिसे कभी श्रद्धा से ‘गुरु’ कहा जाता था। ‘गोविन्द’ से बड़ा कहा जाता है। लेकिन अब तो यह मजाक सा लगता है। शीशे में खुद को देखता हूँ, तो शर्म से सिर झुक जाता है। नहीं-नहीं, मैं अब ‘गुरु’ नहीं, एक कर्मचारी हूँ, एक नौकर हूँ। कहाँ भगवान से बड़ा, अब कहाँ इनसान से भी छोटा। मैं वेतन के लिए यह कार्य करता हूँ। बच्चे पढ़ें, तो ठीक, न पढ़ें तो और भी ठीक। बिगड़े तो बिगड़े मेरी बला से। आप किसी से कहियेगा नहीं। मैं तो अपने बच्चों को अपनी सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ाता। वे किसी प्राईवेट स्कूल या कॉलेज में पढ़ते हैं। कहाँ मेरे इन जाहिल-गंवार गरीब शिष्यों के बीच उन्हें रखूं।
कभी कभार स्कूल चला जाता हूँ। अरे! मैं कभी कभार जाता तो हूँ। मेरे मित्र कॉलेज के व्याख्याता तो यह भी नहीं कर रहे। 50 हजार से 1 लाख की तनख्वाह पाने वाले लेक्चरर-प्रोफेसर भी कहाँ पढ़ाते हैं। प्रदेश के लगभग सभी सरकारी कॉलेज-विश्वविद्यालय खाली पड़े हैं। कैम्पस सूने हैं। शायद व्याख्याताओं को वेतन देने के लिए ही कॉलेज चलाये जा रहे हैं। नेता भी यही चाहते हैं। वे भी कॉलेज का जिक्र ही नहीं करते हैं। क्यों करें? बच्चे कॉलेज में नियमित पढ़ेंगे, विचारशील बनेंगे। खतरा नहीं होगा क्या? अँग्रेज़ों ने भी यही गलती तो की थी। बेकार में देशी बच्चों को राजा-महाराजाओं-नवाबों की जगह फ्रांस की, रूस की, अमेरिका की क्रांति पढ़ा दी। मारे गये। देश छोड़ना पड़ा। अब यही गलती दोहराने का मन हमारे नेताओं का नहीं है। तथाकथित छात्र नेता भी कॉलेज में कक्षाएँ नियमित चलाने की माँग कभी नहीं करते। नतीजा यह कि कॉलेजों में 10 प्रतिशत छात्र भी पढऩे नहीं जाते। मेरी स्कूल की हालत उतनी खराब तो नहीं है।
लेकिन एक बात बतायें। मैंने सुना है कि यह हालत अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया में नहीं है। यहां तो मेरी अब समाज में कोई इज्जत नहीं रह गयी है, पर वहाँ को अभी भी शिक्षक होना गर्व का विषय होता है। क्या यही तो कारण नहीं है कि उस इज्जत के नशे में वहाँ के शिक्षक उन देशों को मजबूत बनाये हुए हैं। जबकि यहाँ तो धनी सेठों, नेताओं और अफ़सरों के सामने मैं कितना बौना लगता हूँ। मुझ से तो कलेक्टर का चपरासी भी ज्यादा इज्जत पा लेता है। थानेदार या तहसीलदार की तो बात ही और है। मुझसे कम तनख्वाह पाने वाले ये अधिकारी भी समाज की आँखों के तारे बने हुए हैं। अब तिरस्कार झेल कर मैं कब तक अपना हौसला बनाये रखूंगा। मुझे अब जब कोई ‘गुरु’ कहता है तो ताना लगता है। ताना होता भी है, उनकी भाषा में। ‘नेता’ शब्द सुभाष बोस से जितना दूर हो गया है वैसे ही ‘गुरु’ शब्द हमसे।
मैं राजस्थान का व्यापारी हूँ।
गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडू या कर्नाटक जैसा व्यापार तो यहाँ नहीं है, पर थोड़ी बहुत ठग-लकड़ी से काम चला रहा हूँ। आस-पास खेतों में उत्पादन कम है, तो किसानों की आमदनी भी कम है। कुटीर उद्योग ठप्प पड़े हैं। ऐसे में मेरा व्यापार साल में 6 महीने ही ठीक-ठाक चला है। सीजनल है। वर्ष भर तो केवल राज के नौकर ही बाजार आते हैं। उनकी कितनी सी तो संख्या है? बस, मैं ठाला बैठा रहता हूँ। अखबार पढ़ता रहता हूँ। बाबा रामदेव के जयकारे लगा देता हूँ। गाँव-क़स्बे की ख़बरें इधर से उधर फैलाने की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी उठा लेता हूँ। आजकल मोबाइल आने से टाइम पास अच्छा हो जाता है। सुबह 8 बजे से शाम 8 बजे तक यही जिंदगी है।
कम ग्राहक हैं, तो अधिक लाभ के लिए मिलावट कर लेता हूँ, टैक्स की चोरी भी अधिकार पूर्वक कर लेता हूँ। टैक्स दूं भी तो क्यों? मेरे बच्चे सरकारी स्कूल की अव्यवस्था के चलते वहाँ नहीं पढ़ते हैं। मुझे प्राईवेट स्कूल में पढ़ाना पड़ता है। इलाज प्राईवेट अस्पताल में करवाता हूँ। मेरा परिवार खारा पानी पी नहीं सकता, तो टैंकर से टांके भरकर रखता हूँ। लाईट कम आती है, अखबार या मैगजीन से हवा खाता हूँ। सड़कें टूटी पड़ी हैं। मेरे घर और दुकान के सामने गंदगी बिखरी पड़ी है। टैक्स से चलने वाली सरकार है कहाँ? मैं तो यही जानता हूँ कि मैं जो थोड़ा-बहुत टैक्स देता हूँ, उससे नेता-अफसर मौज करते हैं। मन मर जाता है यह देखकर। हाँ, धर्मशाला-गोशाला-मंदिर-मस्जिद या भागवत कथा के लिए चन्दा जरूर देता हूँ। कभी-कभी समाज या स्कूल के भवन को पैसा देकर भामाशाह का वंशज बन जाता हूँ।
लेकिन एक राज की बात बता दूँ। किसान-मजदूर-कर्मचारी जब मेरी दुकान से माल ले जाते हैं, तो मैं पैसा टैक्स सहित लेता हूँ। इस टैक्स को आगे पहुंचाने को मेरा मन नहीं करता। नेता-अफसर सब जानते हैं कि ऐसा है। परन्तु चोर-चोर मौसेरे भाई। कोई हमारे ऊपर हाथ डालने की कोशिश करे, तो हमसे बुरा दुश्मन नहीं। हम राज पलटने का मादा रखते हैं। यह ठीक है कि कभी-कभी अफसर, छापों के नाम पर हमसे नूरा-कुश्ती लड़ लेते हैं। सब चलता है जी। वैसे मैं बाबा रामदेव और अन्ना हजारे का मैं कट्टर समर्थक हूँ। बाबा को हम चंदा भी देते हैं। हम चाहते हैं कि अफसर हमसे रिश्वत न लें, लेकिन हमें टैक्स चोरी की खुली छूट हो। इसीलिए तो बाबा नेताओं-अफ़सरों के पीछे पड़े हैं। जिस दिन बाबा ने हमारा नाम लिया, तो हम बाबा की धोती खींच लेंगे। लेकिन कभी-कभी भागवत कथा सुनने जाता हूँ तो लगता भी है कि ईमानदारी से जिया जाये। एक ही जीवन है। कब तक ठगी करेंगे? पर क्या करुँ, बाजार में जैसे ही आता हूँ, घर जाता हूँ, तो व्यवस्थाओं को देखकर फिर मेरे अंदर का ईमानदार नागरिक मर जाता है, बेईमान भारी पड़ जाता है। व्यापार कम है, जिसके कारण मेरे कई रिश्तेदार राजस्थान छोड़ गये हैं। मैं भी भागने की फिराक में बैठा हूँ। पर मन नहीं करता है। प्रवासी राजस्थानी नहीं बनना चाहता हूँ। राजस्थानी ही बने रहना चाहता हूँ। मजबूरियों और मेरे राजस्थानी मन के बीच संघर्ष जारी है।