राजस्थान के सात करोड़ लोगों में से कितने इस बात को जानते हैं कि हमारा प्रदेश भारतवर्ष का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता था। तब भले ही इसे राजस्थान नहीं कहा जाता था, परन्तु एक साझी संस्कृति ने इस भू-भाग को विशिष्टता दे रखी थी। भारत की अर्थव्यवस्था की धुरी यहीं पर थी और ऐसा अंग्रेजी राज तक कायम था। लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि आज 300 वर्षों बाद हम भारत के ‘पिछड़े’, ‘बीमारू’ राज्यों में गिने जाते हैं? प्रदेश की एक हजार वर्षों की संक्षिप्त प्रामाणिक जानकारी। इतिहास लौटा सकता है विश्वास!
आकर्षक भूगोल – स्वर्णिम इतिहास
एक हजार वर्ष पहले चम्बल से सिंधु नदी तक अपने आँचल में विन्ध्या एवं अरावली पर्वतों के साथ ही थार की रेत को समेटे भू-भाग की कल्पना करें। उत्तर में पंजाब-हरियाणा और दक्षिण में गुजरात के क्षेत्रों को इसी भू-भाग का विस्तार मान लें। आबू पर्वत के अग्रि कुण्ड से निकले चार प्रमुख वंशों – प्रतिहारों, परमारों, सोलंकियों और चौहानों को भी इसी सन्दर्भ में याद करें। इस भू-भाग के उत्तर में तोमरों व जोहियों (यौद्धैयों) के साथ ही उत्तर-पश्चिम के भाटियों भी ध्यान में रखें। थोड़ा पीछे जायें, तो मत्स्य प्रदेश (जयपुर-अलवर), शिवि (चित्तौड़), अनंत गोचर (बीकानेर-नागौर) और जाबालिपुर-श्रीमाल (जालौर-भीनमाल) को महाभारत काल से जोडक़र देख लें। और कुछ देर के लिए गुलामी और शोषण से ओतप्रोत मध्य एवं आधुनिक काल को भूल जायें।
हाँ, पुष्कर को न भूलें, जहाँ पर सृष्टि की रचना के प्रयास सफलता पूर्वक किये गये थे। सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि (बीकानेर), और ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त के जनक खगोलविद् गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त (भीनमाल) भी आपके राजस्थानी मन में धीरे-धीरे उतरने चाहियें। ऋषिवर द्रोणाचार्य (द्रोणपुर), वाल्मीकी (बारां), गालव (जयपुर), माण्डव्य (जोधपुर), वशिष्ठ एवं दत्तात्रेय (सिरोही), हारित (राजसमन्द), गौतमेश्वर (प्रतापगढ़), भरतमुनि (अजमेर) और भर्तृहरि (अलवर) का इस धरा पर तपस्या करना भी हमें याद रखना चाहिए। याद इसलिए रखना चाहिए, ताकि हमारे बुझे हुए मन के दीपक फिर से आशा की लौ के लायक बन सकें। हमें लग जाये कि हमारी स्थिति कभी दयनीय नहीं थी, जैसा इस पीढ़ी को लग रहा होगा। यह इसलिए लग रहा होगा क्योंकि हमारे बुद्धिजीवियों की गुलाम परम्परा ने हीनता से भरकर हमारे स्वर्णकाल को अनलिखा ही छोड़ दिया था, और गुप्त वंश, मौर्य वंश की गाथाएँ पढ़ते-पढ़ाते रहे थे। बाद में सुल्तानों के गुलामों को महान् बताते रहे थे, तो कभी अंग्रेजों को ‘महान्’ बताने लगे थे। उन्होंने कभी भी परिहारों-परमारों-चौहानों-भाटियों-जोहियों के शासनों को राजस्थान की वर्तमान जनता से जुड़ने नहीं दिया। कभी भी महान् ऋषियों के कृत्यों को स्थानीयता से नहीं जोड़ा। लेखन की इस अपंगता का दंश आज तक हम पर भारी पड़ रहा है।
मध्यकाल में राजा-रानियों की कहानियों को लिखने के दौर में अन्याय की और उपेक्षा का एक और बौद्धिक दिवालियेपन का काल आया। गोगाजी-तेजाजी-पाबूजी-देवनारायण जी के बलिदानों को ‘गँवारों’ की गाथाएँ बताकर समेट दिया गया। ‘बाबा रामदेव’, दलित उद्धार के राष्ट्रीय प्रतीक नहीं बन पाये। ख़्वाजा गरीब नवाज, तारमीन साहब और नरहड़ पीर की इंसानियत की सीख पर अकबर की महानता (?) भारी पड़ गयी। धन्ना भगत और पीपा जी, कबीर और नानक के सामने बौने दिखाई देने लगे। मीरां-रानाबाई-करमाबाई की कृष्ण भक्ति को हमारी कलम अपेक्षित ऊँचाईयों तक नहीं ले जा पाई। गुलाम शासकों के गुलाम बुद्धिजीवियों से हम उम्मीद भी क्या कर सकते थे? यह शाश्वत सत्य है कि अपनी संस्कृति का बोध ही हमें मनुष्यता के आसपास रखता है। जब भी हम इससे दूर भागेंगे या भगा दिये जायेंगे, हीनता हमें घेर लेगी और समृद्धि के द्वार बंद दिखाई देने लगेंगे। फिर भी राजस्थान की आम जनता, देवियों और संतों की परम्पराओं को निर्बाध आगे बढ़ा रही है।
समृद्धि के शिखर पर
समृद्धि और राजस्थान ? आजकल आम बोलचाल में हम कुछ सेठों के घरानों का जिक्र कर खुशफहमी जरूर पालते हैं। बिड़ला, सिंघानिया, मित्तल, डालमिया आदि। बस यहीं तक हमारी दृष्टि दौड़ पाती है। लेकिन जब हम यह दृष्टि दोष दूर करेंगे, तो दूर तक नजर जायेगी और हमें लगेगा कि यहाँ का कण-कण अपनी समृद्धि की बातें कह रहा है।
आप आश्चर्यचकित हो सकते हैं। यह जान कर कि भारतवर्ष के व्यापार का लगभग आधा हिस्सा राजस्थान के लोग ही संभालते थे। ऐसा क्यों? फिर भूगोल को समझें। भारत के अधिकांश हिस्सों से पश्चिमी जगत (ईरान, इकार, तुर्की व यूरोप) तथा चीन-मंगोलिया जाने का सबसे सुगम और व्यस्त व्यापारिक मार्ग हमारे यहीं से गुजरता था। समुद्र से जाना तब इतना आसान नहीं था, हवाई सेवाएं तो अभी की बात है। उत्तर में हिमालय और पंजाब की नदियाँ रास्तों को दुर्गम बनाती थीं। ऐसे में पूर्वी, उत्तरी और दक्षिणी भारत से अन्य सभ्यताओं (देशों) का सम्बन्ध राजस्थान से गुजरते मार्गों से ही संभव था। गुजरात से भीनमाल व बाड़मेर होकर सिंध जाने का मार्ग था। पूर्वी भारत व मालवा से चित्तौड़, अजमेर, पाली, मण्डोर, नागौर, मेड़ता आदि स्थानों से होकर कारवां गुजरते थे। दिल्ली से राजगढ़ (चुरू) और भटनेर (हनुमानगढ़) होकर मुल्तान जाना सुविधाजनक था। हम गर्व कर सकते हैं कि पाली एवं राजगढ़ मशहूर अन्तर्राष्ट्रीय मंडियाँ थीं। ऊन, अफीम, नमक, मसालों व वस्त्रों का आदान-प्रदान भारत व अन्य देशों के व्यापारी यहीं से किया करते थे। उस समृद्धि के काल के गवाह हमारे मन्दिर (ओसियाँ, मण्डोर, बिजोलिया, आभानेरी आदि) हैं। वहीं उस समृद्धि की कुछ झलक हमारी मानसिकता में भी मिलती है। कभी गौर करके देखियेगा, कि कितनी गहरी समझ एक आम राजस्थानी रखता है। हमारे स्व. कवि कानदान कल्पित कहा करते थे – जितना यहाँ का पानी गहरा है, उतनी ही यहाँ के निवासियों की समझ गहरी है। परम्पराएं सदियों चलती हैं। आम राजस्थानी को हँसाने के लिए आपकी बात में दम होना चाहिये, वह यूं ही हल्की फुलकी बात पर बत्तीसी नहीं दिखायेगा!
आप आश्चर्यचकित हो सकते हैं। यह जान कर कि भारतवर्ष के व्यापार का लगभग आधा हिस्सा राजस्थान के लोग ही संभालते थे। ऐसा क्यों? फिर भूगोल को समझें। भारत के अधिकांश हिस्सों से पश्चिमी जगत (ईरान, इकार, तुर्की व यूरोप) तथा चीन-मंगोलिया जाने का सबसे सुगम और व्यस्त व्यापारिक मार्ग हमारे यहीं से गुजरता था। समुद्र से जाना तब इतना आसान नहीं था, हवाई सेवाएं तो अभी की बात है। उत्तर में हिमालय और पंजाब की नदियाँ रास्तों को दुर्गम बनाती थीं। ऐसे में पूर्वी, उत्तरी और दक्षिणी भारत से अन्य सभ्यताओं (देशों) का सम्बन्ध राजस्थान से गुजरते मार्गों से ही संभव था। गुजरात से भीनमाल व बाड़मेर होकर सिंध जाने का मार्ग था। पूर्वी भारत व मालवा से चित्तौड़, अजमेर, पाली, मण्डोर, नागौर, मेड़ता आदि स्थानों से होकर कारवां गुजरते थे। दिल्ली से राजगढ़ (चुरू) और भटनेर (हनुमानगढ़) होकर मुल्तान जाना सुविधाजनक था। हम गर्व कर सकते हैं कि पाली एवं राजगढ़ मशहूर अन्तर्राष्ट्रीय मंडियाँ थीं। ऊन, अफीम, नमक, मसालों व वस्त्रों का आदान-प्रदान भारत व अन्य देशों के व्यापारी यहीं से किया करते थे। उस समृद्धि के काल के गवाह हमारे मन्दिर (ओसियाँ, मण्डोर, बिजोलिया, आभानेरी आदि) हैं। वहीं उस समृद्धि की कुछ झलक हमारी मानसिकता में भी मिलती है। कभी गौर करके देखियेगा, कि कितनी गहरी समझ एक आम राजस्थानी रखता है। हमारे स्व. कवि कानदान कल्पित कहा करते थे – जितना यहाँ का पानी गहरा है, उतनी ही यहाँ के निवासियों की समझ गहरी है। परम्पराएं सदियों चलती हैं। आम राजस्थानी को हँसाने के लिए आपकी बात में दम होना चाहिये, वह यूं ही हल्की फुलकी बात पर बत्तीसी नहीं दिखायेगा!
गणतन्त्रों का शासन
गणतन्त्र हमारे शासन के मूल में थे। हालांकि हमने मगध जनपद की महिमा अधिक गायी है, परन्तु हमारे यहाँ की जनपद परम्परा भी उतनी ही समृद्ध रही है। परमारों के अवन्ति (उज्जैन) और शिवि (चित्तौड़) जनपदों, प्रतिहारों-चौहानों के अनन्तगोचर (मारवाड़), जोहियों के रंग महल (गंगानगर-हनुमानगढ़) और अर्जुनायनों के मत्स्य प्रदेश (जयपुर-अलवर) की राजनैतिक व्यवस्था भी भारत की गौरवशाली व्यवस्था के अनुरूप थीं। शासन, सामूहिक उत्तर दायित्व से होता था और शोषण जैसी बुराई इनमें कभी नहीं थी। यह विकार तो मध्यकाल में आया था।
विश्व की श्रेष्ठ कारीगरी केवल ओसियाँ के मन्दिर में तराशी मूर्तियों का ही उदाहरण लें। विश्व में आपको पत्थर पर ऐसी कारीगरी कहीं नहीं देखने को मिलेगी। ओसियाँ जैसे अनेक मन्दिर प्रतिहारों-परमारों और चौहानों के काल में बने थे। पत्थरों को हमारे कारीगरों ने जैसे मुस्कराना सीखा दिया है, हँसना-रूठना सीखा दिया है, नाचना सीखा दिया है। वेदना यही है कि हीनता के मारे हम हमारी इस सांस्कृतिक धरोहर से दूर खोये बैठे हैं। यही नहीं हमने जब धागों को बुना, रंगा और वस्त्रों का रूप दिया, तो इनसानों की सुन्दरता को प्रकट करके रख दिया। सोने-चाँदी पर जब हमारे हाथ चले, तो इन धातुओं का पृथ्वी पर होना हमने सार्थक कर दिया। हमारे बर्तन व जूते भी उपभोग की वस्तुएँ मात्र न होकर हमारी समृद्धि में रंगे रहे हैं। आज भी राजस्थान में बसे उन कलाकारों के वंशज यह सब कर सकते हैं, बशर्ते कि उन्हें मौका मिले। उन्हें सम्मान मिले।
उत्तम खेती
चम्बल से सिंधु तक मतवाले किसानों और पशुपालकों की स्वर लहरियाँ गूँजती थीं। अपनी प्रकृति को अभिशाप उन्होंने कभी नहीं समझा और इसकी बानगी पर वे इठलाते रहे थे। गायों और भेड़ों के झुंड समृद्ध होने का अहसास करवाते थे। दूध और ऊन से पर्याप्त आय हो जाती थी। बाजरा, मोठ, तिल, ज्वार और मक्का जैसी फ़सलें अलग-अलग भागों में वर्षा एवं मिट्टी के अनुसार हो जाती थीं। शोषण भी नहीं था। यहाँ तक कि शासन के मुखिया स्वयं अपनी आजीविका के लिए कार्य करते थे।
गीत-संगीत की झंकार
सावन-भादों और होली पर नदियों के किनारे, पहाड़ों की वादियों में और रेगिस्तान के धोरों पर गीतों की मस्ती अलग रंग में होती थी। होली पर गैर की लय पर तो प्रकृति भी नाचने लगती थी। घृणा और ईर्ष्या का समय किसके पास था? राजस्थान के पहनावे के साथ यहाँ का नृत्य का संगम भी सम्पूर्ण विश्व में अनूठा है। विश्व के किसी भी देश में जाकर एक बार आप राजस्थान का संगीत बजा दें, पाँव अपने आप थिरकने लग जायेंगे। संगीत की यह समृद्धि, हमारी आर्थिक समृद्धि का ही एक विस्तार रही है।
दुर्दिनों की शुरूआत
इतनी प्यारी धरती के दिन कब काले होने लगे? कैसे यह समृद्ध प्रदेश पिछड़ेपन का प्रतीक हो गया? क्यों हमें, गुजरात का गरबा नृत्य, अपने गैर नृत्य से ज्यादा आकर्षक लगने लगा? क्यों हम राजस्थानी भाषा को ‘गँवारों’ की भाषा कहने लगे? क्यों हमने इस प्रदेश में ‘पूँजी की कमी’ की घोषणा कर दी?
असल में एक लम्बी गुलामी की यात्रा ने हमसे वह सब छीन लिया, जिसके कारण सम्पूर्ण विश्व में हम जाने जाते थे। जिसके कारण हम भारत माँ की आँख के तारे थे। हमारा व्यापार व कुटीर उद्योग अँग्रेज़ों के औद्योगीकरण की बाढ़ में बह गया। हमारा प्रदेश शोषण के तीन तलों के नीचे दब गया। हमारा भूगोल, मुग़लों व अँग्रेज़ों के लिए ऐश मौज के काम आने लगा। हमारा आत्मविश्वास डगमगा गया और हम हीनता की खाई में गिर गये।
आज राजस्थान दिवस पर हम प्रदेश भर के बुद्धिजीवी वर्ग से अपेक्षा करेंगे कि वे फिर से एक समृद्ध प्रदेश की नींव रखें। भारत का सबसे बड़ा राज्य है राजस्थान और अगर यह मजबूत होगा, तो भारत भी मजबूत होगा। बस, इतना ध्यान रखें कि राजस्थान का गौरव गान करते समय क्षेत्रीयता की तुच्छ भावना से हम दूर रहें। यह हमारा स्वभाव भी नहीं रहा है। तभी तो हमें भारत का प्रतिहार (पहरेदार) कहा जाता था