अपने ड्राईंग रूम, चौपाल या विभिन्न मंचों पर बुद्धिजीवी शासन व्यवस्था पर चर्चा करते रहते हैं। अखबारों में छपी आधी-अधूरी जानकारियों से ये चर्चाएँ सारोबार रहती हैं। शासन में बैठे लोगों द्वारा ‘मेनेज्ड’ इन जानकारियों से भ्रमित वातावरण का निर्माण हो जाता है और लगभग सभी लोग उस भ्रम में डूबते नजर आते हैं। कभी उन्हें अशोक गहलोत की ‘जादूगरी’ का भ्रम होता है, तो कभी वसुन्धरा राजे के ‘चमत्कार’ नजर आने लगता है। ऐसा ही है न। 60 वर्ष का हो जाने पर हम किसी नागरिक से बात की गहरी समझ की अपेक्षा करते हैं। तो क्या हमारे 60 वर्षीय लोकतान्त्रिक जनमानस से हमें ऐसी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए कि वह कम से कम हमारी अर्थव्यवस्था की कुछ आधारभूत जानकारियाँ रखे। फिर इन्हें समझे और शासन व्यवस्था के प्रति अपना विचार बनाये। तब इस पर बोले। शायद हमारे प्रदेश और देश के विकास की दिशा में यह एक सार्थक कदम होगा। यह जिम्मेदारी की पहचान होगी, नागरिकता का अहसास होगा।
राजस्थान के बजट (2011-12) की सरल भाषा में समीक्षा प्रस्तुत है। कुछ पाठकों के लिए ‘बोर’ या अरुचि का विषय हो सकता है, परन्तु मेरा विनम्र आग्रह है कि अनमने भाव से ही सही, इसे एक बार पढ़ा जाये। हमारे जीवन का यह महत्वपूर्ण पक्ष अभी भी लगभग अनछुआ है, लेकिन समस्याओं की गहराई के तल में यही है। हमारे द्वारा खर्च किये गये या कमाये गये प्रत्येक पैसे का यह साझा हिसाब है। यह किसी सरकार-वरकार का नहीं हमारा अपना पैसा है। यह हमें मान लेना चाहिये, तभी हम लोकतन्त्र की पहली सीढ़ी चढ़ पायेंगे। हो सकता है, इससे राजस्थान में सकारात्मक चिन्तन का मार्ग बन सके।
बजट में क्या होता है?
हम में से कुछ लोग अपने घर का वर्ष भर का लेखा जोखा करते हैं। शायद कुछ लोग, एक-दो प्रतिशत ही ऐसा करते होंगे! ऐसा ही है, हम लोग हिसाब-किताब में ज्यादा पड़ते नहीं है। यह गैर जिम्मेदारी घर से ही शुरू हो जाती है। ये लाइनें लिखते-लिखते तो मुझे भी शर्म आ रही है। मैं इस महीने से ही इसमें कुछ सुधार कर लूँगा। आप भी कोशिश करें।
घर के हिसाब-किताब में दो मुख्य बातें होती है। आय और व्यय। आमदनी और खर्च। पैसा कहाँ से आता है और कहाँ जाता है। पास में पैसा कितना जमा है और कितना उधार ले रखा है या उधार लेना है।
इसी प्रकार हमारे शासन के लिए जिम्मेदार लोग, प्रदेश-देश का बजट तैयार करते हैं। वर्ष भर काम कैसे चलाना है, इसका खाका बनाते हैं। आमदनी के लिए जनता पर कर लगाये जाते हैं और जब जरूरतें करों से पूरी नहीं होती, तो उधार भी ले लिया जाता है। इस उधार लेने को ‘विकास का लक्षण’ बताकर बरसों से अर्थशास्त्री मूर्ख बनाने में निपुण भी हो चले हैं। विकास के लिए उधार लेने में माहिर हो गये हैं। इस उधार से दो शिकार एक साथ हो जाते हैं। विकास का नाम भी हो जाता है, तो जनता को कर कम लगाने का कहकर लोकप्रियता भी मिल जाती है। वैसे कोन जनता इन करों का हिसाब लगाने बैठी है। जनता द्वारा दिये गये कर का मात्र 10 प्रतिशत ही खजाने में पहुँच पाता है।
खर्च करने की मद में पहली प्राथमिकता शासन को रोजमर्रा के खर्चे हैं। जो है, उसे चलाने की व्यवस्था करनी है। अगर गलती से कुछ पैसा बच जाये,तो कुछ नया किया जा सकता है। यह कभी कभार ही सोचा और किया जाता है। हमारी अधिकांश आमदनी शासन व्यवस्था को पालने में ही चली जाती है।
कभी मुझे लगता है कि अधिकांश भारतीय जनता (तथाकथित पढ़े-लिखों सहित) बच्चों की तरह व्यवहार करती है। बच्चे को मोबाइल चाहिये, मोटरसाईकिल चाहिये। चाहे माँ-बाप कहीं से उधार लेकर ही दे दें। उन्हें तनिक भी फर्क नहीं पड़ता कि उनकी बचकानी जरूरतों से घर की स्थिति पर कितना गलत असर पड़ेगा। इसी प्रकार अपरिपक्व लोकतन्त्र से घिरी हमारी जनता भी व्यवहार करती है। ‘सरकार’, ‘सरकार’ करती रहती है। जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता कि खजाने में पैसा है या नहीं। ‘सरकार’ सम्भालने वाले नेता भी मसत रहते हैं। वे भी जो कुछ पास है, उसे एक हाथ से लुटाते हैं, तो दूसरे हाथ से अपनी जेब में डालते रहते हैं। जनता कहती है ‘सरकार’ हमारी नहीं, नेताओं की है, और नेता भी ‘सरकार’ को पराया समझकर उसकी इज्जत से खेलते रहते हैं। बेचारी सरकार अनाथ हो जाती है। कोई तो उसे अपना कहे! आज हम इस सरकार को अपनाकर देखते हैं। अपना मानकर देखते हैं। कैसा लगता है, यह देखते हैं।
बजट सत्र में क्या होता है?
आजकल की भाषा में तो बजट सत्र में केवल बॉयकाट, गाली-गलौच या धक्का-मुक्की ही होती है। परन्तु संविधान निर्माताओं ने कुछ और सोचा था। उन्हें गलतफहमी थी कि अंग्रेजों से सत्ता हमारे हाथों में आयेगी, तो हम अपने देश को ठीक से चलायेंगे। उन्हें यह गुमान था कि देश-प्रदेश के वार्षिक लेखे-जोखे पर हमारे जनप्रतिनिधि चर्चा करेंगे और तब जाकर एक बजट प्रस्ताव पास होगा।
होना तो यही चाहिये कि वित्तमंत्री द्वारा तैयार बजट के प्रत्येक विषय पर चिन्तन-मनन हो। लेकिन राजस्थान की कहानी ही दूसरी है। पिछले भाजपा शासन या वर्तमान कांग्रेस शासन में भरोसे लायक या योग्य वित्त मंत्री ही नहीं मिला। स्वयं मुख्यमंत्री ही यह कार्य करते हैं। 199 विधायकों में से एक भी ऐसा नहीं, जो राजस्थान की वित्त व्यवस्था सम्भाल सके। इतने बुरे हाल होंगे, यह किसने सोचा था। इसे यूं कह सकते हैं कि राजस्थान की वित्त व्यवस्था अफसरों के भरोसे पर है। मुख्यमंत्री का तो केवल नाम रखा है। जैसा अफसर बजट बना देते हैं, वैसा मुख्यमंत्री पढ़ देते हैं।
अभी तो यह हाल है कि बजट को अधिकतर पढ़ा हुआ मान लिया जाता है। किसे फिक्र है, बजट की। जनता ने वोट ही जातिवाद, सामंतवाद या यूं ही मजे-मजे में दिये हैं, तो इस बजट-वजट में क्या रखा है? हाँ, अगर संयोग से बजट में किसी विधायक के क्षेत्र का जिक्र आ गया तो, वह चिल्ला-चिल्ला कर इसे अपनी उपलब्धि बता देता है। मीडिया एक बन्धुआ वाचक की तरह तैयार रहता ही है। व्यवहार में यही बजट सत्र रह गया है, सिद्धान्त में चाहे जैसा लिखा हो।
बजट की शब्दावली
ज्यादा भारी शब्द नहीं है। थोड़ा गम्भीरता से समझेंगे, तो स्वत: स्पष्ट हो जायेंगे। समझने आवश्यक है, ताकि हम बजट की व्याख्या कर सकें, उसका मर्म पकड़ सकें। यह गणित या अंग्रेजी जैसा कठिन विषय नहीं है। इससे बचना छोड़ दीजिये, राजस्थान में नया सवेरा दिखाई पडऩे लगेगा। बहुत हम अपनी जिम्मेदारी से भागते रहे हैं, अब यह और नहीं करियेगा। नहीं तो इस बेरूखी की सजा सदियों तक हमारी पीढिय़ाँ भुगतेंगी और अमेरिका या योरोप की गुलामी का एक नया दौर शुरू हो जायेगा। मेरे एक-एक शब्द के गहरे मायने हैं।
बजट में दो प्रकार के खाते होते हैं – आमदनी का और खर्च का। आमदनी में राजस्व और पूँजी को शामिल किया जाता है। राजस्व यानि कर और कर-भिन्न राजस्व। कर राजस्व में राज्य सरकार के अपने कर होते हैं और इनके साथ केन्द्र सरकार द्वारा वसूले गये करों में हमारा हिस्सा होता है। हमारे अपने करों में बिक्री कर, शराब पर कर, परिवहन कर, भू-राजस्व और मुद्रांक व पूंजीकरण के कर शामिल होते हैं। केन्द्र सरकार के करों में कॉरपोरेशन (निगम) कर, आय कर, एक्साइज (उत्पाद) कर, कस्टम (सीमा शुल्क) तथा सेवा कर होते हैं। इन केन्द्रीय करों में से हमें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर हिस्सा दिया जाता है। ये सिफारिशें, हमारे प्रदेश के आकार, जनसंख्या, वित्तिय अनुशासन, विशेष स्थितियों आदि को ध्यान में रखकर की जाती है।
कर-भिन्न राजस्व में शासन द्वारा दी जाने वाली सेवाओं का शुल्क शामिल होता है। जैसे खनिज या पेट्रोल-गैस पर लगने वाली रॉयल्टी, स्कूल, हॉस्पिटल, पानी आदि पर लिया जाने वाला शुल्क।
राजस्व की तीसरी मद में केन्द्रीय शासन द्वारा दिये जाने वाले सहायतार्थ अनुदान होते हैं। अलग-अलग योजनाओं में हम केन्द्रीय सहायता का जो शब्द सुनते हैं, वह यही है।
इसे पुन: संक्षेप में दोहरा लें। हमारी आमदनी के राजस्व खाते में चार मदें हो गयी। हमारे अपने कर, केन्द्रीय शासन द्वारा वसूले गये करों में हमारा हिस्सा, कर-भिन्न राजस्व और सहायतार्थ अनुदान।
आमदनी में दूसरा खाता होता है, पूंजी का। पूंजी शब्द को हम व्यवहार में खूब काम में लेते हैं। पूंजी से हमारा अर्थ अधिकतर जमा रकम (घर में या बैंक में) से होता है। सोना भी पूंजी ही होता है। यहाँ शासन में उधार को भी पंूजी में गिना जाता है। आपसे मैंने पैसे उधार लिये हैं, तो ये मेरी पूंजी में गिन जायेंगे। पराया माल अपना! अपने राजस्थान के बजट में पूँजी का एक ही मतलब है, पराया माल। आगे देखते हैं।
खर्च हम दो तरह से करते हैं। एक योजनाबद्ध तरीके से, दूसरा बिना योजना के। हम घर में जब चाय-शक्कर लाते हैं, पेट्रोल गाड़ी में डलवाते हैं, या बच्चों की स्कूल फीस देते हैं, तो यह गैर योजनागत खर्च हो जाता है। जब हम मकान बनवाते हैं, शादी करते हैं या गाड़ी खरीदते हैं, तो इसके लिए योजना बनानी पड़ती है। बीबी-बच्चे बड़े टी.वी. की जिद कर दें, तो आपको योजना बनानी है। अब इस योजना के पास आपके लिए पूंजी हो तो ठीक है, वरन् उधर लो। बच्चों को क्या फर्क पड़ता है? बस कुछ ऐसे ही हमारे प्रदेश की योजनाएँ बना करती हैं और चला करती हैं। सडक़ की, पानी की, शिक्षा की या स्वास्थ्य की योजनाएँ इसी प्रकार बनती हैं। अभी तो ये सब उधार से ही चल रही हैं।
गैर योजना खर्च में शासन के आवश्यक खर्च हुआ करते हैं। वेतन, ऑफिस के खर्चे, मंत्रियों-विधायकों की मौज मस्ती, विदेशी दौरे, शासकीय भोज, बाग-बगीचों का रख-रखाव। सब आवश्यक-अनावश्यक, जरूरी या गैर-जरूरी खर्च गैर योजना में आता है।
अंग्रेजी राज में हमारी आमदनी का 80 प्रतिशत गैर योजना पर खर्च होता था, जिसका हम खूब रोना रोया करते थे। विकास के नाम पर अंग्रेज कम खर्च करते थे। आज भी राजस्थान की आमदनी का 70 प्रतिशत हिस्सा गैर योजना पर खर्च हो रहा है। नये अंगे्रजों (काले अंग्रेजों) ने अपनी अंग्रेजीयत कायम कर रखी है। आगे आँकड़ों (पृष्ठ 6) से स्पष्ट हो जायेगा।
बजट की व्याख्या
(1) हमारी कुल आमदनी 64097.97 करोड़ (उधार सहित) का अधिकांश भाग 44712.61 या 69.75 प्रतिशत (या 70 प्रतिशत) गैर योजना में खर्च हो जाता है, जो विकास के रास्ते में बड़ी बाधा है। गुजरात में इसका उल्टा है। वहाँ की कुल आमदनी में से 70 प्रतिशत भाग योजनाओं पर खर्च होता है।
(2) हम पहले से ही एक लाख करोड़ के कर्ज तले दबे हैं, जिसका इस वर्ष ब्याज 8012.48 करोड़ देना पड़ेगा। मूल उधार के पेटे भी हमें साढ़े तीन हजार करोड़ देने पड़ेंगे।
(3) हमारी 2011-12 की वार्षिक योजना 28461.30 करोड़ रूपये की बनी है। हमारे प्रत्येक मुख्यमंत्री इसके आकार बढऩे पर प्रत्येक वर्ष डींगें मारते हैं, जैसे उन्होंने कमाल का चिन्तन कर ऐसा किया हो। हर बार कहते हैं-अब तक की सबसे बड़ी योजना। होगी ही। मंहगाई जो बढ़ रही है। लेकिन देखिये। उनसे पूछें कि क्या आपके पास 28461.90 करोड़ रूपये हैं। वे कहेंगे हमारे पास कुछ भी नहीं है। उधारी से जुटाये 16587.10 करोड़ रूपयों का जिक्र ऊपर बजट में है। बाकी का क्या करोगे? जापान, जर्मनी, विश्वबैंक आदि से अलग से उधार लेंगे! पूरी दुनिया में घूम जायेंगे, हमारे अफसर और नेता। कटोरा लेकर। यह रकम 11874.00 करोड़ रूपये होगी। ब्याज की दर लगभग 8 प्रतिशत रहेगी। इसे दूसरे रूप में समझें। आपने अपना बड़ा घर बनाने, गाड़ी खरीदने की योजना बना ली हो। पास में पूँजी कुछ भी नहीं। केवल लोन के भरोसे। लोन भी इतना कि आपकी आमदनी में से बचत करके ब्याज चुकाना भारी पड़े। क्या होगा आपके परिवार का? जमीन और जमीर बिकेगा।
बात उधार लेने मात्र की नहीं। बात यह है कि क्या इस उधार से हम ऐसा काम शुरू कर पायेंगे, जिससे हमारे प्रदेश की आमदनी बढऩे की सम्भावना है। उतनी आमदनी बढऩे की, जिससे हम उधार भी चुका सकें और कुछ पैसा अपनी स्वयं की पूँजी के रूप में बचा सकें। शायद ऐसा नहीं सोचा जा रहा है। और हम हैं कि रात-दिन व्यर्थ की बहस में थूक उछाल रहे हैं और स्याही खराब कर रहे हैं। घर लुट रहा है और हम उस लूट पर वाह-वाह कर रहे हैं। वसुन्धरा के शासन में यही तो हो रहा था। पैसा कहाँ से आया था? गहलोत के शासन में भी यही हो रहा है। फर्क इतना है कि तब हल्ला हो रहा था, अब चुपचाप काम हो रहा है। मीडिया मेनेजमेन्ट और धारणाओं के दलालों (ओपिनियन मेकर्स) का खेल निराला होता है।
(4) शराब की बिक्री से मात्र 2623 करोड़ मिल रहे हैं, जो 64 हजार करोड़ के बजट में खास मायने नहीं रखता है। इससे दस गुना शराब तो अभी भी अवैध बिक रही है। लेकिन इस 2600 करोड़ के फायदे के मुकाबले नुकसान कितना है? कितने लोग बीमार होकर मर रहे हैं, कितने काम पर नहीं जा रहे, कितने बचपन में खत्म हो रहे हैं, कितनी हत्याएँ हो रही है, आमजन रात में बाहर जाने से घबराता है। शायद 50 हजार करोड़ का नुकसान प्रतिवर्ष हो रहा होगा! बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों को झूठे तर्कों का सटीक जवाब देना चाहिये।
गहलोत और वसुन्धरा राजे
पिछली 3 सरकारों में राजस्थान की राजनीति एवं शासन के इन दो कर्णधारों के बारे में भी कुछ बातें स्पष्ट हो जायें, क्योंकि हमारे पास फिलहाल कोई तीसरा विकल्प भी नहीं है। इन दोनों व्यक्तियों की राजस्थान को आगे ले जाने की सोच कैसी है?
वसुन्धरा राजे के बारे में अखबारों में और चौपालों पर एक धारणा आम है कि उनके शासन में जनता आराम से रही और विकास के अनेक कार्य हुए। लोकतंत्र में धारणाएँ तथ्यों से ज्यादा महत्वपूर्ण रहा करती हैं। और राजे के मीडिया मैनेजरों और धारणा बनाने वाले दलालों (ओपीनियन मेकर्स) ने उनके प्रति सकारात्मक धारणा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। सामन्त परस्त जनता को एक महारानी के दर्शन उन्होंने बखूबी करवाये हैं और उसके दोनों हाथों से धन लुटाने की कहानी को खूब प्रचारित किया है। वैसे भी बचपन से हमारी कहानियाँ दानवीर राजाओं और सेठों से भरी पड़ी रहती हैं। यह कोई नहीं कहता कि उनके पास जमा यह धन हमारा ही तो है, जिसे लुटाने का मजा वे ले रहे हैं। इतनी बचकानी मानसिकता ने पिछले कई वर्षों से राजस्थान के जनमानस को जकड़ रखा है। कोई नहीं पूछता कि राजस्थान की आमदनी कितनी बढ़ी है, राजस्थान के कृषि और उद्योग का उत्पादन कितना बढ़ा है। केवल उधार के पैसों से सडक़ों और नौकरियों पर बेइंतहा खर्च को भोली जनता ने विकास मान लिया है। हमारे बुद्धिजीवी भी हल्की-फुल्की अखबारी खबरों से ऐसी धारणाओं को हवा दे रहे हैं। वे भी कहते रहते हैं – पता नहीं राजे इतना पैसा कहाँ से लाई। अब जब आप बजट के कागजों को ही पढऩे में रूचि नहीं लेते हैं, तो कैसे पता लगेगा कि यह पैसा कहाँ से आया? एक बार ढंंग से इन कागजों को पढि़ए, तस्वीर स्पष्ट हो जायेगी।
यही हाल अशोक गहलोत का है। गांधीवादी कहे जाने वाले गहलोत ने गांधीजी की एक भी बात पर अमल नहीं किया है। किसानों की बात करने में तो उनको वैसे भी शर्म आती है, कुटीर उद्योगों की भी वे बात नहीं करते। गाँव-कस्बों में फैले छोटे एवं घरेलू उद्योगों को विकास का वास्तविक इंजन बनाने की महात्मा गांधी की धारणा से उन्हें कोई मतलब नहीं है। वे तो केवल अपनी जादूगरी से राज में बने रहने में निपुण हो गये हैं। जनता कहती है कि वे मितव्ययी हैं, कंजूस हैं, परन्तु असल बात यह है कि उनके पास राजस्थान के उत्पादन को बढ़ाकर विकास करने की कोई दृष्टि नहीं है, इच्छाशक्ति नहीं है।
राजे हो या गहलोत, राजस्थान के गाँव-गाँव में और कस्बे में बैठे किसानों और कारीगरों के लिए अभी तक कोई पुख्ता योजना नहीं बन पाई है। जैसे तैसे राज चल रहा है। नरेन्द्र मोदी जिस तरह गुजरात को विकास के असल रास्ते पर आगे ले जा रहे हैं, वैसा साहस, दृष्टि, संवेदना और जनसमर्थन ना तो राजे के पास है और ना गहलोत के पास। मोदी जिस प्रकार गुजराती भाषा में आम जनता से संवाद करते हैं या अपनी मंशा जताते हैं, वैसा राजे और गहलोत कभी भी नहीं कर सकते। अपेक्षा करते हैं कि राजे और गहलोत को हमारे बुद्धिजीवी गम्भीरता से सोचने को मजबूर करें।
अभिनव राजस्थान में क्या होगा?
अब आते हैं, समाधान की तरफ। अभिनव राजस्थान अभियान में आलोचना का मार्ग न अपनाकर विश्लेषण का मार्ग चुना गया है। विश्लेषण हमने कर दिया। अब समाधान भी होना चाहिए, वरन् हम भी स्याही और समय का नुकसान करेंगे।
(1) अभिनव राजस्थान में बजट पर व्यापक सार्वजनिक बहस होगी। यह अभी नहीं हो रहा है। आम आदमी हो या बुद्धिजीवी, कब और कैसे बजट बनता है, उनको पता ही नहीं रहता है। खबर बजट पेश होने पर ही पता चलती है। बजट में भी उनकी रूचि केवल कुछ वस्तुओं पर टैक्स बढऩे या घटने तक सीमित रहती है और अखबार बता देते हैं कि अमुक वस्तु पर टैक्स बढऩे से यह अब महंगी हो जायेगी। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे आर्थिक जीवन से जुड़े इस महत्त्वपूर्ण सालाना दस्तावेज के प्रति हम गम्भीर नहीं है। साठ वर्षों के लोकतंत्र के बाद भी हमने बजट जैसे विषय को समझा तक नहीं है और सरकार-सरकार चिल्लाते रहते हैं। सरकार यह नहीं कर रही, सरकार वो नहीं कर रही। जैसे सरकार से हमारा कोई रिश्ता ही नहीं है। हम सरकार के मालिक होकर भी भिखारियों की तरह मांगें करते रहते हैं। जैसे कोई फैक्ट्री का मालिक अपने मैनेजर से मांग करता है। आप हँसेंगे कि यह तो मूर्खता है, फैक्ट्री के मालिक का दिमाग खराब हो गया है। लेकिन हमें नहीं पता कि हम भी यही कर रहे हैं और हमारी मेहनत, हमारी कमाई से चलने वाली सरकार को किसी और की मानकर कृपा दृष्टि चाह रहे हैं। उनसे जो हमारे पैसे पर पलते हैं।
(2) आमदनी बढ़ाने के उपायों को अभिनव राजस्थान में मुख्य स्थान इसी वजह से दिया जायेगा। गाँवों-कस्बों में खेती और उद्योग से उत्पादन बढ़ाकर राजस्व बढ़ाने पर जोर दिया जायेगा। योजनाओं में कृषि एवं उद्योग पर वर्तमान में 1 से 3 प्रतिशत तक ही खर्च किया जा रहा है। आप सोच सकते हैं कि शासन कितनी उपेक्षा उत्पादन के क्षेत्रों की कर रहा है। अभिनव राजस्थान में 20-20 प्रतिशत इन क्षेत्रों को आवंटित कर वर्तमान राजस्व से कई गुना बढ़ोतरी की जायेगी। राजस्व बढ़ेगा, तो योजनाओं पर खर्च करने में सहूलियत रहेगी। गैर योजना खर्च को कम करने की बजाय उसका सदुपयोग उत्पादन बढ़ाने में सुनिश्चित किया जायेगा। वर्तमान में इस खर्च को समस्या बताकर पल्ला झाड़ा जा रहा है, और नौकरियों पर अनकहा प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। ठीक उसी प्रकार जैसे जनसंख्या को समस्या कहा जा रहा है। काम देकर जनशक्ति नहीं बनाया जा रहा है।
अभी नरेगा में खड्डे खुदवाकर वाहवाही लूटी जा रही है। लेकिन इतना पैसा खर्च होकर भी शासन की आमदनी नहीं बढ़ रही है। इतना पैसा, खेती और लघु उद्योगों-कुटीर उद्योगों में लगेगा, तो निश्चित ही आमदनी गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे बढ़ेगी। भूमिहीनों को रोजगार ही देना है तो इन क्षेत्रों में देना चाहिए।
(3) राजस्थान के व्यापारियों व उद्यमियों को उनका अपना शासन और पारदर्शी व समर्पित शासन होने का भरोसा दिलाया जायेगा। इससे वे कर जमा कराने में कम कोताही बरतेंगे। जैसे वे धर्मशालाओं, सन्तों-फकीरों, मन्दिरों-मस्जिदों, गौशालाओं को दिल खोलकर चन्दा देते हैं, वैसे ही शासन को कर के रूप में हाथ खोलकर सहयोग करेंगे। लेकिन यह तभी होगा, जब शासन के प्रति आमजन में अपनत्व का भाव जगेगा। फिर अपने घर को कौन नुकसान पहुँचाना चाहेगा। या कह सकते हैं कि राष्ट्रीयता की भावना प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक जगत में जग जायेगी और मजबूत राजस्थान और भारत के लिए सभी जुट जायेंगे।
(4) योजनाओं का सरलीकरण करके प्रत्येक गाँव-कस्बे शहर की वास्तविक प्रगति सुनिश्चित की जायेगी। इसके लिए प्रत्येक गाँव-कस्बे-शहर द्वारा दिये गये टैक्स के अनुपात में वहाँ की स्थानीय आवश्यकताओं पर खर्च किया जायेगा। अभी तो हमें पता ही नहीं चलता कि हम खजाने में कितना जमा कर रहे हैं और हमारी सुविधाओं पर खर्च कितना हो रहा है। प्रत्यक्ष हो रहे, दिखाई दे रहे खर्च से भी टैक्स देने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। छोटा सा उदाहरण काफी है। नागौर जिले के मकराना क्षेत्र के लोग करोड़ों रूपये की खनिज रॉयल्टी व आयकर देते हैं, परन्तु आज भी पीने के लिए फ्लोराइड युक्त खारा पानी है, कॉलेज नहीं है,ख् स्कूलों व अस्पताल की स्थिति शोचनीय है, सडक़ों का हाल खराब है। कैसा कनेक्शन है, टैक्स और जनसुविधाओं में।
(5) खर्च की बजाय बचत को सामाजिक क्षेत्र में अधिक महत्व दिया जायेगा। इससे घर-घर, गाँव-गाँव में बचत की लहर चलेगी और राजस्थान की अपनी पूँजी खड़ी हो जायेगी, जैसे अभी गुजरात में या दूर योरोप-जापान में खड़ी हो गयी है। यह निहायत गम्भीर विषय है। हमें समझना होगा कि हम सब परिवार मिलकर एक बड़े परिवार (राजस्थान) की रचना करते हैं। हम बचत करेंगे, पैसा जमा करेंगे, तो राजस्थान की पूँजी बढ़ेगी, जिससे हम विकास के असली मार्ग पर चल पायेंगे। हमें बाहर से पैसे उधार लेने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। आप सोचिये कि जब हम अपने विभिन्न सामाजिक समारोहों में फिजूल खर्ची करते हैं तो क्या होता है? हमारे पास पूँजी नहीं बचती है। वर्तमान में राजस्थान के लोगों की कुल बचत से गुजरात की कुल बचत लगभग 20 गुना अधिक है। वहाँ पर लोग सामाजिक समारोहों पर दिखावा और फिजूलखर्ची कम करते हैं और अपनी पूँजी खड़ी करने में विश्वास रखते हैं। हमें भी उसी रास्ते पर चलना होगा। तभी हमारे बजट में पूँजी खाता मजबूत होगा। हमें उधार के पैसे और उस पर लगने वाले ब्याज से राहत मिलेगी।
यही एक रास्ता है आर्थिक मजबूती का। वरन् गैर जिम्मेदाराना शासन हमारे प्रदेश और देश के भविष्य को अंधेरी गली पर ले जाकर छोड़ देंगे। बुद्धिजीवी वर्ग को इसके लिए सजग रहना और करना होगा।
वर्ष 2011-12 का बजट – 64 हजार करोड़ का हिसाब (सभी आँकड़े करोड़ों में)
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आमदनी
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खर्च
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कर राजस्व (52287.36)
राज्य के अपने कर 21349.45
बिक्री कर 13490.00
शराब पर कर 2623.00
मुद्रांक/पंजीकरण 1900.00
परिवहन कर 1650.00
बिजली पर शुल्क 846.64
अन्य 643.75
केन्द्रीय करों में हिस्सा (15443.61)
निगम कर (कॉरपोरेशन) 6239.54
आयकर 3068.93
सीमा शुल्क (कस्टम) 2614.68
उत्पाद शुल्क (एक्साइज) 1994.19
सेवा कर 1514.53
अन्य 11.74
कर भिन्न राजस्व (6438.13)
अन्य कर भिन्न राजस्व 5170.53
(खनिज (1999),
पेट्रोलियम गैस आदि (38.38),
फीस स्कूल, पानी)
ब्याज प्राप्ति 1299.22
डिविडेंड और लाभ 38.38
सहायतार्थ अनुदान 9056.17
पूँजीगत प्राप्ति (11810.61)
रिकवरी 167.79
आंतरिक उधार 9379.36
केन्द्र से उधार 819.53
सार्वजनिक खाता 1438.08
अन्य 585
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गैर योजना खर्च (44712.61)
राजस्व खर्च 33211.31
(शासन चलाने का खर्च)
ब्याज का भुगतान 8012.48
पूँजीगत खर्च 3488.82
(पिछली उधारी चुकाने में खर्च)
योजनागत खर्च 16587.10
केन्द्रीय योजनाओं में हिस्सा राशि 2699.11
राजस्व 52287.36
पूँजी 11810.61
कुल आमदनी 64497.97
कुल खर्च 63998.82
बजट सरप्लस 99.15 (उधार के पैसे को अपना बताकर)
बजट के इन आँकड़ों में योजनाओं के लिए ली जाने वाली बाहरी सहायता का तो जिक्र नहीं है। 2011-12 की वार्षिक योजना के लिए लगभग 12 हजार करोड़ रूपये ऊँची ब्याज दरों पर लिये जायेंगे, जिसका जिक्र इस बजट में नहीं है। इस कर्ज से हम पर ब्याज देने का भार अगले वर्ष और बढ़ जायेगा। अब तक हम एक लाख करोड़ के कर्ज के तले दबे पड़े हैं और कहीं से भी हमारे प्रदेश में पूँजी निर्माण करने की आवाज नहीं उठ रही है। कब तक हम उधार लेकर हमारी इस बैलेन्स शीट को दुरस्त बताते रहेंगे।
स्पष्ट है कि प्रदेश में बचत के एक बड़े आन्दोलन की आवश्यकता है ताकि अपनी ही पूँजी से विकास के मार्ग पर चला जा सके। इसके लिए गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे में लोगों को बचत करने के लिए प्रोत्साहित करने का कार्य अभिनव राजस्थान में किया जायेगा। आँकड़ों की जादूगरी से आगे निकलकर हमें वास्तविकता का सामना करना होगा। दूसरी ओर हमारे उत्पादन को बढ़ाकर राजस्व प्राप्ति में वृद्धि करनी होगी।
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