अभिनव राजस्थान में शासन कैसा होगा? आसान है कि वर्तमान शासन प्रणाली में हम कमियां ढूँढ़ते रहें, परन्तु हमारे सपनों की शासन व्यवस्था की रचना पर विस्तृत मंथन थोड़ा कठिन है। राजनीति शास्त्र और लोक प्रशासन के जानकारों का ज्ञान, उनकी किताबों या क्लासों में सिमट गया है। शासन प्रशासन का रूप-रंग, चाल-ढाल तो कोई और ही तय कर रहे हैं, कर चुके हैं। इन विशेषज्ञों से तो अब औपचारिक सलाह भी नहीं की जा रही है। राजस्थान के विकास के लिए आवश्यक शासन प्रणाली पर एक सकारात्मक लेख।
स्वशासन का आभास
सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन जो, लोकतांत्रिक शासन में होना चाहिए था, वह था शासन प्रणाली से अपनत्व। किसी भी देश-प्रदेश के विकास के पूल में यही भावना होनी चाहिये। क्या ऐसा हमारे यहाँ हो सका है? शायद नहीं। क्रांति के बिना सत्ता हस्तान्तरण होने से यह भावना बलवती नहीं हो सकती है। जितनी दूरी हम मुगलों-अंग्रेजों या राजाओं से महसूस करते थे, उतनी ही आज के शासन में भी कायम है। अब उनकी जगह नये चेहरे भर आ गये हैं। राजस्थानी भाषा में तो हम वैसे भी ‘प्रशासन’ शब्द का उच्चारण भी ‘परशासन’ के रूप में करते हैं! परशासन यानि पराया शासन, दूसरों का शासन। और जो लोग पदों पर बैठ जाते हैं, वे इसी अपरिपक्वता का मजा भी लेते हैं और दूरी कायम रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। वे सत्ता का मद आँखों में चढ़ा लेते हैं और दूरी से अपने हितों की पूर्ति भी ठीक उसी तरह कर लेते हैं, जैसा अंग्रेजी राज में होता था।
यह दूरी कम कौन करे? जनता के प्रतिनिधि? वे अभी इस मूड में बिल्कुल नहीं है। यह दूरी ही तो वह आकर्षण है, जिसे कम क्षमता होते हुए भी बरकरार रखा जा सकता है। तो क्या प्रशासक यह दूरी कम करेंगे? जी नहीं, अधिकांश प्रतिभावान छात्र तो इस दूरी के कारण ही प्रशासक बनने में रात-दिन लगे हैं। तो फिर कौन यह कार्य करे? हमारे माने तो बुद्धिजीवी वर्ग को यह कार्य करना है। परन्तु यह बाहर बैठकर आलोचना करने से थोड़े ही होगा। जनता को विश्वास में लेकर, साथ जोड़कर होगा। अभिनव राजस्थान में ऐसा ही होने वाला है। सावधानी यही रखनी है कि हमें नेताओं-अफ़सरों के प्रति घृणा या द्वेष भरकर यह बात नहीं करनी है। हमें यह स्पष्ट करना और समझाना होगा कि यह दूरी कम करने से ही राजस्थान का वास्तविक विकास हो पायेगा। जब ऐसा होगा, तो हमें रोडवेज़ की बस, तहसीलदार कार्यालय, अस्पताल, सड़कें, स्कूलें आदि अपने लगेंगे और उनको किसी प्रकार के नुकसान से हमारी आत्मा को ठेस पहुंचेगी। इन्हें हम राजकीय (राज-की) कहकर पराया नहीं बतायेंगे, बल्कि ‘हमारे’ कहकर सम्बोधित करेंगे। यही तो हमारे राष्ट्र निर्माताओं के मन में था।
यह दूरी कम कौन करे? जनता के प्रतिनिधि? वे अभी इस मूड में बिल्कुल नहीं है। यह दूरी ही तो वह आकर्षण है, जिसे कम क्षमता होते हुए भी बरकरार रखा जा सकता है। तो क्या प्रशासक यह दूरी कम करेंगे? जी नहीं, अधिकांश प्रतिभावान छात्र तो इस दूरी के कारण ही प्रशासक बनने में रात-दिन लगे हैं। तो फिर कौन यह कार्य करे? हमारे माने तो बुद्धिजीवी वर्ग को यह कार्य करना है। परन्तु यह बाहर बैठकर आलोचना करने से थोड़े ही होगा। जनता को विश्वास में लेकर, साथ जोड़कर होगा। अभिनव राजस्थान में ऐसा ही होने वाला है। सावधानी यही रखनी है कि हमें नेताओं-अफ़सरों के प्रति घृणा या द्वेष भरकर यह बात नहीं करनी है। हमें यह स्पष्ट करना और समझाना होगा कि यह दूरी कम करने से ही राजस्थान का वास्तविक विकास हो पायेगा। जब ऐसा होगा, तो हमें रोडवेज़ की बस, तहसीलदार कार्यालय, अस्पताल, सड़कें, स्कूलें आदि अपने लगेंगे और उनको किसी प्रकार के नुकसान से हमारी आत्मा को ठेस पहुंचेगी। इन्हें हम राजकीय (राज-की) कहकर पराया नहीं बतायेंगे, बल्कि ‘हमारे’ कहकर सम्बोधित करेंगे। यही तो हमारे राष्ट्र निर्माताओं के मन में था।
वांछित परिवर्तन शब्दावली में परिवर्तन
शेक्सपीयर ने कहा होगा कि नाम में क्या रखा है, परन्तु व्यवहार में इससे बहुत फर्क पड़ता है। हमारी प्रशासनिक शब्दावली में ऐसे कई नाम भरे पड़े हैं, जो बेवजह किसी पद पर बैठे व्यक्ति का व्यवहार बदल देते हैं। हमारी विनम्रता को कमजोरी और लाचारी समझ लिया जाता है। ‘अर्जी’और ‘ज्ञापन’ हम बचपन से पढ़ते-पढ़ाते आये हैं। हाँ, वही प्रार्थना-पत्र, जिसे हम अंग्रेजी राज जाने के बाद भी हिन्दी-अंग्रेजी ज्ञान का आधार मानते रहे हैं। हम अभी भी ‘आग्रह’ की जगह ‘निवेदन’ करते हैं, अभी भी ‘कृपा’, ‘मेहरबानी’ करने जैसे शब्दों से पत्रों का अंत करते हैं। ‘आज्ञाकारी’, ‘कृपा पात्र’ भी बनना चाहते हैं।
एक ‘कृपा पात्र’ क्या लोकतंत्र चलायेगा। और कृपा करने वाला भी क्यों सहयोग करेगा। कृपा करे या न करे। मर्जी पर निर्भर करता है। यही नहीं हमने उधार के संविधान और कानून का हिन्दी अनुवाद भी गलत कर दिया। लोकतंत्र की मिर्ची में राजतन्त्र का तीखा मसाला ठूंस दिया है। मिर्ची तो मुँह जलायेगी। अब देखिये न, ऑफिसर (अफसर) को ‘अधिकारी’, बनाकर रख दिया है। अधिकार सब उसके, हमें तो ‘याचिका’ देनी है। ऑफिसर, जो कार्यालय सम्भालता है, तो उसका अनुवाद कार्यालय प्रभारी हो सकता था। अब वह कार्यालय नहीं संभालता है, अपने ‘अधिकारी’ होने के कारण कार्यालय का मालिक बन गया है। अभिनव राजस्थान में शब्द बदल जायेंगे। हमें ‘लोकसेवक’ भी नहीं चाहिये! जैसा कि आजकल कई चिंतक कहने लगे हैं। यह भी एक दूसरी अति होगी। ‘सेवक’ शब्द ही गलत है। लोकतंत्र में कौन किसका सेवक? सभी का देश की व्यवस्था पर बराबर का हक है। सही शब्द होगा – सहयोगी। कार्यालय-प्रभारी, सहयोगी, निदेशक, विशेषज्ञ आदि तकनीकी शब्दों की रचना की जायेगी।
एक ‘कृपा पात्र’ क्या लोकतंत्र चलायेगा। और कृपा करने वाला भी क्यों सहयोग करेगा। कृपा करे या न करे। मर्जी पर निर्भर करता है। यही नहीं हमने उधार के संविधान और कानून का हिन्दी अनुवाद भी गलत कर दिया। लोकतंत्र की मिर्ची में राजतन्त्र का तीखा मसाला ठूंस दिया है। मिर्ची तो मुँह जलायेगी। अब देखिये न, ऑफिसर (अफसर) को ‘अधिकारी’, बनाकर रख दिया है। अधिकार सब उसके, हमें तो ‘याचिका’ देनी है। ऑफिसर, जो कार्यालय सम्भालता है, तो उसका अनुवाद कार्यालय प्रभारी हो सकता था। अब वह कार्यालय नहीं संभालता है, अपने ‘अधिकारी’ होने के कारण कार्यालय का मालिक बन गया है। अभिनव राजस्थान में शब्द बदल जायेंगे। हमें ‘लोकसेवक’ भी नहीं चाहिये! जैसा कि आजकल कई चिंतक कहने लगे हैं। यह भी एक दूसरी अति होगी। ‘सेवक’ शब्द ही गलत है। लोकतंत्र में कौन किसका सेवक? सभी का देश की व्यवस्था पर बराबर का हक है। सही शब्द होगा – सहयोगी। कार्यालय-प्रभारी, सहयोगी, निदेशक, विशेषज्ञ आदि तकनीकी शब्दों की रचना की जायेगी।
विशेषज्ञता को महत्व
अभिनव राजस्थान में विशेषज्ञता केन्द्र में होगी। अंग्रेजी राज में इसका महत्व नहीं था, क्योंकि वे यहाँ के विकास के प्रति चिंतित नहीं थे। उन्हें बस अपना ‘राज’ कायम रखना था। विशेषज्ञ तो उन्हें अपने देश में चाहिये थे, ताकि उनके देश का विकास हो सके। उन्होंने यह बखूबी किया और अपनी खेती, उद्योग व व्यापार को पनपाने में, स्वास्थ्य-शिक्षा को सुधारने में और आधारभूत ढाँचा खड़ा करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। राजस्थान से आधा क्षेत्रफल होते हुए भी, आज भी ब्रिटेन विश्व की प्रमुख ताकत है।
लेकिन भारत में उन्हें अपने राज के दौरान केवल सामान्य ज्ञान वाले अधिकारियों-कर्मचारियों की जरूरत थी, तो उन्हें ‘राज’ में बने रहने और यहाँ का शोषण करने में मदद कर सकें। यह ‘कलक्टर’ का पद और उसके कार्य इसी को ध्यान में रखकर सोचे गये थे। लेकिन आजादी के बाद हमने कलक्टरों को ‘विकास’ के लिए समर्पित हो जाने का काम देकर बड़ी गलती कर ली। हमने भी विशेषज्ञों को दूसरे-तीसरे-अंतिम पायदानों पर रख दिया। नतीजा यह हुआ कि एक नये सामंतवाद का जन्म हो गया। कलक्टर अब भी ‘सबसे महत्वपूर्ण’ बने रहे और उनमें ‘प्रभुत्व’ की भावना पैदा हो गयी। अब अंग्रेजों की तरह उन्होंने भी नयी शासन व्यवस्था को अपने अनुसार ढालना प्रारम्भ कर दिया। उधर घबराये नेताओं ने जल्दबाजी में ‘राज में रहने के लिए’ समझौता कर लिया और फिर से अंग्रेजी राज जैसा दृश्य उभर आया। अब प्रदेश के विशेषज्ञ, शिक्षा के, स्वास्थ्य के, सड़क, कृषि के या उद्योग के, मुँह नीचा कर सलाम मार रहे हैं। अपनी विशेषज्ञता पिटती देख, वे भी बहती गंगा में हाथ धोने में अपनी भलाई समझ रहे हैं।
अभिनव राजस्थान में लोक प्रशासन या राजनीति शास्त्र के विशेषज्ञ ही सचिवालय, जिला प्रशासन, पंचायत व नगरपालिकाओं में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियाँ संभालेंगे। वन विभाग, वनस्पति शास्त्र के जानकार देखेंगे, तो वन्य जीवों और पशुओं की देखरेख प्राणीशास्त्री करेंगे। खनन विज्ञान में शीर्ष तक भूगोलविद् होंगे, तो शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क-पानी-बिजली के विभागों के निर्णय और उनका संचालन इन विषयों के जानकार ही करेंगे। 60 वर्षों बाद तो हमारी आँखें खुलनी चाहिये और हमें राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिये। केवल ‘राज’ में आना जाना लक्ष्य बनाकर चल रही ताक़तों पर नियन्त्रण करना होगा।
लेकिन भारत में उन्हें अपने राज के दौरान केवल सामान्य ज्ञान वाले अधिकारियों-कर्मचारियों की जरूरत थी, तो उन्हें ‘राज’ में बने रहने और यहाँ का शोषण करने में मदद कर सकें। यह ‘कलक्टर’ का पद और उसके कार्य इसी को ध्यान में रखकर सोचे गये थे। लेकिन आजादी के बाद हमने कलक्टरों को ‘विकास’ के लिए समर्पित हो जाने का काम देकर बड़ी गलती कर ली। हमने भी विशेषज्ञों को दूसरे-तीसरे-अंतिम पायदानों पर रख दिया। नतीजा यह हुआ कि एक नये सामंतवाद का जन्म हो गया। कलक्टर अब भी ‘सबसे महत्वपूर्ण’ बने रहे और उनमें ‘प्रभुत्व’ की भावना पैदा हो गयी। अब अंग्रेजों की तरह उन्होंने भी नयी शासन व्यवस्था को अपने अनुसार ढालना प्रारम्भ कर दिया। उधर घबराये नेताओं ने जल्दबाजी में ‘राज में रहने के लिए’ समझौता कर लिया और फिर से अंग्रेजी राज जैसा दृश्य उभर आया। अब प्रदेश के विशेषज्ञ, शिक्षा के, स्वास्थ्य के, सड़क, कृषि के या उद्योग के, मुँह नीचा कर सलाम मार रहे हैं। अपनी विशेषज्ञता पिटती देख, वे भी बहती गंगा में हाथ धोने में अपनी भलाई समझ रहे हैं।
अभिनव राजस्थान में लोक प्रशासन या राजनीति शास्त्र के विशेषज्ञ ही सचिवालय, जिला प्रशासन, पंचायत व नगरपालिकाओं में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियाँ संभालेंगे। वन विभाग, वनस्पति शास्त्र के जानकार देखेंगे, तो वन्य जीवों और पशुओं की देखरेख प्राणीशास्त्री करेंगे। खनन विज्ञान में शीर्ष तक भूगोलविद् होंगे, तो शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क-पानी-बिजली के विभागों के निर्णय और उनका संचालन इन विषयों के जानकार ही करेंगे। 60 वर्षों बाद तो हमारी आँखें खुलनी चाहिये और हमें राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिये। केवल ‘राज’ में आना जाना लक्ष्य बनाकर चल रही ताक़तों पर नियन्त्रण करना होगा।
एक विभाग एक काम
अचरज होता है कि गाँवों में सरपंच सड़कें बना रहे हैं। पुलिस गीली लकड़ी से भरी ट्रक पकड़ रही है। शिक्षा विभाग, भवन बना रहा है, मिड डे मील पका रहा है। कलक्टर-तहसीलदार, स्कूल-अस्पताल का निरीक्षण कर रहे हैं। पटवारी, खेती में नुकसान का आकलन कर रहे हैं। यह अतिक्रमण अब रुकना चाहिये। प्रत्येक विभाग को अपने काम तक सीमित रहना चाहिये। सब जगह टांग फँसाने की आदत से अव्यवस्था फैलती है। अगर सड़कों का कार्य सड़क निर्माण विभाग नहीं करेगा, तो कौन करेगा?
संरचना में परिवर्तन
रियासती काल में बने ढाँचों को अब पुनर्गठित किया जायेगा। किस खुशी में रावतभाटा का क्षेत्र चित्तौड़ ज़िले का बना हुआ है? क्यों टॉडगढ़ अभी भी अजमेर का भाग बताया जाता है? यही नहीं ब्लॉक स्तर पर भी समानता स्थापित की जायेगी। एक उपखण्ड, एक तहसील, एक पंचायत समिति, एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, एक पुलिस स्टेशन और इसी प्रकार अन्य विभागों के समरूप कार्यालय होंगे। तभी प्रशासन का समन्वय ठीक होगा, इसकी क्षमता बढ़ेगी। वैज्ञानिक प्रणाली से अब प्रदेश को चलाना होगा। वैसे भी 21 वीं सदी की दुनिया हमसे कहीं आगे जा चुकी है।
इसी प्रकार ज़िले और संभाग स्तर पर प्रत्येक विभाग की रचना होगी। उच्च शिक्षा के लिए प्रत्येक संभाग (7) पर एक विश्वविद्यालय जिम्मेदार होगा। संभागीय व्यवस्था को पुन: निर्णयात्मक स्थिति में लाया जायेगा, ताकि सभी क्षेत्रों की स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तन हो सकें।
इसी प्रकार ज़िले और संभाग स्तर पर प्रत्येक विभाग की रचना होगी। उच्च शिक्षा के लिए प्रत्येक संभाग (7) पर एक विश्वविद्यालय जिम्मेदार होगा। संभागीय व्यवस्था को पुन: निर्णयात्मक स्थिति में लाया जायेगा, ताकि सभी क्षेत्रों की स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तन हो सकें।
जिला प्रशासन
ज़िले में कृषि, उद्योग एवं शिक्षा के निदेशक सभी संसाधनों के साथ अग्रणी भूमिका में रहेंगे। सृजन का कार्य, उत्पादन का कार्य यही विभाग देखते हैं। आधारभूत ढाँचे के लिए जिम्मेदार सड़क-पानी-बिजली विभागों के निदेशक (अभियन्ता) और स्वास्थ्य सेवा निदेशक भी स्वतन्त्र रूप से और संसाधनों से लैस होकर कार्य करेंगे। अब ये किसी और विभाग के अधिकारियों (?) की झिड़कियाँ व डांट फटकार नहीं खाया करेंगे। इन निदेशकों का स्थान कलक्टर एवं पुलिस अधीक्षक के बराबर ही रहेगा और सभी समन्वय से कार्य करेंगे। किसी भी विभागीय निदेशक को कमतर नहीं माना जायेगा। स्वतन्त्र और लोकतांत्रिक भारत में बेतुकी ऊँच-नीच की आवश्यकता नहीं है। विकास के लिए इन सब बातों से ऊपर उठना पड़ेगा। हाँ, अगर कोई निदेशक अपने विभाग को ठीक से नहीं चला पाता है, तो क्षेत्रीय (संभागीय) वरिष्ठ प्रभारी उन्हें समझाये। गलती बड़ी हो, तो सजा भी मिले, परन्तु अन्य विभाग के प्रभारी उन पर रौब न गाँठें। प्रदेश स्तर पर बैठे विभागों के राजनैतिक प्रभारी भी तो हैं। उनके ध्यान में भी समस्या लाई जा सकती है।
योजना निर्माण और मूल्यांकन
अभिनव राजस्थान में प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों की योजनाओं के निर्माण का कार्य गंभीरता से होगा और यह कार्य हमारे जन प्रतिनिधि, बुद्धिजीवी एवं विषय विशेषज्ञ करेंगे। लेकिन योजनाओं की उपलब्धि के मायने वास्तविक प्रगति होगी, न कि इन पर किया गया खर्च। अभी यह परम्परा चल रही है, कि खर्च की रकम को उपलब्धि बताया जा रहा है। वास्तविक परिवर्तन हुआ या नहीं, इसकी कोई जानकारी नहीं दी जाती है।
योजनाओं की संख्या को भी कम किया जायेगा और उन्हें सरल रूप में नये सिरे से बनाया जायेगा। अधिकांश योजनाएँ, प्रत्येक गाँव व शहर की स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार और वहाँ के निवासियों से परामर्श कर बनेंगी। अब एक गाँव में स्कूल में कमरे पर्याप्त हैं, फिर भी किसी राष्ट्रीय योजना के बहाने कमरे बनाये जाने का ढर्रा बन्द होगा। पहले योजना बना लो और फिर उसके लिए लाभार्थी ढूँढो, यह कब तक चलेगा? किसी गाँव या शहर में पानी की समस्या गंभीर है, तो वहाँ पर अधिकांश राशि इसी पर खर्च हो, तो गाँव या शहर के निवासियों को राहत मिलेगी।
योजनाओं की संख्या को भी कम किया जायेगा और उन्हें सरल रूप में नये सिरे से बनाया जायेगा। अधिकांश योजनाएँ, प्रत्येक गाँव व शहर की स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार और वहाँ के निवासियों से परामर्श कर बनेंगी। अब एक गाँव में स्कूल में कमरे पर्याप्त हैं, फिर भी किसी राष्ट्रीय योजना के बहाने कमरे बनाये जाने का ढर्रा बन्द होगा। पहले योजना बना लो और फिर उसके लिए लाभार्थी ढूँढो, यह कब तक चलेगा? किसी गाँव या शहर में पानी की समस्या गंभीर है, तो वहाँ पर अधिकांश राशि इसी पर खर्च हो, तो गाँव या शहर के निवासियों को राहत मिलेगी।
नियमों का सरलीकरण
अँग्रेज़ों के समय से चले आ रहे फिजूल नियमों की जगह वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार नियम बनेंगे। यह कार्य आसान नहीं है, जितना लगता है। गलत सरलीकरण से अराजकता भी फैल सकती है! इसलिए योजनाबद्ध तरीके से अनुभवी प्रशासकों एवं विशेषज्ञों की सहायता से ऐसा किया जायेगा। अब प्रत्येक कार्य के प्रमाणपत्र और शपथ पत्र देने की आवश्यकता नहीं होगी। कम्प्यूटर के जमाने में प्रत्येक विभाग के पास चाही गयी आवश्यक जानकारियां होनी चाहिए। बात-बात पर फोटो कॉपी और उसके प्रमाणीकरण से अब पीछा छूटना चाहिए।
कार्यप्रणाली में सुधार
कई प्रशासनिक सुधार आयोग बने हैं, उनकी रिपोर्टें भी आयी हैं, परन्तु अधिकांश धूल ही फांक रही हैं। जनता एवं बुद्धिजीवियों की जागरूकता के अभाव में वर्तमान प्रशासक सुधारों में रोड़े अटका कर बैठे हैं। अभी भी प्रशासन की भावना प्रत्येक जन कार्य को कठिन बनाने की रहती है। प्रत्येक अफसर-बाबू, ‘नहीं हो सकता’ कहकर आमजन को टरकाता रहता है। इतनी पक्की धारणा बन गयी है कि बिना लेन-देन या सिफारिश के, आपका मूल निवास व जाति प्रमाण पत्र भी नहीं बन सकता, जमीन का बंटवारा नहीं हो सकता, ड्राइविंग लाइसेंस या राशन कार्ड नहीं बन सकता। यहाँ तक कि मरने के बाद भी चैन नहीं। मृत्यु प्रमाण पत्र भी घर तक नहीं पहुँचता। पेंशन के कागज भी ले देकर पूरे तैयार होते हैं। क्या 6 दशकों के शासन में हमने कोई सुधार किया है? अभिनव राजस्थान में यह सुधार होकर रहेगा। मित्रों, अभिनव राजस्थान में प्रशासन-शासन कैसा हो, इस पर अपने विचार व सुझाव संक्षेप में, तथ्यों पर आधारित और आलोचना रहित भाषा में ‘रोचक राजस्थान’ को अवश्य भेजें। हमारे अंतिम प्रारूप के लिए यह आवश्यक है, जो दिसम्बर में जनता के सामने आयेगा। प्रशासन में सुधार की प्रक्रिया काफी पेचीदगी भरी होगी और हम सबको मिलकर देश हित में कर्मठता से यह कार्य करना है। आलोचना ही उपाय नहीं है।