पिछले दिनों मेड़ता तहसील में ‘अभिनव राजस्थान अभियान’ द्वारा चयनित गाँवों के दौरों से बहुत कुछ इस व्यवस्था के बारे में जानने को मिला. जयपुर से इन गाँवों की दूरी छः दशकों की आजादी के बाद भी कितनी है, इसे हमने प्रत्यक्ष महसूस किया. सरकारी विज्ञापनों और घोषणाओं का कितना और कैसा अमल होता है, इसके कई उदाहरण हमें इन गाँवों में मिले. हम यह भी जानकार हैरान रह गए कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि अब समझ गए हैं कि जनता के पास उनका कोई विकल्प नहीं है. वे समझ गए हैं कि जातियों और पार्टियों में बंटे लोगों को चुनावों के समय गंभीर मुद्दे कहाँ याद रहते हैं. तो फिर वे क्यों इन मुद्दों को लेकर अफसरों से माथापच्ची करते फिरें. आइये देखते हैं कि हालात कितने खराब हैं और ‘अभिनव राजस्थान’ में हम इन्हें कैसे सुधार सकते हैं.
प्रतिभा की अक्षम्य उपेक्षा
लूनी नदी के किनारे बसे बडायली गाँव के सरकारी माध्यमिक विद्यालय में पढ़ रही है, एक नन्हीं बालिका हसीना. एक भूमिहीन मजदूर की बेटी. बचपन से ही प्रतिभा की धनी. अभी पांचवी कक्षा में पढ़ रही है. खूब पढ़ना चाहती है, खूब पढ़ भी रही है. आप उसकी लेखनी देखो, तो दंग रह जाओ. आप उससे उसके किसी भी विषय का कोई भी सवाल पूछो, जवाब हाजिर मिलेगा. जैसे कोई कंप्यूटर जवाब दे रहा हो. जिस अंग्रेजी विषय से हिंदी माध्यम के बच्चे खौफ खाते हैं, उस पर हसीना का जबरदस्त कमांड प्रभावित कर देता है. हम सोचने लगते हैं कि कैसे यह बालिका इस लगन के लिए प्रेरित हुई होगी. ईश्वर कैसे इस तरह के चमत्कार करता है? हसीना का भविष्य कैसा होगा ?
ईश्वर ज्ञान का चमत्कार करता है, तो हमारा शासन भी उपेक्षा का चमत्कार करता है. जब हमने हसीना को मिलने वाली सरकारी सुविधाओं के बारे में पूछा तो मालूम हुआ कि उसे किसी प्रकार की कोई सरकारी सुविधा नहीं मिल रही है. यहाँ तक कि अल्पसंख्यक समुदाय से होने के बावजूद उसे कोई छात्रवृति नहीं मिल रही है. विद्यालय प्रशासन प्रति वर्ष वांछित फॉर्म भर कर भेजता है, लेकिन कोई कार्यवाही नहीं होती है. उधर सरकार अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए विज्ञापनों की झड़ी लगाए हुए है, मगर हसीना जैसी जरूरतमंद बालिका को उन विज्ञापनों से क्या. और जब यह विषय सम्बंधित अधिकारियों तक पहुचाया गया तो वे कुछ ठोस जवाब नहीं दे पाए. हमने उनको दूसरे कई गाँवों में भी इस प्रकार की सहायता के नहीं पहुचने की बात भी कही. वे क्या करते ? अपने नेताओं की तरह एक आश्वासन उन्होंने भी पकड़ा दिया, कि अगली बार हसीना को जरूर मदद करेंगे ! हम जो अखबारों और टी वी चेनलों में सुनते हैं, उसमें और हकीकत में कितना फासला है ?
‘अभिनव राजस्थान’ की शिक्षा पद्धति लागू होने पर हसीना जैसी प्रतिभाएं देश के लिए, प्रदेश के लिए वह सब कर सकेंगीं, जिसके लिए ईश्वर ने उन्हें धरती पर भेजा है.
एक कलाकार की दर्दनाक शाम
बडायली की हसीना के सामने चुनौती भरा भविष्य है, तो रोहिसा के पेमराज जिंदगी के अंतिम मोड़ पर हैं. 81 वर्षीय पेमराज दमामी, किसी जमाने में राजस्थान की प्रसिद्द नाट्य शैली ‘कुचामनी ख्याल’ के मंझे हुए कलाकार रहे हैं. कई मंचों से पेमराज ने अपनी कला का प्रदर्शन किया था. उनका मनपसंद रोल ‘बादशाह’ का हुआ करता था. आज भी ‘बादशाह’ का जिक्र आते ही पेमराज अकड़ कर बैठ जाते हैं और बूढी आँखों में एक चमक सी आ जाती है. उनके कानों में जैसे दर्शकों की तालियाँ फिर गूँज उठती हैं. लेकिन खुमारी टूटते ही पेमराज उदास हो जाते हैं. उन्हें लगता है, जैसे उनका सब कुछ लुट गया है. जैसे कि जिंदगी के नाटक पर अब स्थायी रूप से पर्दा गिर चुका है. रोहिसा गाँव में इस ‘बादशाह’ को अब सचिन, सलमान या फूहड़ अश्लील नृत्यों की आंधी में किसी तिनके का भी सहारा नहीं है.
तिनके का सहारा पेमराज ने ढूँढने की कोशिश भी की थी. जब उन्हें पता चला कि राजस्थान की सरकार कलाकारों की इज्जत करते हुए उन्हें पेशन देने जा रही है, तो उन्होंने भी अपने कागज़ और प्रमाणपत्र पेश किये. लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, पेमराज की फ़ाइल के साथ भी वही हुआ जो सभी जरूरतमंदों की फाइलों के साथ होता है. कागजों का रंग भी अब फीका हो गया है और पेमराज का चेहरा भी. उन्हें कोई उम्मीद नजर नहीं आती है. अपनी धुंधलाती यादों में वे जिंदगी का बचा खुचा रास्ता गुजारने के जतन कर रहे हैं. संगीत नाटक अकादमी उनकी पहुँच से कोसों दूर है, जहाँ उनकी फ़ाइल किसी मेहरबान बाबू या अफसर की बाट जोह रही है. वह अकादमी जिसके अध्यक्ष बनने की आजकल होड़ लगी रहती है, लेकिन जिसकी कार्यशैली सुधारने से सभी अध्यक्ष परहेज करते हैं.
लेकिन ‘अभिनव राजस्थान’ की संस्कृति संरक्षण की योजना में पेमराज जैसे कलाकारों को यूँ नहीं भुलाया जाएगा.
शहीद के धाम पर चिंतन
खेडूली गाँव के बिश्नोई समाज के साथ एक शाम हुई बैठक में कई विषयों पर चर्चा हुई. बिश्नोई समाज की अब तक की उपलब्धियों और वर्तमान स्थिति पर चर्चा केंद्रित रही. इसी दौरान शहीद बुचाजी की बात आ गई. विक्रम सम्वत 1700 (1643 ई.) में बुचाजी ने जाम्भोजी के एक शबद को व्यवहार में ढाल कर अपनी जान दे दी थी. ‘सर साटे रूंख रहे , तो भी सस्तो जान’ का यह विलक्षण शबद जाम्भोजी ने पृथ्वी को बचाने के लिए ही दिया था. आज शायद ‘सेव अर्थ’ के अभियान चलाने वालों को नहीं पता कि यह सेव अर्थ का, धरती बचाने का काम होगा कैसे. वे वर्कशॉप करते हैं, बड़ी होटलों में विदेशी पैसे से शराब पीकर पर्यावरण पर ‘चिंता’ करते हैं, लेकिन उनका काम इसी लक्ष्य पर रुक जाता है. बुचाजी ने सही मायनों में ‘सेव अर्थ’ किसे कहते हैं, यह समझाया था. उनसे पहले 1604 ई. में जोधपुर जिले के रामासनी गाँव की दो बहादुर महिलाएं ‘करमा’ और ‘गोरा’ भी खेजडी बचाने के लिए बलिदान कर चुकी थी. बुचाजी ने उसी काम को आगे बढ़ाया था. डेगाना तहसील के पोलावास गाँव में उन्होंने भी खेजडी काटने वालों का विरोध करते हुए अपने प्राणों का त्याग किया था.
आज बुचाजी के धाम पर वीरानी है. सरकार के पर्यावरण एवं वन विभाग को शायद बुचाजी का जीवन प्रेरणादायक नहीं लगता. लगे भी क्यों, जब पूरा वन विभाग का अमला वृक्ष काटने वालों की मदद पर ही जिन्दा है. तभी तो अरावली और विन्ध्या की पहाड़ियां नंगी हो चुकी हैं. सभी वन मंत्री अपने प्रभाव का इस्तेमाल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वालों को एन ओ सी देने में करते रहे हैं. वर्तमान वन मंत्री तो सलमान खान जैसे हिरणों के शिकारी को राजस्थान का ब्रांड एम्बेसडर बनाने पर आमादा हैं. ऐसा लग रहा है कि जिन लोगों ने सलमान के खिलाफ केस चलवाया हो, वे दोषी हों. ऐसी स्थिति में बुचाजी के बारे में सरकार क्यों सोचेगी ? उसे क्या फर्क पड़ता है कि बुचाजी की धाम तक पहुँचने के लिए सड़क नहीं है, या कि इस धाम का रखरखाव नहीं हो पा रहा है. सरकार की वेबसाइट पर भी तो जिक्र क्यों कर होगा, कि करमा, गोरा, बुचाजी या अमृता जैसे सैकड़ों महान वीरों ने धरती को बचाने के लिए दुनिया का सबसे अद्भुत बलिदान दिया था और ये घटनाएं इसी राजस्थान की धरती पर घटी हैं.
अभी तक सरकारें भले ही इतनी नक्कारा रही हों, ‘अभिनव राजस्थान’ में प्रकृति के इन पुजारियों के कहानियाँ बच्चे बच्चे की जुबान पर होंगी और उनके स्मारक ‘विश्व तीर्थ’ बन जायेंगे.
अपना गाँव अपना काम
‘अभिनव राजस्थान’ में योजनाओं का निर्माण गाँव स्तर पर होगा. ताकि गाँव के लोग अपनी प्राथमिकताओं को तय कर सकें. वे चाहेंगे तो बीज खरीदेंगे, वे चाहेंगे तो गाँव के स्कूल पर खर्च करेंगे, या पीने के पानी का प्रबंध करेंगे या कि कोई साझा उद्योग लगा लेंगे. लेकिन ध्यान इतना ही रखना होगा कि गाँव के लोग इस पैसे को उसी भावना के साथ खर्च करें, जिस भावना से वे गौशाला या मंदिर निर्माण पर खर्च करते हैं. यानि सरकारी पैसे को गाँव का ही पैसा समझ कर खर्च करें. इसके लिए गाँव को पैसा देने से पहले सम्पूर्ण गाँव को विश्वास में लेना होगा. उन पर योजना को थोपना नहीं होगा. उनसे योजना बनने को कहा जाएगा. सरकार केवल पैसे का आवंटन करेगी. जब यह होगा तो गाँव के लोग सरकारी धन से गाँव में वास्तविक विकास के रास्ते खोल देंगे. भारत के गाँवों में यह अद्भुत क्षमता आज भी है.
आकेली ‘ए’ गाँव को ही लीजिए. गाँव में मंदिर पर लगभग साठ लाख रूपया खर्च हो रहा है. कहीं कोई गडबड नहीं. सवाल ही नहीं, क्योंकि गाँव का पैसा है. गाँव के पैसे में गडबड को आज भी पाप माना जाता है. राजस्थान और भारत के लगभग सभी गाँवों में ऐसा है. और देखिये कि जब आकेली ‘ए’ गाँव के लोगों ने मिलकर यह तय किया कि गाँव को कीचड़ से मुक्त करना है तो गाँव कीचड़ से मुक्त हो गया. सभी घरों के आगे खड्डे खोद कर घरों के पानी को गलियों में फैलने से रोक दिया गया. ऐसे प्रयोग सफल करने में आगे बढते हुए गाँव के लोगों ने मिलकर सभी रास्तों को भी चौड़ा कर दिया. खेतों तक पहुँच आरामदायक हो गई. मेड़ता क्षेत्र के कई गाँवों में भी इस तरह के प्रयोग चल रहे हैं. जब ये प्रयोग राजस्थान के चालीस हजार गाँवों में एक साथ शुरू हो जाएँ तो ? ‘अभिनव राजस्थान’ बन जाएगा !