मूल विषय
समाज के लिए आवश्यक ज्ञान के सृजन के लिए किसी भी काल में निम्न पांच मूल प्रश्नों पर ध्यान देना होता है –
१. समाज की वर्तमान एवं भविष्य की आवश्यकताओं के लिए कैसे ज्ञान का सृजन हो?
२. शिक्षा केन्द्रों की रचना कैसी हो?
३. शिक्षकों की क्षमता कैसी हो?
४. शिक्षा प्रदान करने एवं उसे परखने(परीक्षा) के तरीके कैसे हों?
५. सृजित ज्ञान का उपयोग कैसे हो?
शिक्षा का विषय इतना ही है। इतना सरल। इन प्रश्नों के उत्तरों में ही सारे समाधान छुपे हैं। लेकिन जैसा हमारे देश में अन्य विषयों के साथ हो गया है, वैसा ही शिक्षा के साथ भी हुआ है। राजनीति में जन कल्याण के अतिरिक्त सभी कार्य होते हैं, तो धर्म में अध्यात्म को छोड़ कर बाकी सभी नाटक होते हैं। सामाजिक क्षेत्र में समाज के किसी व्यक्ति के दुःख में साथ नहीं दिया जाता है, परन्तु समाज के नाम पर उसे ठगा हर मोड़ पर जाता है। आर्थिक क्षेत्र में समाज के धन को आगे न बढ़ाकर शोषण के माध्यम से व्यक्तिगत संपत्ति को बढ़ाने का कोई भी अनैतिक काम कर लिया जाता है। ग्राम विकास के नाम पर खेती को छोड़ कर बाकी सभी बातें हो जाया करती हैं!
शिक्षा के क्षेत्र में भी यही गड़बड़ हो गयी है। अधिकांश शिक्षा केन्द्रों में समाज के लिए आवश्यक ज्ञान सृजन करने के अलावा सभी कार्य हो रहे हैं। स्कूलों में खाना पक रहा है और कॉलेजों में चुनाव सबसे आवश्यक कार्य मान लिया गया है। ज्ञान सृजन का मूल कार्य कहीं पिछड़ गया है। यही तो वजह है कि शिक्षा केंद्र से बाहर निकलते ही विद्यार्थी भ्रमित सा, घबराया सा समाज में प्रवेश करता है। अगर वह उचित और उपयोगी ज्ञान के साथ बाहर आये तो उसकी हालत यह नहीं होगी। समाज को जिस ज्ञान की आवश्यकता है, अगर वह ज्ञान हमारा विद्यार्थी व्यावहारिक रूप से प्राप्त करे तो उसका आत्मविश्वास अलग ही होगा। तभी शिक्षा सार्थक कहलाएगी।
समाज के लिए आवश्यक ज्ञान
अभिनव राजस्थान में इसी कारण से ऊपर वर्णित मूल प्रश्नों की बात की जा रही है। और इन प्रश्नों में पहला और महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि हमारे समाज को, या कहें हमारे देश-प्रदेश को किस प्रकार के ज्ञान की आज आवश्यकता है। कैसे नागरिक तैयार करने हैं? आजादी मिलते ही इन आवश्यकताओं का आकलन हमें वैसे ही करना था, जैसे मैकाले ने किया था। मैकाले को अँग्रेज़ी हुकूमत को कायम रखने के लिए आवश्यक ज्ञान के सृजन का काम बताया गया था। यानि अंग्रेजी समाज के हित के लिए आवश्यक ज्ञान का सृजन भारत में करना था। मैकाले ने वैसा शिक्षा तंत्र डिज़ाइन कर दिया। इससे अँग्रेज़ों को शासन में आसानी रही। लेकिन १९४७ के बाद हमें भारतीय हितों के लिए आवश्यक ज्ञान का सृजन करना था। इसके लिए आवश्यक नए शिक्षा तंत्र की रचना हमें करनी थी। लगता है कि हम वह काम नहीं कर पाए। बस इतना ही यह विषय है, जिसे हम समझेंगे और अभिनव राजस्थान में नया तंत्र रच देंगे तो समाधान निकल जायेगा। अभिनव राजस्थान में यह होगा तो फिर देश के दूसरे प्रदेश भी इस दिशा में आगे बढ़ेंगे। पूरा भारत नया शिक्षा तंत्र अपनाएगा।
समाज के लिए आवश्यक ज्ञान के लिए हम पाठ्यक्रम तैयार करते हैं। यही पहला कदम होता है। पाठ्यक्रम से ही हम तय करते हैं कि शिक्षा केन्द्रों में किस प्रकार का ज्ञान सृजित होगा। यही सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय होता है। सबसे महत्त्वपूर्ण। यही कुंजी है जिससे किसी भी देश-प्रदेश के विकास के, समृद्धि के द्वार खुलते हैं। और अगर हम गलत कुंजी से ये द्वार खोलना चाहेंगे तो क्या होगा। यही तो वर्तमान में हो रहा है। अब देखिये न राजस्थान में क्या हो रहा है?
वर्तमान स्थिति
- ७० प्रतिशत बच्चे राजस्थान में इतिहास पढ़ रहे हैं। आपको लगता है कि इतिहास के ज्ञान का इतना अधिक प्रतिशत हमारे लिए आज आवश्यक है?
- कृषि, बागवानी और पशुपालन के क्षेत्रों पर हमारे ७० प्रतिशत लोगों का जीवन आधारित है, लेकिन राजस्थान में इन क्षेत्रों से जुड़े विषयों का शिक्षा तंत्र में १ प्रतिशत से भी कम हिस्सा है। क्या इन क्षेत्रों का उत्पादन बिना इन क्षेत्रों के आधुनिक ज्ञान के बढ़ना संभव है?
- पाठ्यक्रम का कोई निश्चित क्रम नहीं है। लगभग सभी विषयों की सामग्री माध्यमिक और उच्च शिक्षा की कक्षाओं में एक जैसी लगती है। विलोम शब्द पाँचवी में भी पढ़ने हैं तो १५वीं में भी पढ़ने हैं। कोशिका के बारे में जानकारियां १०वीं में वही हैं जो उच्च शिक्षा में। कुल मिलकर बिना किसी क्रमिक विकास के, जैसे तैसे खानापूर्ति की जा रही है। ऐसे में ज्ञान के विकास का कोई क्रम नहीं बन पाता है। बुद्धि का निखरना नहीं हो पाता है।
- विषयों का चयन भी यहाँ त्रुटिपूर्ण रहता है। शिक्षा शास्त्री कहते हैं कि नीचे से ऊपर की कक्षाओं में बढ़ते समय विषयों की संख्या कम होने से विशेषज्ञता का विकास होता है। विशेष ज्ञान पर विद्यार्थी केंद्रित होता जाता है। लेकिन यहाँ तो थोड़ा-थोड़ा सब ठूंसने के चक्कर में विशेष ज्ञान की जगह सामान्य ज्ञान से पाठ्यक्रम को भर दिया गया है। नतीजा यह होता है कि बरसों की पढ़ाई के बाद भी विद्यार्थी को ऐसा कोई ज्ञान नहीं हो पाता है, जिससे वह अपना और अपने परिवार का पेट भर सके। वह तो बस केवल पढ़ा लिखा कहलाता है।
- ज्ञान के हमारे सृजन में व्यावहारिकता पर ध्यान न देने की आजकल आत्मघाती परिपाटी चल पड़ी है। पाठ्यक्रम में व्यावहारिक ज्ञान का वजन धीरे-धीरे कम किया जा रहा है। छोटी कक्षाओं से ही। क्यों? क्योंकि नीतिकारों का कहना है कि व्यावहारिक ज्ञान के मूल्यांकन में शिक्षक पक्षपात करते है। इस पक्षपात को रोकने के उपाय करने की बजाय हमने व्यावहारिक ज्ञान को ही विदा कर दिया। प्रतियोगी परीक्षा के मूर्खता पूर्ण जाल में विद्यार्थियों को फंसा कर शिक्षा केन्द्रों की रौनक ही खत्म कर दी। विद्यार्थी कहते हैं, क्या करना है वहां? क्या फायदा कक्षाओं में बैठने का ? जब शिक्षा केन्द्रों के अंकों का कोई महत्त्व ही नहीं रह गया है तो क्यों विद्यार्थियों में और क्यों वहां के शिक्षकों में कोई रुचि रहेगी? इससे अधिक घातक बात किसी समाज के लिए या देश-प्रदेश के लिए क्या होगी। अब देखिये, साहबज़ादे अंग्रेजी में एम.ए. हैं पर चार लाइनें अंग्रेजी में बोल नहीं पाते हैं। सिविल इंजीनियर हैं पर अपना घर नहीं बना सकते हैं। बी.कॉम. हैं पर दुकान नहीं चला सकते हैं, कोई सरकारी नौकरी ढूँढ़ते फिरते हैं।
अभिनव राजस्थान में
तो अभिनव राजस्थान में क्या होगा? समाधान होगा। पक्का समाधान। ऐसा समाधान कि शिक्षा केंद्र से निकला विद्यार्थी अपने ज्ञान से आत्मविश्वासी होगा। समाज में आएगा तो नयी सोच के साथ, समाज को आगे बढ़ाने के निश्चय के साथ। यही तो हम शिक्षा से चाहते हैं। और इसके लिए पाठ्यक्रम (सिलेबस) पहला महत्त्वपूर्ण निर्णय होगा। अभिनव राजस्थान का पाठ्यक्रम ऐसा होगा-
१. अभिनव राजस्थान में प्राथमिक विद्यालय तक गणित, भाषा और कला-खेल के विषय होंगे। माध्यमिक शिक्षा में कला, खेल, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, गणित, वाणिज्य, कृषि, कम्प्यूटर, हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत तथा फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश, चीनी, अरबी, फारसी भाषा के वैकल्पिक विषय होंगे। उच्च शिक्षा के पहले चरण(११वीं व १२वीं )में केवल दो विषय होंगे। दो-दो विषयों के समूह में से ही अपनी १०वीं की मैरिट एवं अभिरुचि के अनुसार चयन करना होगा। जैसे, भौतिकी-गणित, इतिहास-राजनीति शास्त्र, लेखा शास्त्र-व्यावसायिक प्रबंध, संगीत कला-चित्र कला, कबड्डी-खो खो आदि। ये विषय बाद में बदलने की अनुमति नहीं होगी।
१३वीं से १६वीं में केवल एक विषय होगा। भाषा, प्रशासन, प्रबंध, इतिहास, मेडिकल, इन्जीनियरिंग, भूगोल, नृत्य, वॉलीबॉल आदि। चार वर्षों के इस कोर्स में से चौथे वर्ष में विषय से जुड़े क्षेत्र में जाकर काम करना होगा, जिसके लिए बाकायदा विद्यार्थी को मानदेय मिलेगा।
२. उच्च शिक्षा में विषयों का अनुपात इस प्रकार होगा-
विज्ञान ३०%
कृषि विज्ञान २०%
कला एवं खेल ३०%
वाणिज्य २०%
३. सभी विषयों में व्यवहारिक (प्रेक्टिकल) कार्य का महत्व सैद्धांतिक जानकारियों के बराबर होगा। इतिहास में भी, तो गणित में भी। कला में भी, तो खेल में भी। भाषा में भी ,तो विज्ञान में भी। शिक्षकों द्वारा पक्षपात के नाकारा तर्क को किनारे रख कर पुनः आंतरिक और व्यावहारिक मूल्यांकन को प्रत्येक कक्षा की परीक्षा में ५०% वजन दिया जायेगा। यानि हिंदी की डिग्री लेने वालों को लेखन और व्याकरण में महारत हासिल करनी ही होगी। रसायन विज्ञान के ज्ञाता को जनोपयोगी परीक्षणों और दवाओं का ज्ञान होना ही चाहिए। मेकैनिकल इन्जीनियरिंग पढ़े छात्रों को कार और ट्रैक्टर ठीक करना आना ही चाहिए। तभी तो सार्थक शिक्षा का हमारा सपना पूरा होगा।
४. सभी विषयों के पाठ्यक्रम में सरलता से जटिलता की तरफ बढ़ने का निश्चित क्रम होगा। पुनरावृत्तियों की, दोहराने की प्रथा समाप्त होगी। विलोम शब्दों से प्रारंभ हिंदी की यात्रा कहानियों के लेखन तक पहुंचेगी। भूगोल में पृथ्वी की बाहरी रचना से आगे खनिजों तक बात जायेगी। जीव विज्ञान में कोशिका से चलकर बीमारियों तक की पढ़ाई भी एक क्रम में होगी।
५. शोध एवं अनुसन्धान पाठ्यक्रम का जीवंत भाग बनेंगे। उच्च शिक्षा के पहले चरण से ही विद्यार्थियों में शोध की प्रवृत्ति जगाने के प्रयास शुरू हो जाएंगे। कक्षा १३ से तो पढ़ाई शोध पूर्ण माहौल में ही होगी। तभी तो विशेषज्ञता भारत में असली रूप में निखरेगी वरन् चोरी की थीसिस से कब तक दुनिया को मूर्ख बनाते रहेंगे। और कब तक नालंदा और तक्षशिला को भूल कर हम हार्वर्ड और केम्ब्रिज की गाथाएँ गाते रहेंगे।
अभिनव राजस्थान का यह पाठ्यक्रम बन कर जब लागू होजायेगा, तब शिक्षा जगत की नीरसता टूटेगी और ज्ञान की गंगा से सारा समाज एक बार फिर प्राचीन भारत की तरह समृद्धि के नए स्वर्णिम दौर में प्रवेश करेगा। लेकिन केवल आयोग बैठने से यह काम नहीं होगा। मजबूत इच्छा शक्ति और समर्पित नेतृत्व से ही यह संभव होगा और अभिनव राजस्थान में इसकी कोई कमी नहीं होगी।
वंदे मातरम्
किया किया लिख्ते हो हम तो दीवाने आपके