मूल रूप से हमारा देश और प्रदेश गाँवों और शहरों में बंटा हुआ है। प्रदेश में 40 हजार से अधिक गाँव हैं और 222 शहर-क़स्बे हैं। प्रत्येक गाँव व क़स्बे का अपना विशिष्ट भूगोल इतिहास और परम्परा है, जिसके कारण इनकी आवश्यकताएं भी अलग हैं। हालांकि हमारे योजनाकार स्थानीयता को योजना निर्माण में स्थान देने के लिए योजनाओं का विकेन्द्रीकरण करने की बात करते हैं, परन्तु अभी भी गाँव-शहर के लोग अपने लिए योजना निर्माण में भागीदारी नहीं कर रहे हैं। योजना निर्माण वैसे भी भारतीय मानस में अपरिपक्व लोकतंत्र के कारण प्रमुख कार्य नहीं बन पाया है। जिन्हें योजना बनाने का कार्य करना है, वे स्थानान्तरण करने करवाने और इधर-उधर भटकने से अधिक कुछ नहीं कर रहे हैं। विधानसभा तो बच्चों के ‘तू चोर मैं सिपाही’ खेल का मंच भर रह गयी है। पानी के लिए नल पर झगड़ती महिलाओं का सा माहौल अब वहाँ बन गया है। ऐसी स्थिति में अभिनव राजस्थान के मित्र ही योजना निर्माण के लिए आगे बढ़ें, तो शायद यह कार्य ‘महत्व’ का लगने लगेगा। इस अंक में गाँव के योजना निर्माण पर मंथन करते हैं।
लगभग गाँधी जी की कल्पना के आसपास हम घूमते हैं। किसी भी गाँव में जनसंख्या को आप कार्य के आधार पर चार भागों में बाँट सकते हैं। एक आबादी जो खेती, बागवानी व पशुपालन करती है। दूसरा भाग जो कुटीर उद्योग में संलग्र है। तीसरा भाग केवल मजदूरी पर जिन्दा है। एक चौथा भाग भी है जो निराश्रित है या परिस्थितियों के कारण विशेष स्थिति में पहुँच गया है। परिस्थिति किसी परिजन की मौत, शारीरिक अक्षमता या कोई गंभीर बीमारी हो सकती है। हमें अपनी योजना को सरल रूप में गाँव के इन चार भागों की आमदनी बढ़ाने व उनके जीवन स्तर में सुधार पर केन्द्रित करनी है।
दूसरी तरफ गाँव में कुछ सामूहिक सुविधाएँ भी स्तरीय हों। गाँव की आबादी के अनुसार एक अच्छा स्कूल हो, एक अस्पताल हो, एक पशु चिकित्सालय हो। ध्यान रहे इन संस्थाओं का स्तर आबादी व गाँव के कार्यकलापों के आधार पर हो। गाँव में पेयजल की उम्दा व्यवस्था हो, सफाई व्यवस्था हो और गाँव चारों तरफ के प्रमुख मार्गों से सडक़ से जुड़ा हो। सावधानी यह रखनी है कि प्राथमिकता गाँव के उत्पादन पर हो, जो खेती, पशुपालन, बागवानी और कुटीर उद्योग से होगा। छकड़ा बैल के आगे खड़ा हो जायेगा, तो गाड़ी आगे नहीं बढ़ेगी, हमें केवल बैलगाड़ी के अस्तित्व का अहसास भर होगा। यही आज हो रहा है।
प्रत्येक गाँव की आवश्यकता के अनुसार इन क्षेत्रों की विशिष्ट योजना बनेगी। कहीं पर सिंचाई के साधन हैं, तो वैसी योजना। कहीं ऐसा नहीं, तो वैकल्पिक योजना। प्रत्येक खेत, पशु एवं बाग, एक इकाई होगा, जिसका उत्पादन ही हमारा विकास का प्रथम माप दण्ड होगा। अगर ऐसा नहीं हो रहा है, तो हमारा यह गाँव पिछड़ा है, भले ही गाँव में चांदी की सड़कें उधार के पैसों से बना दें। हो सकता है कि किसी गाँव में खेतों का आकार छोटा हो, तो वहाँ पशुपालन, चारा उत्पादन और बागवानी प्राथमिकता पर रहेंगे। गाँव के किसान सेवा केन्द्र से प्रत्येक किसान और पशुपालक को सभी आवश्यक सामग्री चार महीने के उधार पर मिलेगी। गाँव की सहकारी संस्था को इसके लिए पुन: सक्रिय कर दिया जायेगा। लेकिन गाँव की यह योजना तभी बनेगी जब गाँव के कम से कम 80 प्रतिशत लोग इसके लिए लिखित सहमति दें। आप यकीन मानिये, जिस दिन गाँव के लोग इस योजना का विश्वास कर लेंगे, जबरदस्त प्रगति की लहर चलेगी। अभी तो उन पर थोपी गयी योजनाएँ असर नहीं कर रही है। गाँवों की मानसिकता को नहीं जानने वाले लोग, अँग्रेज़ों की तरह गाँव वालों को कामचोर, विश्वास के अयोग्य और बिना दिमाग वाला समझते हैं, और इनकी योजनाओं में ऐसा झलकता भी है। उनको लगता है कि 50-100 रुपये के अनुदान से गाँव के लोग वाह-वाह कर बैठेंगे, जबकि गाँव में गरीब की अपनी ‘इज्जत’ और ‘स्वाभिमान’ के लिए मर मिटता है। ये दान-अनुदान की सामंती मानसिकता ही गाँवों को शासन से दूर रखती है। आप ताज्जुब करेंगे कि गाँव की गौशाला या मंदिर के निर्माण व संचालन में लगभग नहीं के बराबर गड़बड़ होती है। गाँव का प्रत्येक नागरिक इसमें सहयोग करता है। क्यों? क्योंकि उनकी अपनी योजना है, जिसमें वे विश्वास करते हैं। कृषि, बागवानी और पशुपालन, हमारे अभिनव गाँव की सबसे पहली प्राथमिकता होंगे। अभिनव राजस्थान की तो धुरी यही होगी। इसके साथ कुटीर उद्योग जुड़ते ही गाड़ी के पहिये तेजी से चलने लगेंगे।
प्रत्येक गाँव में रह रहे दर्ज़ी, रैगर, सुनार, खाती, कुम्हार, लुहार, रंगरेज या जुलाहे की मानसिकता पर नजर डालिये। ये राजस्थान के नगीने हुआ करते थे और इनके पुरखों ने राजस्थान की अर्थव्यवस्था को पूरे विश्व में स्थापित कर रखा था। आज भी इनके दिमाग और हाथ रचना के नये संसार की तरफ रोज बढ़ना चाहते हैं, परन्तु शासन और जनता की उपेक्षा ने इन हाथों को जैसे लक़वे से ग्रस्त कर दिया है। तेज चलता कलाकार का दिमाग गुटखे चबाकर अपनी बेचैनी मिटा रहा है। स्वाभिमान के चलते झुक भी नहीं पा रहा है।
आपने इतिहास में पढ़ा होगा। समाज के ये वर्ग कभी शासन में थे और चौहान, भाटी, परिहार, परमार, चन्देल, तोमर, सोलंकी आदि कहलाते थे। तब की व्यवस्था में प्रत्येक गणतंत्र में कोई भी गांव का व्यक्ति अपनी रुचि से कोई भी काम कर सकता था। जन्म पर आधारित कार्य नहीं था। परन्तु जब ये शासक पश्चिमी ताक़तों से हार गये, तो इन पर धर्म परिवर्तन करने या गुलामी में शासन करते रहने का दबाव डाला गया था। ऐसा नहीं करने पर तलवार छोड़नी थी और औजार पकड़ना था। अधिकांश चौहानों, प्रतिहारों, भाटियों, परमारों आदि ने तलवार छोड़कर हथौड़ा, सुई, कुल्हाड़ी, आरी आदि हाथ में थाम लिये और ये जातियों में बँट गये। अब इनके धंधे भी ऊपर की बंद व्यवस्था के साथ ही वंशानुगत हो गये। फिर भी मेहनती और दुनिया के व्यापार को देख चुके होने के कारण ये लोग अपनी कलाकारी से विश्व की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते रहे और स्थानीय आवश्यकताओं की भी पूर्ति करते रहे। गांधी जी इन्हीं के दम पर गाँव के स्वावलम्बन की बात करते थे। लेकिन अंग्रेजी व्यवस्था में ये छोटे धन्धे चौपट हो गये। फैक्टरी का माल इन पर भारी पड़ने लगा। अंग्रेज गये, तो गांधी जी पर इनको उम्मीद थी, कि वे इन्हें फिर से स्थापित कर देंगे, परन्तु नेहरू जी के लिए यह गाँव का कलाकार कोई मायने नहीं रखता था। चली भी नेहरू जी की और आज 60 वर्षों बाद ये अपने पैतृक व्यवसाय से मौका पाते ही भागने की फिराक में है। अभिनव राजस्थान में प्रत्येक गाँव में मौजूद इन कलाकारों को एक विशेष योजना के तहत भारत के प्रमुख बाजारों तक पहुंचाया जायेगा। लेकिन काम वे अपने गाँव में रहकर ही करेंगे। शहरों के हाट बाजारों में ये भटकते नहीं फिरेंगे। इनके स्वाभिमान पर की जा रही उद्योग विभाग की चोटें बंद होंगी और किसानों-पशुपालकों की तरह ये लोग भी अपने-अपने समूह की विस्तृत योजनाएँ बनाकर आगे बढ़ेंगे। अभिनव राजस्थान पुस्तक में इसका विस्तार से जिक्र है। कि कैसे गाँव के एक मोची की बनाई जूतियाँ-जूते-चप्पल, जयपुर-जोधपुर के बाजार में धूम मचायेंगे या गाँव के दर्ज़ी के सिले वस्त्र शहरों के शोरूमों को चमकायेंगे। चीन ने यही किया है और वह विश्व की ताकत बन गया है। राजस्थान के ये कलाकार भी भारत का इसी तरह झण्डा बुलंद करेंगे। 25 दिसम्बर 2011 की आम सभा में इस योजना का खुलासा विस्तार से किया जायेगा। क़स्बों को भी आप इस दृष्टि से बड़े गाँव ही समझिये। वहाँ पर मौजूद ये कलाकार भी इस योजना में भागीदार होंगे, शासन की तरफ से इन कलाकारों को कच्चा माल, तकनीक, डिज़ाइन और बाजार उपलब्ध करवाया जायेगा। आप सोच रहे होंगे कि बरसों से हमारा लघु उद्योग या खादी निगम यही तो कर रहे हैं। फिर नया क्या है? जी नहीं। जैसा हमने पहले भी कहा, लघु उद्योग निगम इन कलाकारों पर ‘दया की भावना’, ‘दान की भावना’, से योजनाएँ थोप रहा है और इसी कारण इसकी योजनाएँ केवल काग़ज़ों पर चल रही हैं। प्रशासक ये मानकर बैठे हैं कि ‘बेचारे’ कारीगर सरकारी सहायता को तरस रहे हैं और सहायता मिलते ही उनकी वाह-वाह निकल जायेगी। जबकि ऐसा नहीं है। गाँव के किसी मोची, खाती, सुनार या कुम्हार से जब आप इस पर विस्तार से बात करेंगे, तो वे इन योजनाओं पर हँस देंगे। हमने अपनी कार्ययोजना बनाते समय ऐसा ही किया है। एक कलाकार के पारिवारिक जीवन, उसकी परम्पराओं, मनोविज्ञान और सम्भावनाओं को समझा है। तभी हमें राजस्थान या भारत की अर्थव्यवस्था का यह मजबूत पक्ष समझ में आया है। तभी एक व्यावहारिक कार्य योजना बन पाई है। हमारी वेबसाइट पर यह योजना जल्दी ही आ जायेगी, जिस पर दिसम्बर की सभा में बोला जायेगा और जिस पर कविताएँ पढ़ी जायेंगी।
इस भाग में से आप रैगरों, लुहारों, आदि कलाकारों तो बाहर ही रखिये। वे तो कुटीर उद्योग की उपेक्षा से मजदूर बन गये हैं, वरन् उनकी कलाकारी बेशकीमती है। अब बाकी बचे मजदूरों को आप कृषि, पशुपालन, बागवानी और कुटीर उद्योगों के भरोसे छोड़ देंगे, तो शासन की बड़ी मेहरबानी होगी। इंदिरा गांधी के समय से इसी वर्ग को ठगने की कोशिश ने लोकतंत्र का बड़ा नुकसान किया है। कभी गरीबी हटाओ, कभी रोजगार कार्यक्रम और अब नरेगा के नाम पर इस वर्ग के साथ जबरदस्त खिलवाड़ किया गया है। इनकी मजबूरी का फायदा उठाकर राजनेताओं ने इनका एक तरह से शोषण ही किया है। ऐसा तो बेगार के दौर में भी नहीं था। तब कम से कम छल कपट तो नहीं था। पता था कि बेगार करके परिवार पालता है। लेकिन अब काँच में धन दिखाकर सिर फुड़वाया जा रहा है। न गरीबी खत्म किसी की आज तक हुई है, न किसी को रोजगार मिला है। रही सही कसर इस वर्ग से आरक्षण पा गये लोगों ने पूरी कर दी। पूरे गाँव में मात्र पाँच-दस लोग सरकारी सेवा में गये हैं तो बाकी के 100-200 परिवार कुंठाग्रस्त होकर बैठे हैं। आरक्षण पाये ये चंद लोग अपने ही वर्ग की प्रगति को रोककर बैठ गये हैं और कुंठाओं का नया संसार रच रहे हैं।
इंदिरा गांधी के सलाहकारों ने गणित बैठा दिया था कि गाँव के ये भूमिहीन और मुसलमान मिलकर 25-30 प्रतिशत वोटर हो जाते हैं। बाकी वोट जातिगत उम्मीदवारी से मिल जायेंगे। वर्तमान चुनावों की अधिकतम वोटों की पद्धति में यह फार्मूला कारगर होगा। क्यों किसानों, उद्यमियों या कुटीर उद्योगों के चक्कर में पड़ा जाये। ‘राज’ में ही तो आना है, हमें काहे को मजबूत, शिक्षित या चिंतक राष्ट्र बनना है। ऐसा हुआ नहीं कि राज गया नहीं। यह रिस्क नहीं लेनी है। बस इसी रणनीति पर आज सभी राजनैतिक दल चल पड़े हैं।
भाजपा तो कांग्रेस से आगे निकलने की तैयारी में है। इस ‘गरीब’, ‘भूमिहीन’ वर्ग के लिए योजनाओं का इतना बड़ा जाल बुन दिया गया है कि इस वर्ग का गला ही दब गया है और इसकी आँखें बाहर निकल आयी है। न माया मिली न राम की स्थिति हो गयी है। अभिनव राजस्थान में इस वर्ग के बच्चों की शिक्षा और परिवार के स्वास्थ्य की पुख्ता गारंटी दी जायेगी। लेकिन इनके बच्चों को स्कूलों या मोहल्लों में मुफ्त का खाना खाने के लिए ‘लंगरों’ में नहीं बैठना होगा। आखिर वे भी उस राष्ट्र के नागरिक हैं, जिसे भारत कहते हैं। फिर क्यों हमारा कोई भी नागरिक ‘भिखारी’ जैसा लगे। मिड डे मिल या आंगनबाड़ी के खाने के स्थान पर प्रत्येक परिवार को उतनी राशि नगद में दे दी जायेगी, ताकि हमारे समाजवादी अभी इस बात को लेकर हल्ला न मचा सकें। धीरे-धीरे जब उत्पादन और आमदनी बढ़ेगी, तब यह समस्या ही नहीं रहेगी।
प्रत्येक गाँव में पाँच या दस ऐसे परिवार होते हैं, जिनमें किसी कमाऊ परिजन की मौत, शारीरिक अक्षमता या गंभीर बीमारी के कारण उन पर आफत आ जाती है। अभिनव राजस्थान में ऐसे परिवारों को विशेष रूप से बनी योजना से लाभान्वित किया जायेगा। लेकिन पद्धति अलग होगी। हमारी योजना में विधवा को पेंशन न देकर गाँव के ही स्कूल, अस्पताल, पशु चिकित्सा केन्द्र या किसान सेवा केन्द्र पर योग्यतानुसार कार्य दिया जायेगा। ऐसा ही विकलांगो के साथ होगा। ‘मुफ्त’ या ‘दान’ जैसे शब्द तो अभिनव राजस्थान की शब्दावली में ही नहीं होंगे। ‘सहयोग’ अधिक उचित शब्द होगा।
बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा, सफाई
ये कार्य भी अत्यन्त आवश्यक हैं, परन्तु इन्हें दूसरी प्राथमिकता पर रखा जायेगा। अभी इनके नाम पर उत्पादन की जो उपेक्षा हो रही है, उसने देश-प्रदेश को बर्बाद करके रख दिया है। मीडिया और इन सेवाओं से जुड़े निहित स्वार्थों ने अवांछित हल्ला मचा रखा है, ऐसा माहौल है कि कृषि और उद्योग के उत्पादन की बात करना ही ‘गंवारपन’ और ‘पिछड़ेपन’ की मानसिकता कहलाने लगा है। अभिनव राजस्थान के गाँवों में इन 6 मूलभूत सेवाओं की भी उत्तम व्यवस्था होगी, मगर कृषि व कुटीर उद्योग की कीमत पर नहीं। कुल मिलाकर अभिनव गाँव गांधी जी के सपनों का गाँव होगा। ये भारत की प्रगति की असली शुरूआत होगी। गाँवों की बहुत उपेक्षा हो चुकी है और देश उसका खामियाजा भी भुगत रहा है। उपेक्षा की यह प्रवृत्ति और चिंतन बंद होना चाहिए।