एक प्यारी सी कल्पना, जिसका पूरा होना मुश्किल नहीं है।
एक प्यारा सा सपना, जिसका साकार होना ही अन्तिम समाधान है।
दृश्य 1
जयपुर जिले का एक उच्च प्राथमिक विद्यालय, रामपुरा गाँव का। अभी-अभी क्षेत्र के तहसीलदार औचक निरीक्षण पर आये थे। गाँव के कई मनचले और स्वयंभू ‘नेता’ भी तमाशा देखने जुट गये थे। ‘नेताओं’ को यह नहीं पता कि उनके बच्चे कौन सी कक्षा में पढ़ते हैं, परन्तु वे शिक्षकों की कार्यशैली और क्षमता पर अच्छे विचार नहीं रखते हैं। उनके बच्चे तो निजी स्कूल में पढ़ते हैं। तो तहसीलदार अपनी चिरपरिचित अकड़ में गाड़ी से उतरते हैं और स्कूल में प्रवेश कर जाते हैं। बिना बात किये, बिना समझे सीधे शिक्षकों पर चढ़ बैठते हैं।
जैसे एक थानेदार, क्षेत्र के अपराधी से बात करता हो। उपस्थिति रजिस्टर देखते हैं, तो परेशानी हो जाती है। सभी शिक्षक उपस्थित। इधर-उधर झांकते हैं और नरेगा के मज़दूरों की तरह ‘हाजिरी’ लेने लगते हैं। मजा किरकिरा होने का अंदेशा हो रहा था। ऐसे में छात्रों की उपस्थिति देखते हैं, तो कुछ छात्र-छात्राएँ अनुपस्थित पाये जाते हैं। बस सवाल-जवाब शुरू। ऐसे कैसे चलेगा? मुफ्त की तनख्वाह लेते हो। बच्चों को समझाओ, उनके माता-पिता को समझाओ। ऐसे में एक शिक्षक नवीन शर्मा हिम्मत करके बताते हैं कि अभी बारिश का मौसम है, बच्चे खेतों में अपने माता-पिता का सहयोग करने चले जाते हैं। छोटे भाई-बहनों को रखने की जिम्मेदारी भी निभाते हैं और पालतू जानवरों को भी चराते हैं। आप समझ गये होंगे कि जवाब में तहसीलदार क्या बोले होंगे। हाँ, उन्होंने नवीन जी को अधिक होशियार नहीं बनने की नसीहत अपने अंदाज दे डाली। सस्पेंड कर दूँगा, ट्रांसफर कर दूँगा, की चिरपरिचित शब्दावली का बाकी शिक्षकों पर भी खासा असर दिखाई दे गया, गर्दनें झुक गयी। तभी पोषाहार के निरीक्षण की बारी आयी। इतने बच्चे कम हैं और खाना सबसे हिसाब से कैसे बन गया? सभी अध्यापक चुप हैं। सब कुछ जानते हुए और ईमानदार होते हुए भी चुप हैं। कैसे बतायें कि महँगाई के इस दौर में एक बालक को 3-4 रुपये में पौष्टिक आहार कैसे मिल सकता है?ï वे कैसे कहें कि पोषाहार की सप्लाई करने वाला ठेकेदार क्या-क्या खेल करता है? वे कैसे कहें कि इस सब पर भी आँखें मूँदकर वे बच्चों के लिए अच्छा खाना तैयार करने के लिए इस पवित्र झूठ का सहारा लेते हैं कि संख्या अधिक है? गलत नीतियों के तले दबा शिक्षक सच बोले तो मरा, झूठ बोले तो मरा। और यही तो सामान्य प्रशासनिक अधिकारी और नेता चाहते हैं। शिक्षक की, गुरु की ऐसी परीक्षा कलयुग में ही सम्भव है, वरन् सतयुग में शिष्यों की, परीक्षाओं की ही कहानियाँ सुनी जाती थीं। खैर! तहसीलदार अब संतुष्ट थे। शिक्षकों के काम से नहीं, उनकी ‘चोरी’ पकड़े जाने से। घूर कर उन्होंने अब नवीन जी को देखा। सिर झुकाये नवीन जी घुटन, मजबूरी और विद्रोह के भावों को एक साथ गटक गये। नये अंग्रेज की ज़हरीली मुस्कान चुभ रही थी। मनचले पास में खड़े-खड़े हँस रहे थे। शिक्षकों को अपराधी बना देखना अब सबको सुहाता भी है। तहसीलदार चेतावनी देकर चले गये। ‘आईन्दा’, ‘काम चोरी’, ‘सीनाजोरी’ जैसे शब्दों के तीर भेद गये। कुछ शैतान बच्चे भी मंद-मंद मुस्करा रहे थे। नवीन जी ही उनको गुटखा नहीं खाने के उपदेश देते थे। तहसीलदार के निरीक्षण की खबर मीडिया में अगले दिन छपनी ही थी। ‘पोषाहार की जाँच में गड़बड़’, ‘शिक्षकों की पिलाई लताड़’, ‘कार्रवाई की दी चेतावनी’ आदि शीर्षकों से यह खबर अलग-अलग अखबारों में छपी। पता नहीं, सुबह-सुबह इन शिक्षकों के घर वालों की नज़रों में, मोहल्ले वालों की नज़रों में क्या दिखाई दिया होगा। शिक्षकों के बच्चों ने अपने माता-पिता को किस बेरहमी से देखा होगा।
दृश्य 2
स्कूल में अगले दिन अध्यापक जुटे, तो विश्लेषण स्वाभाविक था। गाँव के मनचलों ने भी रास्ते में ताने कसे ही थे। इधर जिन शिक्षकों ने तहसीलदार को समझाने की कोशिश नहीं की, वे खुश थे कि उन्हें डाँट नहीं खानी पड़ी। नवीन जी पर सबको तरस आ रहा था। संदीप जी ने सबसे पहले हमदर्दी दिखाई। बोले, ‘‘यार! तुम्हें क्या पड़ी थी बीच में बोलने की। प्रधानाध्यापक जी थे न बोलने को।’’ मोबाइल पर बतियाती भावना जी ने मोबाइल पर हाथ रखकर अपने कमेन्ट्स सधे हुए शब्दों में दे दिये। ‘‘मैं तो शुरू से ही इस झंझट में नहीं पड़ती। चुपचाप सुन लो, तनख्वाह से मतलब रखो। यह व्यवस्था हमसे तो सुधरनी नहीं है।’’ मनोहर जी और श्याम जी कुछ नहीं बोले। अशफाक जी ने जरूर तहसीलदार के बर्ताव को गलत बताया। ‘‘हमारी ग़लतियाँ निकालते हैं, कभी देखा है अपने कार्यालय का हाल? बँटवारे की फाइल लेकर जाओ, तो कैसे ऊँचे-नीचे होते हैं, वहाँ के बाबू और खुद तहसीलदार भी। हमें ईमानदारी सिखायेंगे।’’ इतने में प्रधानाध्यापक जी भी आ गये। उन्हें पता था कि क्या ‘चिंतन’ चल रहा है। बोले, ‘अरे भाई! अधिकार है, उनको अधिकार है, कि हमें डाँटे। आजकल ये ही माई बाप है। वे भी तो कलक्टर से डाँट खाते हैं। इस नयी सामन्तवादी व्यवस्था में राग तो पुराने ही हैं न। राजा, सामंत, कारिंदे। अपनी-अपनी कक्षा में जाओ। ’
दृश्य 3
लेकिन नवीन जी चुप थे। रात भर जगने का असर उनकी आँखों में था। और जब आदमी रात भर जगकर किसी समस्या पर चिंतन करे, तो समाधान किस खेत की मूली है। उसे निकलना पड़ेगा। वे मध्यांतर के इंतजार में कक्षा में चले गये। और जब मध्यांतर में शिक्षक मंडली जुटी, तो एक चाणक्य स्कूल में जन्म ले चुका था। अब नवीन जी ने एक ही साँस में सब कह डाला। वैसे भी सभी मित्र नवीन जी की चुप्पी टूटने की प्रतीक्षा कर ही रहे थे। उनकी प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आयी थी। नवीन जी बोले, ‘‘मुझे तहसीलदार से अब कोई शिकायत नहीं है। वह भी तो एक बड़ा नौकर, बाबू है। उसके साथ भी रोज यही होता है। लेकिन हम तो नौकर नहीं है। हमने अपने आपको नौकर मान रखा है, वरन् शिक्षक भी कभी नौकर होता है क्या? वह तो गुरु होता है, अपने शिष्यों के दिलो-दिमाग का राजा। समाज की आशा का झरना। अब वह अपना मोल कम करके आंकेगा, तो दुनिया भी उतना ही मोल करेगी। सम्मान माँगा थोड़े ही जाता है। माँगने पर मिलता भी नहीं है। सम्मान तो अर्जित करना पड़ता है। और हम तो सम्मान प्राप्त करने के कई तरीके विद्यार्थियों को बताते भी हैं। क्या हमने एक भी तरीका आज़माया है?’’
नवीन जी के इस नये अवतार से सब स्तब्ध थे। संदीप जी, मनोहर जी, श्याम जी और अशफाक भाई हमदर्दी के भाव से बाहर आकर गम्भीर होने लगे थे। ऐसा लगा कि उनके भी मन में दबी राख गरम होने लगी थी। सरिता जी और भावनाजी ने भी पहली बार मोबाइल बंद कर दिये। नवीन जी की बात का जाने क्यों चुम्बकीय प्रभाव सब तरफ छा रहा था। स्कूल के प्रधानाध्यापक भी पास में कुर्सी लेकर बैठ गये। दिखावा ऐसे कर रहे थे, जैसे वे नहीं सुन रहे हैं, परन्तु सब सुन रहे थे। उन्होंने आज नवीन जी के इस रूप को सुबह ही भाँप लिया था। संदीप जी तो बच्चों को शोर नहीं मचाने के लिए भी कह आये थे।
नवीन जी की बात जारी थी। ‘‘आज मैंने एक योजना बनाई है। इसे पूर्ण करना ही होगा। बहुत सुन लिया, शिक्षक निकम्मे हैं, राष्ट्र निर्माता नहीं रहे, कर्त्तव्य भूल गये हैं। अब इस पर विराम लगा कर रहेंगे। मैंने पढ़ा था कि जापान में जब मजदूर विरोध करते हैं तो उत्पादन अधिक कर देते हैं। उत्पादन भी बढ़ जाता है और सरकार की आँख भी खुल जाती है। अपने गाँधी जी भी यही कहकर गये हैं कि सत्याग्रह से उपेक्षा, घृणा और अपमान पर जीत हो जाया करती है। लेकिन हम एक अलग तरह का सत्याग्रह करेंगे। कोई माँग नहीं, कोई अनशन नहीं। देखिये न हम वैसे भी मोबाइल पर फालतू बातें करते रहते हैं। एसएमएस लिखते रहते हैं, पढ़ते रहते हैं। स्तरहीन बातें। कभी अन्ना हज़ारे को समर्थन दो, कभी रामदेव को। कभी माता जी को समर्पित एसएमएस दस मित्रों तक भेजते हैं और अगले को भी ऐसा नहीं करने पर नुकसान की धमकी देते हैं। कभी नेताओं और अफसरों द्वारा देश लूटे जाने के काल्पनिक आँकड़ों में समय खराब कर देते हैं। लेकिन इस बार मोबाइल का अलग ही उपयोग करेंगे। प्रदेश भर के शिक्षकों को हम एक संदेश पहुँचायेंगे। ‘अपने सम्मान को बचाने के लिए पढ़ाने में जुट जाओ।’ हम ऐसा माहौल बना देंगे कि जिधर देखो पढऩे-पढ़ाने की लहर चल पड़ी है। हम बच्चों को पढ़ाने में जोरदार तरीके से जुट जायेंगे। स्कूल तो आते ही हैं, तो पढ़ाने में क्या नुकसान। एक-एक बच्चे को प्यार से समझायेंगे, पढ़ने की उत्सुकता जगायेंगे। मैं निश्चिंत हूँ कि ऐसा होते ही हमको डाँटने वाले अफसरों-नेताओं की हालत खराब हो जायेगी। अखबारों के तोते उड़ जायेंगे। हम उन्हें कहेंगे अब लिखो, क्या लिखना है। अब जुटाओ ऐसे लेखक, कुतर्क शास्त्री, जो कह दें कि यह भी एक साज़िश है। नक्सलवाद जैसी भावनाएँ भड़काई जा रही है। लिखो और भड़काओ, अभिभावकों को कि अपने बच्चों को इन मास्टरों से दूर रखें। बिगड़ने का खतरा हो गया है।’’ बोलते-बोलते नवीन जी का चेहरा तमतमा गया था।
संदीप जी ने रोका, तो जैसे सभी चौंके। वरन् वे सभी तो बह चुके थे भावों में। शिक्षक की आत्मा हिलने लगी थी। संदीप जी बोले, ‘‘लेकिन नवीन जी, ऐसी लहर थोड़े ही चल सकती है, इस देश में कहाँ हैं वो मादा। कहाँ है वह सोच, जो जापान या इजराइल या न्यूजीलैण्ड में है।’’ संदीप जी को लगा, जैसे वे बहुमत की बात कर मैदान मार चुके थे। अक्सर कई लोग समाज में परिवर्तन को रोकने के लिए ऐसी निष्क्रिय ‘समझदारी’ दिखाया करते हैं। ऐसा थोड़े ही होगा, धीरे-धीरे होगा जैसी बातें कहते हैं। लेकिन नवीन जी टस से मस नहीं हुए। श्रोता शिक्षकों की आँखें फिर से उन पर टिकी थी। वे बोले ‘‘ऐसा क्यों हो नहीं सकता। जब क्रिकेट, गुटखा और मोबाइल की लहर चल सकती है, तो यह क्यों नहीं हो सकता। माहौल का ही तो कमाल है। हमारा काम माहौल बनाना ही तो है। अपने स्वार्थ के लिए वेतन बढ़ाने के लिए भी तो हम जब-तब माहौल बनाते रहते हैं। लोगों को तो यह भी वहम रहता है कि हम सरकारें बनाते-बिगाड़ते हैं। तो फिर अपने सम्मान के लिए हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते ? सम्मान से बढ़कर दुनिया में क्या चीज होती है?’’
पता नहीं किस भाव से नवीन जी ने यह सब कहा कि रामपुरा स्कूल के सभी शिक्षक उनकी बात मान गये। प्रधानाध्यापक जी सहित एक स्वर में सबने कहा- ‘‘रामपुरा की स्कूल को आदर्श बनाकर कर रख देंगे और साथ ही प्रदेश भर में ‘सम्मान के लिए मौन क्रांति’ भी कर देंगे।’’ रामपुरा के 7 शिक्षक और एक प्रधानाध्यापक का प्रण। चमत्कार हो गया।
दृश्य 4
प्रदेश में जैस कुछ घट रहा है। गाँव-गाँव में कुछ हलचल है। झुंझुनूँ से बाँसवाड़ा तक और बाड़मेर से अलवर तक। एक एसएमएस की चर्चा है। गाँवों में लोग अनुमान लगा रहे हैं। गाँव के ‘नेता’ कह रहे हैं कि सरकार ने ज्यादा सख्ती कर दी है, इसलिए सारे मास्टर दौड़े-दौड़े स्कूल आ रहे हैं। परन्तु गाँव के कई ‘होशियार’, ‘ग्रामीण पत्रकार’ उनसे जब पूछते हैं कि स्कूल आ रहे हैं, यह तो समझ में आ रहा है, परन्तु इतने ध्यान से पढ़ा क्यों रहे हैं, यह समझ से बाहर है। नेता कन्नी काट जाते हैं। उन्हें भी लग रहा है कि जब सबको पास करना वैसे भी जरूरी है, तो फिर इस पढ़ाने की लगन का क्या मकसद। उन्हें लगता है कि जाकर मास्टरों को डाँट आयें कि बच्चों को बिगाड़ोगे क्या? परन्तु हिम्मत नहीं हो रही। प्रशासनिक अधिकारियों की भी जमीन खिसकी हुई है। ऐसे तो अफसर होने का मजा ही जाता रहेगा। स्कूल और अस्पताल ठीक से चल गये, तो वे करेंगे क्या? अपने स्वयं के काम में तो उन्हें वैसे भी रूचि नहीं है। दूसरे विभागों में टाँग अड़ाने का अपना अलग मजा है। जिम्मेदारी भी नहीं और रौब मारने का मजा। अफसर भी इसीलिए तो बनते हैं, सेवा किसे करनी होती है। उधर अखबार परेशान हैं, परन्तु मजबूरी है, अच्छे को कब तक नकारेंगे। तर्क शास्त्री प्रयास कर रहे हैं कि ‘कुछ’ ढूंढा जाये, इस ‘मौन क्रांति’ को नकारा जाये, परन्तु जन समर्थन उबलता देख उन्हें भी हाथ जलने का खतरा लग रहा है। अब बी बी सी भी बोल गया है कि राजस्थान में कुछ घट गया है।
उधर ग़रीबों की आँखें छलक रही हैं, क्योंकि उनके ही तो बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इन ग़रीबों की दुआएँ शिक्षकों के घरों तक पहुँच रही है। उनके खुद के बच्चे भी अपने शिक्षक माता-पिता में आये परिवर्तन से खुश हैं और जबरदस्त अध्ययन करने लगे हैं। अमीर परेशान हैं कि ऐसे तो पासा पलट जायेगा। ‘पैसा’ गौण हो गया है। निजी स्कूलों में पढ़ाने का ‘स्टेटस’ अब जाता रहेगा। ‘सुभाष चन्द्र बोस’ गाँवों में पैदा हो गये, तो काले अंग्रेज कैसे राज कर पायेंगे?
और शिक्षकों का तो जुनून देखते ही बन रहा है। अब वे अकड़ कर गाँवों में जा रहे हैं। गाँव के लोगों ने उन्हें आँखों पर जो बैठा रखा है। वे ‘दिलों के राजा’ फिर बन गये हैं। स्कूलों में पौधे लग रहे हैं, खेल के मैदान संवर रहे हैं। वे अपने वेतन में गरीब बच्चों की पेन्सिलें ला रहे हैं। अब उनके बच्चे केवल वे ही नहीं है, जो उनके घर में रहते हैं। उनका परिवार बड़ा हो गया है। अब यहाँ अवतारों की आवश्यकता नहीं है। अन्ना या बाबा की जरूरत नहीं है। गाँव-गाँव में चाणक्य अवतरित हो गये हैं। शायद, इतना ही समाधान था, जिसे ढूंढने में हमें कई दशक लग गये। राजस्थान के एक स्कूल के शिक्षकों ने जो मुहिम छेड़ी है, उसने प्रदेश और देश में वह मौन क्रांति कर दी है, जिसकी अपेक्षा भारत माँ कर रही थी। अपने इन सपूतों पर अब वे गर्व से भरी है और इस पर स्नेह बरसा रही है। अपने इन शेर बेटों की सवारी कर रही है। इन शेरों ने निकम्मों को पीठ से उतार दिया है और अपनी भारत माँ को बिठा कर घूम रहे हैं।
वंदेमातरम्
may god bless our teacher community with such type of blessings.