राजस्थान का प्रत्येक निवासी कैसे स्वस्थ रह सकता है, इस पर हमारे स्वास्थ्य विभाग की फाइलें भरी पड़ी हैं। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में भी बाबुओं ने लच्छेदार बातें की हैं और इन पर अनाप-शनाप खर्च भी हुआ है। लेकिन आज भी गाँवों व शहरों में किसी परिवार में किसी परिजन को साधारण बुखार या पेट दर्द की शिकायत हो जाये, तो उसका समाधान एक चुनौती से कम नहीं रहता है। अस्पतालों में अव्यवस्था और प्राईवेट क्लिनिकों में लूटमार, एक तरफ कुआं, तो दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति अधिकांश निवासी देखते हैं। आखिर कैसा होगा, अभिनव राजस्थान में स्वास्थ्य का ढांचा, जो प्रदेश के 6.86 करोड़ निवासियों को राहत का अहसास करवा देगा?
चिकित्सकों की मानसिकता में परिवर्तन
स्वास्थ्य के क्षेत्र में जिस व्यक्ति की केन्द्रीय भूमिका रहती है, वह है चिकित्सक। हमारी जिन्दगी के सबसे संवेदनशील कार्य से जुड़े होने से हमने इन्हें ‘भगवान’ तक का दर्जा भी दे दिया था। ऐसा ही भाव हमने न्याय करने वालों (न्यायाधीशों) के लिए भी रख रखा है। लेकिन समय के साथ, परिस्थितियाँ ऐसी बदली हैं कि ‘चिकित्सक’ अब भगवान की जगह ‘दुकानदार’ लगने लगा है। सरकारी हो या प्राईवेट क्लिनिक संचालन करने वाला चिकित्सक। अब अधिकांश चिकित्सकों की आँखों में, उनके चाल-चलन में हमें वह ‘आदर्श-चरित्र’ दिखाई नहीं पड़ता है। ऐसा चरित्र, जिसकी उपस्थिति में हम अपने स्वास्थ्य के प्रति आशान्वित हुआ करते थे। लेकिन आरोप लगाने मात्र से तो व्यवस्था सुधरेगी नहीं।
हमें इस समस्या की गहराई में जाकर सोचना होगा कि चिकित्सकों की मानसिकता कैसे बदले। इसके लिए सबसे पहले यह मान लेना चाहिए कि चिकित्सक भी समाज में रहते हैं और सामाजिक परिवर्तनों से प्रभावित भी होते हैं। वे ‘भगवान’ बनकर रहने की कोशिश कभी करते थे, परन्तु हमने इनसान बनाकर उन्हें उस स्तर से नीचे ला दिया है। जब हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधियों और सामान्य प्रशासन के लिए जिम्मेदार अफ़सरों ने मिलकर धीरे-धीरे चिकित्सकों भी अन्य कर्मचारियों की श्रेणी में खड़ा कर डाँटना-फटकारना और उनके स्थानान्तरण करना शुरू कर दिया, तो ये गम्भीर दिखाई देने वाले चरित्र घबराने लगे। मेडिकल कॉलेज के अनौपचारिक वातावरण से क्षेत्र में केवल अपने ज्ञान के भरोसे खड़े चिकित्सक की हालत हमने खराब करके रख दी है। शिक्षक और चिकित्सक समाज की नींव तैयार करते हैं और हमने पिछले तीन-चार दशकों में इनके मान-सम्मान को ठेस पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। नयी सामंती व्यवस्था के एजेन्टों-कलक्टर, तहसीलदार व थानेदार और विधायकों, प्रधानों व सरपंचों का मान सम्मान, हमने नये सामाजिक मूल्य के रूप में स्थापित कर दिया है और यह शिक्षक-चिकित्सक जैसे विशेषज्ञों की कीमत पर हुआ है। ऐसी स्थिति में आप, मेडिकल कॉलेज में पढ़े छात्र की नजर से दुनिया को देखिये। मैं स्वयं इस स्थिति से गुजर चुका हूँ। मनोबल गिरने पर बड़ा अजीब लगता है। अब आप किसी गाँव-क़स्बे के किसी समारोह के मुख्य अतिथि या अध्यक्ष नहीं है। आपसे तो द्वितीय श्रेणी का कर्मचारी थानेदार ठीक है। और जब आपका ज्ञान, सम्मान के काबिल नहीं रहा, तो क्या करोगे? इसे बेचो, जो भी भाव मिले। इस गहराई तक कौन जाता है? बुद्धिजीवी भी चिकित्सकों को बेईमान कहकर अपना कर्त्तव्य पूरा कर लेते हैं, मीडिया भी उन्हें समाज का दुश्मन बता देता है। इस मानसिकता में परिवर्तन तभी आयेगा, जब हम उन्हें फिर से कार्य करने की स्वतन्त्रता देंगे, जब हमारा राजनैतिक नेतृत्व उन्हें अपना गुलाम नहीं समझेगा और जब सामान्य प्रशासन के जानकारों को उन्हें डांटने से मना कर दिया जायेगा। अभिनव राजस्थान में ऐसा ही होगा। तब आप देखियेगा कि चिकित्सकों के अंदर ‘भगवान’ कैसे फिर से प्रकट होते हैं।
संभागीय व जिला स्तर पर प्रशासनिक ढाँचा
प्रत्येक संभाग में क्षेत्रीय स्वास्थ्य निदेशक और ज़िले में निदेशक होंगे। ये निदेशक किसी अन्य विभाग से निर्देशन नहीं लेंगे और अपना कार्य स्वतन्त्र रूप से करेंगे। समन्वय के नाम पर इन पर प्रभुत्व जमाने की प्रवृत्ति बंद की जायेगी। अस्पतालों के निरीक्षण करने की जिम्मेदारी या छूट, सामान्य प्रशासनिक अफ़सरों, कलक्टर, तहसीलदार आदि को नहीं होगी। हाँ, स्वास्थ्य विभाग के मंत्री, जब चाहें निरीक्षण करें और कमी पाये जाने पर कड़ी कार्यवाही करें। स्वास्थ्य मंत्री, प्रत्येक महीने में किसी एक संभाग की व्यवस्थाओं का जायजा लेंगे। संभाग से लेकर सामुदायिक केन्द्र तक महीने में एक ही बैठक हुआ करेगी। एक ही रिपोर्ट तैयार होगी, जिसे सरल भाषा में नये सिरे से तैयार किया जायेगा। बरसों से चली आ रही दकियानूसी जानकारियों व आँकड़ों से मुक्ति मिलेगी। जिला अस्पताल की व्यवस्था इतनी पुख्ता होगी कि गंभीर बीमारियों के इलाज यहीं पर हो जायें। संभागीय चिकित्सालयों में तो केवल शोध ही होना चाहिए।
गाँवों में चिकित्सक न हों
सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र तक ही चिकित्सक लगेंगे। गाँवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर कोई नियुक्ति नहीं होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के कहे अनुसार जो ढोंग हम करते आये हैं, वह बंद होना चाहिए। हमारे यहाँ की परिस्थितियों और पश्चिमी जगत में बड़ा अन्तर है। समान व्यवस्थाएँ यहाँ नहीं की जा सकती हैं। गाँव-गाँव में चिकित्सक के गलत नारे को दोहराने का कोई अर्थ नहीं है। इससे उलटे ग्रामीणों को ही नुकसान हो रहा है। एक चिकित्सा विज्ञान का स्नातक जितनी योग्यता लेकर क्षेत्र में आता है, उसका उपयोग वह प्राथमिक केन्द्र पर कभी भी नहीं कर पायेगा। बिना जाँच सुविधाओं के, बिना दवाइयों के, बिना ऑपरेशन थियेटर के, बिना मशीनों के, वह केवल वही काम कर सकता है, जो एक नर्स करती है। प्राथमिक चिकित्सा तो नर्स भी दे सकती है। चिकित्सक पेट दर्द-बुखार की गोलियाँ लिख सकता है। इससे अधिक कुछ करने की यहाँ गुंजाइश भी नहीं होती है। चोट लग गयी, तो पट्टी कर देगा, टांके लगा देगा। वो नर्स भी कर सकती है। उन्हें बाकायदा इनका प्रशिक्षण दिया जाता है। तो फिर क्यों एक अधिक योग्यता वाले व्यक्ति को केवल लोकलुभावनी नीति बनाकर गाँवों में खपाया जाये। वैसे भी यह संभव ही कहाँ हो पा रहा है। अधिकांश पद रिक्त पड़े हैं। जो भरे हैं, वहाँ भी चिकित्सक केवल औपचारिकताएं निभाते हैं। यह भी ध्यान रखना होगा कि एक चिकित्सक है, जिसे उच्च व्यावसायिक शिक्षा के बाद हम गाँव में जाने को मजबूर कर रहे हैं। उसकी तुलना पटवारी, ग्राम सेवक या तृतीय श्रेणी अध्यापक से करते हैं। इससे तंग आकर अब चिकित्सकों ने सरकारी सेवा से मुँह ही मोड़ लिया है।
तो हमारी व्यवस्था में चिकित्सक केवल ब्लॉक्स (पंचायत समिति स्तर) में लगेंगे, ताकि कम से कम अपनी सेवा शुरू करते वक्त उसे क़स्बे में रहने को तो मिले। दूसरे अपनी योग्यता के अनुसार उसे आवश्यक संसाधन मिलने से अपने ज्ञान के उपयोग के अवसर भी मिलेंगे। इस पुनर्गठन में जब हम प्राथमिक केन्द्रों से चिकित्सकों को सामुदायिक केन्द्रों में भेज देंगे, तो इन केन्द्रों पर पर्याप्त संख्या में चिकित्सक लग जायेंगे। कम से कम 15-20 चिकित्सक, जिनमें विशेषज्ञ भी शामिल होंगे। इस केन्द्र पर सुसज्जित ऑपरेशन थियेटर होगा, सभी तरह की जाँच सुविधाएँ होंगी, ब्लड बैंक होगा, 24 घंटे चिकित्सकों की उपस्थिति रहेगी। आस-पास के गाँवों में बिखरे चिकित्सक वह काम नहीं कर पायेंगे, जो एक जगह उनके इकट्ठे हो जाने पर होगा। रही बात गाँवों में रहने वाले निवासियों की, तो यह मान लें कि कोई भी गाँव, पंचायत समिति केन्द्र से 25-30 किमी से अधिक दूर नहीं है। आज के युग में उपलब्ध साधनों से किसी भी ग्रामीण को शहर या क़स्बे तक आने में मात्र आधा घंटा लगता है। आकस्मिक स्थिति में एम्बुलैन्स की सुविधा भी तो है, जो नये ढाँचे में और भी प्रभावी रहेगी। प्राथमिक चिकित्सा की जिम्मेदारी गाँव में रह रहा नर्सिंग कर्मचारी उठा लेगा। वैसे भी अधिकांश जगह वही यह कार्य कर रहे हैं। वो फिर क्यों गाँव-गाँव में चिकित्सक के झूठे और गैर-मुमकिन झाँसे से जनता को और ठगा जाये!
अभिनव राजस्थान के अस्पतालों में परामर्श व जाँच के लिए 20 से 50 रुपये अवश्य लिये जायेंगे। गरीबों को मुफ्त इलाज केवल धोखा है। गरीबों के साथ अन्याय है। गरीब व्यक्ति भी बहुत खुश होगा, अगर उसे इतने रुपये देकर सही इलाज मिल जाये। इतना पैसा तो वह मोबाइल सिम को री चार्ज करने में खर्च कर देता है।
बीमारियों से बचाव-गंदगी का समाधान
गाँवों-शहरों में अधिकांश मरीज बुखार और पेट दर्द जैसी सामान्य बीमारियों से पीड़ित होते हैं। इन बीमारियों के मूल में गंदगी ही रहती है। मच्छरों व मक्खियों के कारण ये बीमारियाँ फैलती हैं। लेकिन इस कार्य को पंचायतें बिल्कुल ही नहीं करती हैं। वहाँ तो सड़क निर्माण या नरेगा जैसे कार्य, राशन बांटने का काम महत्वपूर्ण हो गया है। अभिनव राजस्थान में इस कार्य को पंचायतों के कार्यों में सर्वोच्च प्राथमिकता दी जायेगी। वर्ष में दो-चार गाँवों को ‘निर्मल पुरस्कार’ स्वच्छता के लिए देने के ढकोसले से गंदगी कम नहीं होगी। हमारे यहाँ प्रेरणा मात्र से कार्य नहीं हुआ करते हैं। ए.पी.जे.अब्दुल कलाम से किस जन प्रतिनिधि ने प्रेरणा ली है? यहाँ तो व्यवस्था पर दबाव बनाकर सामूहिकता के नियम से ही काम संभव होगा! प्रत्येक गाँव-शहर में फैली गंदगी का उपचार करने के लिए भी स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट का एक बड़ा अंश दिया जायेगा। 21 वीं सदी में कब तक बच्चों के मुँह पर मक्खियाँ बैठती रहेंगी और हम विश्व की ताकत बनने का सपना पालेंगे।
कुपोषण का इलाज
गाँव-शहर में आज तक बुझे हुए, पीले पड़े चेहरे दिखाई देना आम बात हो गयी है। अच्छे भले घरों के बच्चे और बालिकाएँ – महिलाएं मरी-मरी सी दिखाई देती हैं। चाय पीने, गुटखा खाने और मिलावट से भरी-तली चीज़ें खाने से अस्थि पंजर गड़बड़ हो चले हैं। अनावश्यक चिंताएँ भी व्यवस्था पर विश्वास न होने से और असुरक्षा से पनपी हैं। लोकतंत्र कदम-कदम पर हारता जान पड़ता है। इसलिए कुपोषण को मिटाना इतना आसान नहीं मानिये। हाँ, यह सत्य है कि कुपोषण भी कई बीमारियों और मौतों की जड़ में है, परन्तु इसका उपचार मिड-डे मील या आंगनबाड़ी नहीं है। हम सब जानते हैं कि इन व्यवस्थाओं के क्या हाल है? चलो, गरीब बच्चों को मुफ्त में खाना मिल भी जाता होगा, तो क्या ऐसे बच्चे बड़े होकर स्वाभिमानी भारतीय नागरिक बन पायेंगे। नहीं। इस स्वाभिमान को बचाये रखने के लिए हमें ये ‘लंगर’ बंद कर, बच्चों को अपने घरों में ही भर पेट और पोषक खाना उपलब्ध करवाना होगा। यह तभी होगा, जब इन बच्चों के माँ-बाप इतना कमा लेंगे, जिससे घर की आवश्यक सामग्री खरीदी जा सके। अभिनव राजस्थान में गाँव-शहर के उत्पादन बढ़ाने को इसी कारण विकास का पर्याय कहा जायेगा। फिर भी तब तक गरीबों को भरपेट भोजन की निश्चिंतता तो महसूस कराई जायेगी।
गंभीर बीमारियों का नि:शुल्क इलाज
अभिनव राजस्थान में सभी नागरिकों के लिए कैन्सर, हृदय रोग, गुर्दा के रोग आदि गंभीर बीमारियों का नि:शुल्क इलाज किया जायेगा। आप मानकर चलिये, अधिकांश परिवारों की घर की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था ऐसी बीमारियों के कारण दो पीढ़ी तक नहीं संभलती है। पैसे वाले भी क्यों न हों, उन्हें भी अगर ये गंभीर बीमारियाँ हो जाती हैं, तो परिवार की दशा खराब हो जाती है। मानसिक पीड़ा भी कम नहीं होती है। इसलिए 200-250 करोड़ का एक वर्ष में खर्च शासन के लिए बड़ा नहीं माना जायेगा। कम से कम इतनी जिम्मेदारी तो शासन की बनती भी है। सभी संभागीय चिकित्सालयों में यह व्यवस्था होगी।
निजी चिकित्सकों पर नियन्त्रण
जब सरकारी व्यवस्था लचर हो गई है, तो निजी क्षेत्र के अधिकांश चिकित्सकों ने भी दूसरा ही रूप धारण कर लिया है। हैवानियत की हद तक अपने पेशे को शर्मसार किया जा रहा है, दवा विक्रेताओं व जाँच प्रयोगशालाओं से कमीशन की ऐसी भूख जगी है कि चिकित्सक ‘दुकानदारों’ से भी आगे निकल गये हैं। अपने प्रशिक्षण के दौरान हिप्पोक्रेटिज की कसम को तो वे कब की भुला चुके हैं। मरीज को देखकर उन्हें किसी व्यक्ति की जगह वस्तु का ख्याल आता है जिसके दोहन से वे अपनी जेब को भरना चाहते हैं। बेवजह की जाँचें व ऑपरेशन करते समय उन्हें टोकने वाला अभी कोई नहीं है। अभिनव राजस्थान में उनकी आत्मा को फिर से झकझोरा जायेगा और उनके संगठनों को सक्रिय कर उन्हें इंसानियत के नाते व्यवहार करने को कहा जायेगा। मेडीकल कॉलेज में भी प्रशिक्षण के दौरान उन्हें देश हित में कार्य करने की प्रेरणा दी जायेगी। वहीं निजी क्षेत्र में परामर्श और जाँच की दरें भी तय की जायेंगी, तो कमीशन खोरी पर सख्ती से रोक लगायी जायेगी।
अभिनव स्वास्थ्य के लिए भी पाठकगण अपने विचार, सुझाव ‘रोचक राजस्थान’ को भेजें। प्रदेश के नवनिर्माण में पता नहीं, आपके कौनसे विचार से नया मार्ग खुल जाये। आखिर विचारों से ही तो समाज का विकास संभव होता है।
सुझाव व्यावहारिक हों और विश्वास से भरे हों। यह न सोचें कि इन्हें कौन लागू करेगा। मानकर चलिये कि अभिनव राजस्थान अभियान की खुशबू जल्दी ही प्रदेश भर में फैलेगी, और शासन व्यवस्था पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।