जरा गंभीरता से सोचिये. कोई भी पुलिस का अधिकारी या सिपाही अगर रिश्वत लेकर अपने कर्तव्य से विमुख होता है, तो क्यों होता है ? क्यों वह उस महान ‘वर्दी’ का महत्त्व नहीं समझता है, जो समाज ने उसे पहनाई है? क्यों वह भूल जाता है कि उसका वेतन समाज के लोग न्याय और सुरक्षा के लिए देते हैं ? क्यों वह न्याय करने में मदद न कर अन्याय का साथ देता है ? क्यों किसी गरीब से पैसे लेते हुए उसका दिल नहीं पसीजता है ? वह किसी सच्चे आदमी पर भी झूठा रौब झाड़ता है ताकि मुकदमें में फंसने के डर से कुछ पैसा दे दे ? क्यों वह पैसे को इतनी अहमियत देता है ? क्यों इस कीचड़ में उतरता है ? क्या करेगा वह इस पैसे से ? कोई तो कारण होगा, वर्ना एक अच्छा भला आदमी पुलिस में जाते ही अपना ईमान और धर्म क्यों बेचने लगता है ?
समस्या की जड़
अगर हम उन कारणों को जान लेंगे, मान लेंगे, तो समस्या की जड़ तक पहुंचेंगे. तभी हम उस समाधान के बारे में बात कर पायेंगे, जिसकी अनदेखी समस्या को और गंभीर बना रही है. तभी हम पुलिस में काम कर रहे लोगों की मानसिकता को जान पायेंगे. तभी शायद हमारे मन में पुलिस के प्रति घृणा के स्थान पर हमदर्दी होगी, जैसे किसी बीमार व्यक्ति के प्रति होती है. तभी हम यह जान पायेंगे कि केवल आरोप लगाने से भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा. न ही कुछ लोगों को पकड़ने की ‘रस्म’ निभाने भर से कोई विशेष सुधार होगा. गहराई में उतरेंगे तो ही इस बीमारी की जड़ पकड़ में आयेगी.
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पुलिस का कोई सिपाही या अधिकारी रिश्वत इसलिए लेता है, ताकि वह उस पैसे से, अपने समाज में, अपनी इज्जत में बढोतरी कर सके. यह स्वाभाविक प्रक्रिया है कि समाज जिन मूल्यों की ज्यादा इज्जत करता है, हम सभी उन मूल्यों पर खरा उतरने की कोशिश करते हैं- सही या गलत रास्ता अपनाकर-जो भी किस्मत से हाथ लग जाए. तो एक सिपाही या अधिकारी इसलिये अधिक से अधिक धन इकठ्ठा करने में लगता है, ताकि समाज के लोग इस धन के कारण उसकी वाहवाही करे. उसके बड़े से मकान को देखकर लोग जलें, उसकी महंगी कार को समाज के लोग निहारें. वह यह भी चाहता है कि अपने घर के किसी भी समारोह में बेतहाशा खर्च कर समाज को अपनी ‘हैसियत’ दिखाए . कि देखो अब मैं भी आपके ‘मूल्यों’ पर खरा उतर रहा हूँ कि नहीं. और यह सही भी है कि जिस तरह का समाज हम आज लेकर बैठे हैं, वहां पैसे की इज्जत ज्ञान और ईमानदारी से ज्यादा है. खर्च और दिखावे का महत्व बचत और सादगी से ज्यादा है. ऐसे में पुलिस या अन्य विभाग में काम करने वाले लोग क्या करेंगे ? वह यह जानते हैं कि उनके ईमानदार होने का यहाँ कोई मूल्य नहीं है. अगर वे ईमानदारी से अपना काम करते हैं, तो समाज के लोग उन पर दया खायेंगे, उन्हें नाकारा समझेंगे.
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फिर हमारी सामजिक परम्पराएं निभाना भी आजकल काफी महंगा हो गया है. किसी परिजन के विवाह या म्रत्यु पर अक्सर आपे से बाहर खर्च करने की स्थिति बन जाती है. बेटी या बेटे का विवाह समाज में ‘सम्मानजनक स्तर’ पर करने के लिए यह सिपाही-अधिकारी कुछ भी करने को लालायित रहता है. दहेज प्रथा को रोकने के लिए जिम्मेदार व्यक्ति उस प्रथा को स्वयं बढ़ चढ कर निभाता है ! क्या करे ? क्या अपने बच्चों को कंवारा रखे ? कौन है यहाँ जो उसकी ईमानदारी की इज्जत कर कम खर्चे में उसके बच्चों को अपनाएगा ? अपवाद को छोड़ दें. वहीँ किसी परिजन के मरने पर ‘मृत्युभोज’ जैसे गैरकानूनी और अधार्मिक काम को भी इस कानून के रक्षक को करना पड़ता है. अचरज तो तब होता है, जब यही कानून का रक्षक ऐसे मौकों पर मेहमानों को अफीम परोस रहा होता है !
स्पष्ट है कि दिखावे के इन मौकों के लिए ‘अतिरिक्त’ धन की आवश्यकता रहती है. वेतन से तो ये तथाकथित महंगी परम्पराएं निभायी नहीं जा सकती हैं. इस अतिरिक्त धन को जुटाने के लिए रिश्वत ही एक मात्र चारा रह जाता है. समाज के द्वारा तय किये गए मूल्यों पर खरा उतरने के लिए यह पुलिस का सिपाही-अधिकारी न्याय और ईमानदारी को ताक पर रख देता है. उसके लिए देश या प्रदेश से पहले उसका वह समाज महत्वपूर्ण रहता है, जिसमें से वह आया है और जिससे उसकी पहचान है. उसे समाज द्वारा स्थापित गलत परम्पराओं को भी निभाना पड़ता है. हम कुछ भी तर्क दें, वह उस समाज से अलग करके अपने आपको देखने की स्थिति में आज नहीं है.
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यह रिश्वतखोरी तब भी आवश्यक लगती है, जब बच्चों के ‘भविष्य’ का विचार आ जाता है. आज के समय में बच्चों को लेकर अनिश्चितता बढ़ गयी है. शिक्षा का ढांचा गड़बड़ा गया है. सरकारी स्कूलों और कॉलेजों की दशा ठीक न होने से हर कोई अपने बच्चों को महंगी फीस देकर प्राइवेट स्कूलों या कॉलेजों में दाखिला दिलाना चाहता है. जाहिर है कि इसके लिए भी ‘अतिरिक्त’ धन चाहिए. बेरोजगारी की भी भारी समस्या है. ऐसे में रिश्वात्खोरी से जुटाए पैसे से उस कमी को पूरा करने की असफल कोशिश पुलिस के कर्मचारी करते हैं. असफल कोशिश, क्योंकि अधिकतर मामलों में ऐसे धन से बच्चे बिगड़ते ही हैं. पर मन नहीं मानता.
यानि एक तरफ हम पुलिस के सिपाही-अधिकारी से ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की अपेक्षा करते हैं, तो दूसरी तरफ समाज में स्थापित गलत मूल्यों पर उसे खरा उतरने को भी कहते हैं. बड़ी गाड़ी, बड़ा घर, बड़ा खर्च. ये हमारे वर्तमान मूल्य हैं. सादगी, बचत या ईमानदारी हमारे मूल्य नहीं हैं, केवल इन मूल्यों की हम बातें करते हैं. हकीकत में हम एक समाज के रूप में इन मूल्यों को मानते नहीं हैं. ऐसे में वह बेचारा क्या करेगा ? हर कोई तपस्वी तो नहीं होता है, कि हवा के खिलाफ खड़ा रह सकता है. जिस समाज से वह आया है, उसके मूल्यों को वह अधिक समय तक अनदेखा नहीं कर सकता.
समाधान की राह
इसलिए हमारी ‘अभिनव राजस्थान’ की धारणा में यह कहा गया है कि हम व्यक्तियों को दोष देना बंद करें. उनकी मनःस्थिति को समझें कि क्या वे स्वाभाव से ही ऐसे हैं या समाज के हालातों के कारण ऐसे हो गए हैं. कहीं समाज की जमीन ही तो गडबड नहीं है, जिसके कारण सही बीज नहीं पनपते हैं और यहाँ वहां केवल खरपतवार ही दिखाई देती है. हम जरा सोचें कि क्या हम भी अगर पुलिस में होते तो उनके जैसे नहीं हो जाते. क्या हम भी समाज में अपनी ‘इज्जत’ बनाने के लिए वैसे नहीं हो जाते, जैसे होने पर हमारे ही समाज के इन ‘बेचारों’ को हम कोसते रहते हैं ? इतना सोचते ही हम समाधान की दिशा में आगे बढ़ जायेंगे. वर्ना यह दोषारोपण का खेल हम पर बहुत भारी पड़ेगा. अपने ही समाज के लोगों पर अपनों के द्वारा अन्याय का यह दौर खत्म नहीं होगा. तो हम क्या करें ?
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‘अभिनव राजस्थान’ में हम सबसे पहले समाज को बदलेंगे , खासकर उन गलत मूल्यों को जिनके कारण समाज के सदस्य दिशा भटक रहे हैं. सादगी, बचत और ईमानदारी को फिर से महिमामंडित करेंगे. समाज के जो सदस्य इन मूल्यों पर खरे उतरेंगे, उनकी ज्यादा इज्जत करेंगे. उनकी ‘मार्केटिंग’ करेंगे. इतनी ज्यादा कि ये मूल्य फेशन बन जायेंगे. सादगी से जीने वालों को कहीं से भी नहीं लगेगा कि वे अधिक दिखावा करने वालों से किसी भी मायने में पीछे हैं. तब वे अपनी सीमा में रहकर खर्च करेंगे और अपने परिवार के साथ खुश रहेंगे.
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सामाजिक परम्पराओं को हम सरलीकरण करेंगे. पूरे राजस्थान में एक सामजिक परिवर्तन की लहर चलाएंगे, जिससे लोग कम खर्च में अपनी सामाजिक जिम्मेदारियां निभा सकें. विवाह समारोह की फिजूलखर्चियाँ रोकने के लिए सभी जातियों के लोग बैठकें कर अपने स्तर पर निर्णय लेंगे. यह समारोह फिर से परिवार का समरोह बनेगा और वर्तमान की तरह सार्वजनिक नहीं रहेगा. इसमें केवल परिवार के लोग और अभिन्न मित्र ही भाग लेंगे. व्यर्थ लेनदेन को भी हम कम करेंगे और इसके लिए प्रदेश के युवाओं को सक्रियकरेंगे. इसी प्रकार किसी परिजन की मौत पर होने वाले खर्चों को भी अत्यंत कम करेंगे और मृत्युभोज जैसी घिनौनी और अधार्मिक प्रथा को प्रदेश से विदा करेंगे.
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शिक्षा के स्तर में ‘अभिनव शिक्षा’ के माध्यम से सुधार करेंगे. ऐसी व्यवस्था करेंगे कि प्रत्येक परिवार अपने बच्चों की शिक्षा एवं योग्यता के अनुसार रोजगार को लेकर चिंतामुक्त हो जाएगा. घर के पास की स्कूल में शानदार शिक्षा होगी और स्थानीय कॉलेज में अच्छे जीवन के निर्वाह के लिए आवश्यक ज्ञान मिल जाएगा. वहीँ ‘अभिनव कृषि और उद्योग’ के माध्यम से प्रदेश का उत्पादन और आमदनी इतनी बढ़ जायेगी कि कोई भी युवा बेरोजगार नहीं रहेगा.
ऐसे हालत बनने पर अधिकाँश सिपाही और पुलिस के अधिकारी क्यों रिश्वतों की गन्दगी में उतरेंगे ? जब अमेरिका, योरोप और जापान में वे ईमानदारी और समर्पण से नागरिकों की सुरक्षा का ध्यान रखते हैं, तो यहाँ ऐसा क्यों नहीं होगा ? ‘अभिनव राजस्थान’ में तो यही होकर रहेगा.
आपको यह आदर्शवादी बात लग रही होगी, लेकिन दूसरा कोई रास्ता नहीं है. जितने भी रास्तों की बातें अभी तक हो रही हैं, वे सब अंधी गालियाँ हैं ,जो एक जगह जाकर समाधान से पहले ही बंद हो जाती हैं और हमारी निराशा को और बढ़ा देती हैं. आपको भी इसके अलावा जिन रास्तों का पता है, उन पर विचार करके देखिये. आप पायेंगे कि वे समाधान तक नहीं पहुँच रहे हैं. रिश्वतखोरों को पकड़ो ? कितनों को पकड़ोगे, जब सारे कुँए में भांग पड़ी है ? रिश्वत नहीं देने की कसम खाओ ? इन हालातों में कितने लोगों में यह हिम्मत है, जो व्यवस्था से टकरा सकें ? नैतिकता के पाठ पढाओ ? कौन नैतिकता को अपनाएगा, जब व्यवहार में समाज की ही गलत नीतियां मजबूरियां बन कर खड़ी हैं ?
मित्रों, आगे से पुलिस की कार्यप्रणाली पर बात करें, बहस करें या चिंतन करें, तो इस अंदाज में करियेगा. शायद फिर आप पुलिस की कमजोरियों के पीछे छिपे असली कारणों को जान पायें और हमारे ही समाज के इन भटके हुए लोगों से घृणा न करें. बल्कि हो सकता है कि आप ‘अभिनव राजस्थान अभियान’ को सफल बनाने में जुट जायें और समाधान के कर्त्ता बन जाएँ. तभी हम ऐसी पुलिस खड़ी कर पायेंगे, जिसको देखकर हम अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हो पायेंगे. तभी पुलिसवालों की आँखों में देश के प्रति वह समर्पण जागेगा, जिसके सपने हम देखते हैं. तभी अपराधियों के मन में भय और नागरिकों के मन में विश्वास जगेगा. तभी देश के इस कोने में कोई देशद्रोही घुसने की हिम्मत नहीं करेगा.
I am very happy to know that in this era(kalyug)few people are still there to think about these thing or are concerned for our ucoming generations.
you are absolutely right for the reason of corruption etc but if we will think that society behaves like this.Were our ancestors fool?or Is there someone o tell society that you should behave in this way only? my intention is not to offend you or yr work.i also like it.but i am unable to find why society bahave in this cruel way?