‘अभिनव शासन’ में जिले का प्रशासन होगा कलेक्टर के बिना.
क्योंकि अब बदले समय में उसकी जरूरत ही नहीं है.
कलेक्टर किसी जमाने में भू राजस्व ‘कलेक्ट’ करता था. यह जमीन पर लगने वाला टेक्स ही उस समय सबसे महत्त्वपूर्ण था. इसी से सरकारें चलती थीं. जो कोई यह टेक्स न दे तो उसे बेदखल करने और जेल में डालने या अन्य सजा देने की इस अधिकारी को मजिस्ट्रेट की पावर थी. पड़ हो गया, जिला कलेक्टर और जिला मजिस्ट्रेट. लेकिन अब समय बदल गया है. अब रेवेन्यू के नाम पर सेल्स टेक्स और अन्य टेक्स ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गए हैं. भू-राजस्व तो नाम का रह गया है. राजस्थान में अब मात्र सौ करोड़ तक यह आंकड़ा सीमित हो गया है. 30 हजार करोड़ में से जो अधिकारी मात्र 100 करोड़ इकठ्ठा करते हैं, उनको कलेक्टर कैसे कहा जा सकता है? अब उन्हें मजिस्ट्रेट कहने की भी आवश्यकता नहीं, जब हमारे पास क़ानून के जानकार डिग्रीधारी मजिस्ट्रेट तहसील स्तर तक उपलब्ध हैं.
अब यह नामकरण केवल रौबदाब के लिए बचे हैं. वरना सही नाम तो भू प्रबंध अधिकारी होना चाहिए. अब यह मूल काम तो ये लोग करते नहीं हैं. जमीन के मुकदमों के अम्बार लगे हैं पर ये स्कूलों और अस्पतालों में घूम रहे हैं. कभी पौधारोपण कर रहे हैं, कभी खाते खुलवा रहे हैं ! जो जो काम इनके नहीं हैं, उनमें रुचि, उनमें टांग अड़ाना ताकि महत्त्व बना रहे. जबकि इनके जिम्मे जमीन के मामले टाइम पर नहीं सुलझने से रोज माथे फूटते रहते हैं, लोग मरते रहते हैं. वैसे इनके मूल 13 काम हैं, ड्यूटी लिस्ट के अनुसार. उनमें से एक है- पटवारी का गाँव में ठहराव सुनिश्चित करना. यह पटवारी इनका बेसिक वर्कर है, टीचर नहीं है. लेकिन आप किसी भी पटवारी से कोई काम चाहते हैं तो उसके घर ही जाना पड़ेगा. गाँव में नहीं मिलेगा !
दूसरे इनको जो काम दिया गया है कि इनको विभिन्न विभागों के बीच समन्वय रखना है. पर इस समन्वय (coordination) के नाम पर ये चतुराई से subordination कर देते हैं. ऐसा भाव देते हैं जैसे दूसरे अधिकारी वरिष्ठ होते हुए भी इनके अधीन हैं. और वे भी बेचारे संरक्षण के अभाव में इनकी गुलामी करते हैं ! जी सर, जी मेडम. जबकि किसी भी क़ानून या प्रोटोकाल की किताब में ऐसा नहीं लिखा है कि कलेक्टर ‘मालिक’ होता है. और जिस विकास के नाम पर इनको यह समन्वय का काम सौंपा है, उससे कितना विकास हुआ है, हम सब जानते हैं.
‘अभिनव शासन’ में सभी जिला अधिकारी एक ही समरूप नाम से जाने जायेंगे-निदेशक. सभी अपना काम स्वतंत्र रूप से करेंगे और अपने संभागीय ‘अतिरिक्त महानिदेशक’ को रिपोर्ट करेंगे. कोई भी विभाग किसी अन्य विभाग के काम में दखल नहीं करेगा, केवल सहयोग करेगा. (तब शायद IAS और RAS बनने का चस्का भी कम हो जाएगा और हमारे प्रतिभाशाली युवा शिक्षक, चिकित्सक, अभियंता, वैज्ञानिक या कला के साधक बनने के बारे में सोचेंगे. मूल्य परिवर्तन !)
इस नई और हमारी अपनी व्यवस्था में ‘सूचना के अधिकार’ से जागरूक नागरिक जिले के सभी निदेशकों के काम पर निगाह रखेंगे. वैसे ज्यादातर सूचनाएं इन विभागों की वेबसाइट पर उपलब्ध रहेंगी.
वर्तमान के अधिकतर नेताओं की इच्छाशक्ति बहुत कमजोर है तो वे जनता का शासन भी स्थापित नहीं होने देना चाहते हैं. वे जनता को केवल वोट देने तक सीमित रखना चाहते हैं और बाद में कलेक्टरों के साथ मिलकर ‘राज’ का मजा भर लेना चाहते हैं. इसलिए प्रशासनिक सुधार में 1947 के बाद से आजतक कोई खास प्रगति नहीं हुई है. अंग्रेजी ‘राज’ नए किरदारों के साथ वैसे का वैसा चल रहा है. केवल सूचना के अधिकार ने इस समां को बदलने की कोशिश की है.हम इसी नांव पर सवार होकर लोकतंत्र के किनारे तक पहुंचेंगे. पतवार के रूप में हम न्यायपालिका का सहारा लेंगे. जल्द ही इस मामले में जनहित याचिका दायर करने वाले हैं.
‘अभिनव राजस्थान अभियान’
उस राजस्थान के लिए, जो लोकतांत्रिक होगा, विकसित होगा.
जो भारत का सबसे समृद्ध प्रांत होगा.
वंदे मातरम !