‘पधारो म्हारे देश’
हमारे अतिथियों, चुनाव लड़ने के लिए राजस्थान आओ।
हमारे अतिथियों, चुनाव लड़ने के लिए राजस्थान आओ।
आतिथ्य या गुलामी ?
हम सदा सुनते और कहते आये हैं कि हमारा प्यारा प्रदेश राजस्थान अपने ‘आतिथ्य’ के लिए विश्व भर में जाना जाता है। इसी ‘आतिथ्य’ की दुहाई देकर हम पर्यटकों को राजस्थान आने का न्योता देते रहते हैं। उनके लिए ‘पधारो म्हारे देश’ गाते हैं। हमारे तर्क शास्त्रियों ने चतुराई से गुलामी भरे भाव को ‘आतिथ्य परम्परा’ कहकर बात को अच्छे से जमा भी दिया है। हमारे आतिथ्य (?) से मुग़ल भी खुश हुए थे, अंग्रेज भी हमारे कायल हो गये थे, ऐसी बातें हजारों बार दोहरा कर आतिथ्य का अर्थ ही धीरे-धीरे बदल गया है। अँग्रेज़ों को हम अब भी याद दिलाते हैं कि प्रिंस अल्बर्ट जब राजस्थान आये थे, तो कैसे भरतपुर के महाराजा ने उनका सत्कार स्टेशन पर किया था और उन्हें तीतर-बटेरों का शौक फरमाने में मदद की थी। हम यह भी शान से बताते हैं कि जब प्रिंस की सवारी जयपुर पहुँची, तो कैसे पूरे शहर को उनके मनपसन्द गुलाबी रंग से रंग दिया गया था। हमारे आतिथ्य से प्रिंस कितने खुश हुए थे। उनकी खुशी में हमने जयपुर में अल्बर्ट हॉल बनवा दिया। क्या आपको ऐसा आतिथ्य दुनिया में कहीं और मिलेगा? तो फिर आइये, विदेशी मित्रों, हम अब भी उसी भाव से आपकी सेवा में खड़े हैं। पगड़ी झुकाये, हाथ से सलाम मारते, सैल्यूट मारते! लेकिन हमारी रुचि रामदेवरा आने वाले या अजमेर की दरगाह में आने वाले साधारण अतिथियों में नहीं है। वे तो स्वयं कर लेंगे, सड़क किनारे अपने इन्तजाम।
लेकिन इधर हमारे इस आतिथ्य में एक कमाल की नई परम्परा जुड़ गयी है। एक नया चलन आजाद राजस्थान में स्थापित हो रहा है। आने वाले समय में शायद हमारे पर्यटन को यह परम्परा नये आयाम दे सकती है। यह भी विश्व में अपनी तरह की अद्वितीय घटना है। राजनैतिक पर्यटन। यह तकनीकी शब्द आप पहली बार पढ़ रहे होंगे।
राजनैतिक पर्यटन की शुरुआत
जी हाँ। राजनैतिक पर्यटन के क्षेत्र में भी राजस्थान देश भर में झण्डे गाड़ रहा है। हम कहते हैं कि आपको अगर राजनीति में रुचि है, पैसा पास में है और दिल्ली-जयपुर में ठीक पहुँच है, तो आप इस पर्यटन का भी यहाँ पर लुत्फ़ ले सकते हैं। राजस्थान के किसी भी हिस्से में एक मनपसन्द सीट चुनिये, चुनाव लड़िए और चले जाइये। इसे मजाक मत समझिये। हम गम्भीरता से यह बात कह रहे हैं। ऐसा पर्यटन विश्व में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। इस पर्यटन से आपकी राजनीति का शौक भी पूरा हो जायेगा और चुनाव में खर्च किये गये धन को ब्याज समेत आप वापिस भी ले जा सकते हैं। या फिर यहीं पर स्थायी निवेश (निवास नहीं) कर राजनीति और अर्थ जगत, दोनों का आनन्द ले सकते हैं।
राजतंत्र में तो यह पर्यटन फूला-फला था, जब बाबर-अकबर-जहांगीर-शाहजहाँ और अंग्रेज यहाँ पर खूब मजे करके गये थे। परन्तु 1947 के बाद पहला प्रयोग हमारे नागौर ज़िले में किया गया था। नेहरू जी के खास एस. के. डे नागौर से लोक सभा चुनाव जीत कर गये थे। बंगाली बाबू केवल चुनाव का पर्चा भरने आये थे। फिर कभी मुड़ कर भी नहीं देखा। उनके अपने बंगाल में वे जीत नहीं पाते, क्योंकि वहाँ की आजादी की लड़ाई लड़ने वालों ने जागरूकता की गर्मी पैदा कर रखी थी। वहाँ उनका जीतना संभव नहीं था। इसलिए नेहरू जी ने ऐतिहासिक गुलामों की इस धरती को अपने मित्र के लिए चुन लिया।
80के दशक में सिरोही का उदारीकरण
आपको जानकारी होगी कि राजस्थान में अँग्रेजी राज का मुख्यालय सिरोही ज़िले के माउन्ट आबू में हुआ करता था। इसी सिरोही में 80के दशक में पंजाब के एक सरदार जी राजनैतिक पर्यटन के लिए आए थे। सरदार जी को शायद यहाँ का इतिहास पता था। सही ही पता था। तभी तो सरदार बूटा सिंह सिरोही-जालोर के सांसद बन गये। सरदार जी की दिल्ली में पकड़ भी तगड़ी थी। अपने धन और बल के आधार पर उन्होंने दलालों-चाटुकारों की एक लम्बी फौज यहाँ पर भी खड़ी कर दी। पानी पी-पी कर उनके नाम की क़समें खाने वाले। पंजाब में सरदार जी जीत नहीं सकते थे। इसलिए इंदिरा जी के, राजीव जी के अनन्य सहयोगी को, कृपा पात्र को, राजस्थान का रास्ता दिखा दिया गया था। बूटा सिंह ने यह रास्ता देखा, तो कई अन्यों ने भी इस जमीन में गुलामी की बू सूँघ ली। उदयपुर से कैलाश मेघवाल वहाँ पहुँचे, तो दूर आंध्र प्रदेश से बंगारू लक्ष्मण भी यहाँ पहुँच गये। यह बंगारू महोदय जब अपने कर्मकाण्डों में फंसे, तो उनकी पत्नी सुशीला लक्ष्मण ने पर्यटन का आनंद ले लिया। वाकई में सिरोही-जालोर का यह आतिथ्य देखने लायक है। फिर भी आप इसे गुलामी नहीं कहिये। इतिहास में भी मत झांकिये, कि कैसे सिरोही के शासक ने स्वयं अँग्रेज़ों को सिरोही का राज सम्भालने को कह दिया था। और आज जब यहाँ के लोग भी ऐसा कर रहे हैं, तो इसमें अचरज क्या है? लेकिन मध्यकाल से पहले ऐसा नहीं था। इसी सिरोही में कभी सुरजन देवड़ा जैसे स्वाभिमानी शासक भी हुए थे, जो राणा प्रताप और मेवाड़ के चन्द्र सेन के साथ हो गये थे। परन्तु बाद में तो सिरोही की प्रसिद्ध तलवारें सजावट के ही काम आयीं थी। जालोर में भी कान्हड़देव चौहान की शहादत के बाद तिहरी गुलामी का दौर प्रारंभ हो गया था, जिसने भीनमाल (श्रीमाल) के प्रतिहारों और परमारों की स्वर्णिम उपलब्धियों पर पानी फेर दिया था। गुलामी की वह परम्परा अभी भी कायम सी लगती है। और अब तो अति ही हो गयी है। लोकतंत्र के इस युग में भी समय फिर मध्य काल का चोला पहन कर खड़ा हो गया है।
चल गयी परम्परा
सिरोही में इस अतिथि प्रतिनिधि की परम्परा की सफलता ने राजस्थान को चारों तरफ से राजनैतिक पर्यटन के लिए खोल दिया। सीकर में हरियाणा के देवी लाल आ टपके, तो बीकानेर में पंजाब के बलराम जाखड़ आ गये। धन और बल का जमकर प्रयोग हुआ। रही सही कसर धर्मेन्द्र ने पूरी कर दी। दो डॉयलॉग बोले कि बीकानेर की जनता ने अपने पाँच साल उन पर न्योछावर कर दिये। क्या फर्क पड़ता है? इस बार भी तो बीकानेर की इसी जागरूक जनता ने एक राजकुमारी को विधायक के रूप में राज सौंप कर अपनी जिम्मेदारी (?) निभायी है। फिल्मों और महलों के बीच में आजाद बीकानेर अभी भी झूल रहा है।
उधर पूर्वी राजस्थान में राजेश पायलट, दिल्ली से दौसा-भरतपुर में राजनैतिक पर्यटक बनकर आये और छा गये। पायलट तो पैराशूट पहन कर जैसे स्थायी रूप से लैंड ही कर गये थे। झालावाड़ में भी मध्यप्रदेश की वसुंधरा राजे आयीं और एक पिछड़े ज़िले में उन्होंने अपने परिवार की सामंती ताकत से जगह बना ली। वहीं से पैर पसारते-पसारते अपने पूर्वज सिंधियों की तरह वे भी जयपुर के सिंहासन पर पहुँच ही गयीं। इसी लिए तो चुनाव हारने के बाद उन्होंने कहा था कि वे राजस्थान छोड़ कर नहीं जायेंगी। राजस्थान का कोई मूल निवासी इस तरह वक्तव्य थोड़े ही देता।
इस चुनाव में
वर्तमान लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में भी राजनैतिक पर्यटन की धूम रही। जोधपुर में हिमाचल प्रदेश की चन्द्रेश कुमारी आयी। राज घराने की बेटी होने का ऐसा प्रभाव जनता पर पड़ा कि चन्द्रेश कुमारी का पर्यटन सफल रहा। नागौर में हरियाणा की ज्योति गहलावत आयीं और मिर्धा परिवार के अपने कनेक्शन का सफल उपयोग कर लिया। अजमेर में दिल्ली से सचिन पायलट आ गये। सिरोही में बूटा सिंह निर्दलीय उतरे, जीते नहीं पर समर्थन काफी पा गये। सिरोही में इस बार मुम्बई नगरी के प्रवासी देवजी भाई पटेल बाजी मार गये। धन के साथ जाति का सहारा पटेल साहब को ऐसा मिला, कि लोग अन्दर -बाहर का फर्क ही भूल गये। दौसा में जम्मू कश्मीर के चैची साहब हार कर भी धूम मचा गये। उन्हें गुर्जर बताकर समर्थकों ने हिन्दू-मुसलिमों के बीच खड़ी धर्म की दीवार को ही तोड़ दिया। वाकई में राजनीति क्या-क्या रूप ले सकती है। यहाँ धर्म पर फिर जाति हावी हो गयी। विधानसभा में भी यह पर्यटन इस बार जम गया, जब हरियाणा के रणवीर पहलवान, मालपुरा से और दिल्ली के विधूड़ी, बेगूं से धन-बल की ताकत पर चुनाव जीत गये।
जब बाहर से पर्यटक आ रहे थे, तो प्रदेश के भीतर भी थोड़ा बहुत पर्यटन हो लिया। सी. पी. जोशी और गिरिजा व्यास, अपने क्षेत्र उदयपुर को छोड़ भीलवाड़ा और चित्तौड़ गढ़ को सुशोभित कर बैठे!
राज्यसभा में
नजमा हेपतुल्ला को कभी आपने राजस्थान के हितों के लिए संसद में संघर्ष करते सुना है। नहीं न? लेकिन मध्यप्रदेश की यह नेत्री, हमारी प्रतिनिधि रह ली हैं। अभी-अभी हिमाचल के आनन्द शर्मा और दिल्ली के राम जेठमलानी भी राजस्थान से राज्यसभा के सांसद बने हैं। देखते हैं राजस्थान की कितनी चिंता करते हैं। आपको ध्यान होगा कि राज्यसभा का गठन, राज्यों की समस्याओं को प्रभावी ढंग से उठाने के लिए किया गया था। लेकिन अब यह संसद की बैकडोर एंट्री (पिछले दरवाजे से प्रवेश का मार्ग) बन गयी है। उस जले पर भी यह नमक कि राज्यसभा में हमारा प्रतिनिधि वह, जो कभी यहाँ नहीं रहा और न रहने का इच्छुक है।
परदेशियों से समस्या क्या है?
संविधान कहता है कि कोई भी भारतीय नागरिक कहीं से भी लोकसभा का चुनाव लड़ सकता है। कोई बात नहीं। लेकिन प्रावधान यह भी है कि लोकसभा का प्रतिनिधि, लोकसभा में उस क्षेत्र की समस्याओं को उठाने और उसके निस्तारण के लिए प्रयास करने के लिए भी जिम्मेदार होता है। समस्याएँ वही प्रतिनिधि जानेंगे जो उस क्षेत्र में रहे हैं या अब रहते हैं। एक दिन के लिए सर्किट हाउस में आकर समस्याएँ थोड़ी जानी जा सकती हैं।
एस. के. डे. से ज्योति मिर्धा और बूटा सिंह से देवजी भाई पटेल तक की इस पर्यटन यात्रा के बाद भी नागौर और सिरोही के वासियों को फ्लोराइड युक्त पानी ही पीना पड़ रहा है। लेकिन कोई यहाँ रहे, तो यह पानी पीयें और समस्या के हल करने के लिए लड़ें। एक दिन के लिए जब ये नेता क्षेत्र में आते हैं, तो मिनरल वाटर पी लेते हैं। पानी की परेशानी तो यहाँ रहने वाले स्थानीय निवासियों को होती है। आपको पता होगा ये दो ज़िले प्रदेश के सर्वाधिक फ्लोराइड युक्त पानी वाले ज़िले हैं। यहाँ के कई निवासी कुबड़े हो गये हैं, बच्चों के दाँत पीले-कमजोर हो गये हैं। लेकिन आजादी के 60वर्षों बाद भी शुद्ध पीने का पानी नहीं मिल रहा है।
इसलिए हमारी आपत्ति इन पर्यटकों के यहाँ से चुनाव लड़ने से नहीं है। बेशक लड़ें। पर यहाँ रहना तो शुरू करें। यहाँ के बनने की कोशिश तो करें। फिर कोई भी भारतीय राजस्थान में आकर चुनाव लड़े, तो हम स्वागत करेंगे। लेकिन विदेशी पंछियों की तरह केवल एक मौसम में आकर चले जाने से प्रदेश का भला नहीं होगा। और कहीं ऐसा न हो कि राजनैतिक पर्यटन की यह परम्परा भारत देश में भी पड़ जाये। योरोप या अमेरिका से आकर लोग चुनाव लड़ लें। हिलेरी क्लिंटन चुनाव लड़ने आ जायें और हमारे अमेरिका पोषित एनजीओ या चिंतक कह दें कि क्या फर्क पड़ता है। गुलामी की बौद्धिक परम्परा के ये वाहक कह दें कि अब दुनिया एक गाँव है, ग्लोबल विलेज है, थोड़ा बड़ा सोचो। वसुधैव कुटुंबकम। लेकिन अब हम इतना बड़ा सोचने के लिए तैयार नहीं है। सोनिया को अपना लिया, वसुंधरा को अपना लिया। अब देश-प्रदेश के स्थानीय निवासियों को मौका मिलना चाहिए। पार्टी की इच्छा के नाम पर राजनैतिक पर्यटकों को थोपना बंद होना चाहिए।
इसमें रोचक जानकारी प्राप्त हुई कि देश के प्रथम जिला जहां पंचायती राज की स्थापना की वही नेहरू जी आये सता का इतना विकेन्द्रीकरण कर दिया कि नेहरू जी के खास एस. के. डे नागौर से लोक सभा ही उनको सता विकेन्द्रीकरण में दी हमारे नागौर वालो का हदय बहुत बडा है
करमारमा डांगा
9460273584