हे मेरे शिक्षक मित्रों
मैं जानता हूँ कि आप में से अधिकांश शिक्षक इसलिए हैं कि आप डॉक्टर, इंजीनियर नहीं बन सके। आप आई.ए.एस. या आर.ए.एस. नहीं बन पाये। हो सकता है आप तो थानेदार बनने को भी राजी थे, पर न बन पाये। आपके माँ-बाप का सपना भी आपको शिक्षक बनाने का नहीं रहा था। क्योंकि हमारे समाज में भी ऐसा माहौल नहीं है कि शिक्षक बनने पर आपके घर-परिवार के लोग गर्व से भर जायें। जैसा न्यूजीलैंड या अमेरिका में आज भी होता है। या जैसा कभी अपने भारत में भी होता था या ‘अभिनव राजस्थान’ में होने वाला है।
मैं यह भी जानता हूँ कि आपकी मानसिकता में शिक्षक होना एक ‘नौकरी’ है। राजतंत्र में भी शिक्षक नौकर नहीं था, मार्ग दर्शक था। लेकिन अपने लोकतंत्र में वह अन्य सरकारी बाबुओं जैसा नौकर है। अरे! बाबुओं जैसा नौकर ही नहीं, बाबुओं की भी डांट खाता नौकर! इधर शिक्षक ‘वेतन’ भी पाता है, जबकि उसे दी जाने वाली आधुनिक गुरु दक्षिणा को ‘मानदेय’ कहना चाहिये था। शिक्षक को हम वेतन कैसे दे सकते हैं? उसकी सेवा का मूल्य कैसे आँका जा सकता है? फिर भी आधुनिक भारत में हमने यह भी कर दिखाया है। अब तो हमारे यहाँ माँओं की कोख की भी कीमत दी जाने लगी है। जी हाँ, आजकल कोख भी खरीदी जाने लगी है!
मैं हैरान हूँ कि अब प्रारंभिक शिक्षा हमारी प्राथमिकता नहीं रह गयी है। उच्च शिक्षा का हम पहले ही गला घोंट चुके हैं और हमने कॉलेज-यूनिवर्सिटी को सार्वजनिक उद्यान बना डाला है। जब मर्जी आओ और चले जाओ। और तो और, प्रारंभिक शिक्षा के केंद्रों को भी हमने लंगरखाने में बदल दिया है। आओ, खाओ और जाओ। आप लोगों को शिक्षक से रसोइया बनाने का कमाल इस भारत में ही सम्भव था। कुछ दिन आप लोग बिदके थे, परन्तु सहनशीलता के पारंपरिक भारतीय भाव को जगा कर अब आपने समझौता कर लिया है। देशी-अंग्रेज जैसा कहें, मान लो। यहाँ तक कि आप में से अधिकांश ने तो मिड-डे-मिल में से अपना ‘हिस्सा’ निकालना भी सीख लिया है। नीतिकार यही चाहते थे कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध स्कूल-कॉलेज से आवाज न आये। क्योंकि आज तक यहीं से गलत व्यवस्था की चूलें सबसे पहले हिला करती थीं। दूसरी ओर बाकी गाँव वालों के मुँह में नरेगा की हड्डी डाल दी गयी है। चूसते रहो, बोलो मत।
मैं जानता हूँ कि शिक्षा की नीति बनाने में केवल तीन वर्गों से ही सलाह नहीं ली जाती है। एक शिक्षक वर्ग, दूसरा अभिभावक वर्ग और तीसरा विद्यार्थी वर्ग। नीति बनाने वालों के बच्चे सरकारी विद्यालयों में नहीं पढ़ते हैं। नेता और नीति का तो अब सम्बन्ध टूट चुका है, परन्तु आई.ए.एस. यह तय करते हैं कि क्या पढ़ायें, कैसे पढ़ायें। आपको तो बस उनकी सोच के साथ चलना है। नीति पर सवाल नहीं उठाने हैं। ज्यादा सवाल उठाये, तो आपको जवाब के रूप में डांट, सजा या स्थानान्तरण मिल सकता है। आपको यह शायद मालूम हो गया है। इसीलिए तो आप शिक्षा की नीतियों पर चुपचाप हँसते रहते हैं, जैसे ये नीतियाँ पाकिस्तान के लिए या चीन देश के बच्चों के लिए बनती हैं। देश गर्त में जाये, तो हमें क्या? हमारा ‘वेतन’, हमारी ‘नौकरी’, हमारा ‘घर’, हमारे ‘बच्चे’ पहले हैं, देश बाद में। यही नहीं आपके संगठनों का काम अब नीति में दखल देना नहीं है, केवल वेतन बढ़ाने के लिए संघर्ष करना है। शिक्षकों में भी ‘नेता’ पैदा हो गये हैं, जो अन्य नेताओं की राह पर चल पड़े हैं।
मैं यह भी देखता हूँ कि आपके विद्यालयों का निरीक्षण करने अब स्कूल इंस्पेक्टर कैसे आते हैं? क्या करते हैं? मुझे यह भी मालूम है कि अन्य विभागों के अधिकारी भी जब तब आपके केन्द्रों पर ‘निरीक्षण’ करने आ जाते हैं, आपको डांट जाते हैं। आपको अहसास करवा देते हैं कि आप उनसे कम ‘देशभक्त’ हैं। तभी तो आपके काम पर निगरानी रखनी पड़ती है। यह बात अंग्रेज भी बार-बार जताया करते थे और अँग्रेजों के ये वंशज अभी भी उस कार्य शैली को चला रहे हैं। यह बात और है कि कलक्टर, एसडीएम या तहसीलदार स्वयं के कार्यालयों के बुरे हाल हैं। लेकिन ‘राजा’ को नंगा कौन कहे? नये राजाओं को तो नंगा कहना दूर उनकी तरफ सीधा देखना भी पसन्द नहीं है। ऐसे में आपकी घुटन समझी जा सकती है, परन्तु आप भी तो किसी ‘अवतार’ की प्रतीक्षा में है। कोई अवतार हो और आपको इस लज्जा और अपमान भरी स्थितियों से छुटकारा दिला दे।
मैं समझ सकता हूँ कि आधुनिक नेताओं का कितना भय आपके मनों पर छाया रहता है। सरपंच से लेकर मंत्री तक आपको चाबुक लिये रिंग मास्टर की तरह दिखाई देते हैं, जो भारत के इस ‘शेर’ को काबू में करने लगे हैं। सर्कस में देखते हैं न कि कैसे जंगल का राजा रिंग मास्टर के सामने दुबक जाया करता है। गुलामी के सघन प्रशिक्षण से यह संभव हो जाता है। अब हमारे शेरों ने (शिक्षकों ने) भी रिंग मास्टरों के सामने नजरें झुका ली हैं, और उन्हें साफ़े पहनाना शुरू कर दिया है। उनके पैर छूने शुरू कर दिये हैं। यही नहीं प्रधानाध्यापकों की वाक् गोष्ठी की अध्यक्षता अनपढ़ प्रधान कर लेता है। अब शेर से कोई डर नहीं है, क्योंकि वह तो ‘डिजायर’ के लिए रिंग मास्टर को पीठ पर बैठा कर सवारी भी करवा सकता है!
मैं यह भी खबर रखता हूँ कि निजी क्षेत्र में भी आपको राहत नहीं मिली है। निजीकरण का भारत में सीधा अर्थ शोषण की छूट होता है – नियमों से दूर, कल्याण की भावना से दूर। यह प्रत्येक क्षेत्र में हो रहा है। फैक्ट्रियों-कम्पनियों में मज़दूरों-कर्मचारियों का शोषण, अखबारों में पत्रकारों-हॉकरों का शोषण, अस्पतालों में डॉक्टरों, नर्सों का शोषण। बस शोषण ही शोषण, ताकि मालिक के लाभ में अधिक से अधिक वृद्धि की जा सके। हमने शोषण के विरुद्ध संविधान में कई पन्ने लिखे भी थे, परन्तु आजाद भारत में सरकारी संस्थाओं को संभाल नहीं पाये, तो इन्हें बाजार के नापाक हाथों में सौंप दिया। समाजवाद को असफल बता कर देश को पूंजीवाद को समर्पित कर दिया। यहाँ तक पूरे देश को लूटने की छूट विदेशियों को 80 के दशक से ही दे दी। अधिकांश निजी विद्यालय भी यही कर रहे हैं। शिक्षक की मजबूरियों का फायदा उठा रही हैं तो अभिभावक को भी छल रही है। विद्यार्थी को भी यहाँ कम्पीटिशन के झाँसे में डालकर कला और खेल से दूर कर दिया गया है।
मैं यह भी पीड़ा झेल रहा हूँ कि आपके मूल्यांकन पर भी प्रश्न चिह्न लगा पड़ा है। कहा गया है कि आप पक्षपात कर देते हैं। जैसे इस भारत में आप लोग ही पक्षपात करते हैं। अन्य सभी विभाग तो गीता या कुरान की कसम के आधार पर चल रहे हैं। विश्वविद्यालय का प्रोफेसर पक्षपात कर सकता है, लेकिन आर.पी.एस.सी. या यू.पी.एस.सी. का सदस्य ऐसा नहीं कर सकता। पता नहीं यह कैसी धारणा और उसका कैसा प्रयोग है? यही वजह है कि अब पक्षपात कम करने के लिए परीक्षा पर परीक्षा आयोजित की जा रही है। प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार सी.एन.आर.राव ने तो परेशान होकर इस ‘शिक्षा प्रणाली’ को ‘परीक्षा प्रणाली’ तक कह डाला है। शिक्षक पर अविश्वास का परिणाम यह निकला है कि भ्रम की स्थिति बन गयी है।
मैं यह जानकर परेशान हूँ कि अब आपका अधिकांश समय मोबाइल पर बातें करने में गुजर रहा है। साहित्य से आप दूर हो गये हैं। अपने बच्चों को भी निजी विद्यालयों में भेजकर आप उस रेस्टोरेंट के मालिक जैसे हो गये हैं जो अपने रेस्टोरेंट में कभी खाना नहीं खाता। आपने मान लिया है कि आपकी आवाज, तूती की आवाज, नक्कारखाने में कौन सुनेगा। नक्कारखाना ? हाँ जहाँ नगाड़े बजा करते हैं! हमारे नक्कारखाने में नेता स्कोर्पियो लेकर यहाँ से वहाँ साफे बाँधते घूम रहे हैं, वे पूँजीपतियों व विदेशियों के साथ मिलकर विकास का आधारभूत ढाँचा (अधरभूत ढाँचा!) बना रहे हैं। ढाँचा अधर है और भूत की तरह दिखाई नहीं दे रहा है। वहीं हमारे बच्चे मोबाइल और कम्प्यूटर पर गेम खेल रहे हैं, ‘कुछ-कुछ’ देख रहे हैं। अफसर ‘रौब’ मारने में लगे हैं। बुद्धिजीवी ‘चोर-चोर’ चिल्ला रहे हैं। ‘कोई पकड़ो’, ‘कोई पकड़ो’ कह रहे हैं, परन्तु घर से बाहर आने से डरते हैं। कहीं ‘लू’ न लग जाये, ‘सर्दी’ न लग जाये। वे किसी और के घर से ‘भगत सिंह’ के निकलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जो उनका जीवन आनंदमय कर दे। और तब भी वे ‘भगत सिंह’ की कार्यशैली पर प्रश्न चिह्न लगाने, उसकी नीयत पर शक करने और उसकी असफलता की भविष्यवाणी करने की कुंठित मानसिकता का आनन्द भी नहीं खोना चाहते हैं। ऐसे नक्कारखाने में आपकी आवाज दब कर रह गयी है। आपकी आवाज यानि देश की आत्मा की आवाज।
फिर भी मैं यह मानता हूँ कि मानव सभ्यताओं में परिवर्तन की लहर ‘कैम्पस’ से ही पैदा होगी। भले आज कतिपय कारणों से यह लहर नहीं उठ पा रही। जैसे कई बार मानसून नहीं आ पाता है, माहौल नहीं बन पाता है। लेकिन जब भी मानसून अपने वेग से आता है, तो पूरी सृष्टि को ताजा कर जाता है। ऐसा ही होता है जब कैम्पस से, शिक्षा केन्द्रों से परिवर्तन की, सुधार की लहर उठती है। तब भारत, यूनान, रोम, चीन, मिश्र आदि को विकसित सभ्यताएँ कहा जाने लगता है। तब तक्षशिला और नालंदा के चाणक्य नये तंत्र बनाकर खड़े हो जाते हैं। द्रोणाचार्य और वशिष्ठ बनकर हमें अर्जुन और राम दे देते हैं। कृष्ण बनकर ‘गीता’ की रचना कर देते हैं। तब ईसा, मूसा, बुद्ध, महावीर और कन्फ्यूशियस अवतरित हो जाते हैं। बीज कभी नहीं मरते। तभी तो डॉ. राधाकृष्णन और ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आधुनिक भारत में भी अपनी विद्वता से नये आयाम स्थापित कर देते हैं।
मेरा यह स्पष्ट मानना है कि आप लाख छुपायें, आपके अंदर मौजूद शिक्षक की आत्मा छटपटाती तो है। यह काम ही ऐसा है। विचित्र भाव आ ही जाते हैं, जब आप खुद को शिक्षक या चिकित्सक कहते हों। आप उस भाव से बच नहीं सकते। मन्दिर में जाते ही, दरगाह में, गुरुद्वारा-गिरजाघर में जाते ही सिर झुक ही जाता है। वैसे ही शिक्षक, विद्यार्थी को सामने देखकर और चिकित्सक मरीज को देखकर अंदर से बदल जाता है। बाहर से वह भले ही कैसा व्यवहार करे, अंदर कुछ और चलता रहता है। और उसी ‘अंदर’ पर अभिनव राजस्थान अभियान का ध्यान है।
लेकिन मैं यह भी स्पष्ट कर दूँ कि अंतिम समाधान राजनैतिक ही है। समाज के सब काम बँटे होते हैं। सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्रों की ज़िम्मेदारियों को सभी सभ्यताओं में अलग-अलग लोग और समूह उठाया करते हैं। हाँ, सब में स्वस्थ समन्वय हो तो सभ्यता ठीक से चलती है, देश समृद्ध बना रहता है, विकास करता रहता है। इसलिए नेताओं को शासन के शीर्ष पर रहना ही होगा। बस राजनीति की जगह लोकनीति और राजनेताओं की जगह लोकनेता भारत में स्थापित होंगे, क्योंकि, अब यहाँ लोकतंत्र है, राजतंत्र नहीं। लेकिन केवल राजनेताओं की या अधिकारियों की आलोचना या उनसे घृणा हमारा समाधान नहीं है। हमें ऐसा माहौल बनाना है, जनजागरण करना है, कि वे सभी लोकतंत्र के रंग में ढल जायें। और शिक्षक की, कैम्पस की भूमिका यही होती है समाज में। इसी तरफ आपको ले जा रहा हूँ। ‘अभिनव राजस्थान अभियान’ का स्नेह भरा आमंत्रण है आपको। सकारात्मक, सृजनात्मक जनजागरण के लिए, जनजागरण से स्वशासन और स्वशासन से विकास के लिए।
डॉ. अशोक चौधरी
बहुत अच्छा और दिल को छूता लेख है… आपके अंदर मौजूद शिक्षक की आत्मा छटपटाती तो है।शिक्षक के भीतर का दर्द उछल रहा है.गहरी बातें हैं .शुक्रिया