प्रिय अशोक जी,
‘रोचक राजस्थान’ बड़ी रुचि के साथ पढ़ता रहता हूं पर आपको पत्र लिखने का अवसर पहली बार जून 2011 का अंक पढ़ कर आया है। आपके लेख- ‘देश किस ओर’ तथा ‘दिल्ली का ड्रामा’ इसलिये विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं क्योंकि इनमें भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर हो रहे आन्दोलनों के आन्तरिक सत्य को आपने बड़ी बेबाकी से उजागर किया है। इन आन्दोलनों को दूसरी आजादी की लड़ाई कहा जा रहा है पर वास्तव में इसे चौथी आजादी की लड़ाई कहा जाना चाहिये। पहली लड़ाई तो 1857 में लड़ी गई थी जिसमें राजाओं और प्रजा ने बढ़चढ़ कर भाग लिया था। यद्यपि यह सफल नहीं हुई लेकिन उसकी सच्चाई यह जरूर साबित कर गई कि यदि नेतृत्त्व हर बलिदान के लिये तैयार हो तो जनता उसका साथ देने से पीछे नहीं हटती। दूसरी लड़ाई गान्धी जी के नेतृत्त्व में लड़ी गई। इसमें नेताजी व भगतसिंह ने अपनी अपनी तरह से भाग लिया। सबका उद्देश्य एक था – रास्ते अलग-अलग थे। इसलिये उसमें सफलता मिली। तीसरी जयप्रकाश जी के नेतृत्त्व में लड़ी गई। इसमें कुछेक पार्टियों व संगठनों को छोड़कर जन संघ, आरएसएस, लोहियावादी सोशलिस्ट और सी.पी.एम. के लोग शामिल थे। इसमें भी जयप्रकाश ने जन में वह भावभूमि तैयार की थी जिसे सरकारी सख्ती नष्ट नहीं कर पाई। लोगों ने लाठियां खाई। अपने नेता को बचाने के लिये उन्होंने स्वयं को सुरक्षा कवच की तरह आगे कर दिया। हजारों लोग अपने नेता के साथ जेल गये। वे परास्त नहीं हुए और अन्तत: चुनाव उपरांत सरकार को ही जाना पड़ा। यह चौथी लड़ाई है जिसकी शुरुआत ही झूठ, छल, बड़बोलेपन और कायरता से हुई है। गान्धी जी कहा करते थे कि यदि उद्देश्य पवित्र है तो उसे पाने के रास्ते भी पवित्र होने चाहिये। इस लड़ाई का उद्देश्य ही सही नहीं है तो फिर रास्ते सही कैसे हो सकते हैं। अन्ना तो सत्याग्रह करना चाहते है लेकिन इनके पीछे लगी ताकतें इसे सत्ताग्रह बनाने पर तुले हुई हैं। ऐसे में इसका भविष्य क्या होगा, यह तो भविष्य ही बतायेगा । हां इतना जरूर है कि इनकी खादी उतनी मैली नहीं है जितनी रामदेव की भगवा पोशाक।
आखिरी बात मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि आप बुद्धिजीवियों पर बहुत भरोसा न करें। दरअसल ये अब बुद्धिजीवी की जगह सुविधाजीवी हो गये हैं। इनमें तीन तरह के लोग देखे जा सकते हैं।
पहले वे जो निरन्तर समृद्धि की ओर बढ़ रहे हैं। उन्हें यथा स्थिति चाहिये ताकि उनका कैरियर बना रहे। बेटे-बेटियां पढ़ लिखकर कमाई के लिये बाहर जाते रहें या देश में रहकर ऐसी नौकरी पा जायें जिसमें वेतन से अधिक ऊपरी कमाई हो।
दूसरी तरह के वे लोग हैं जो अपने विशाल बंगलों में बैठकर चाय/शराब की चुस्कियां लेते हुए राजनीति की दशा दिशा पर बहस करते रहें, सभा सोसाइटियों में गर्मागर्म भाषण देते रहे और अखबारों में लेख वक्तव्य छपवाते रहें या किसी टी. वी. चैनल पर उस बहस में शामिल होते रहें जो अन्तत: किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती !
और तीसरे वे लोग हैं जो सचमुच कुछ करना चाहते हैं लेकिन जिनके सामने उद्देश्य ही स्पष्ट नहीं है। वे भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं। व्यवस्था बदलना चाहते हैं और शासन प्रशासन को सही रास्ते पर लाना चाहते हैं। लेकिन यह सब कैसे हो इसका उनके पास कोई जवाब नहीं होता। यदि होता भी है तो वह न तर्क संगत होता है और न न्याय संगत। दरअसल उन्हें दिशाहीन विचारशून्य राजनीति ने या एनजीओ कल्चर ने किया है। राजनीति विचार छोड़कर मुद्दों पर उतर आई है और एनजीओ उस छद्म लड़ाई को लडने में व्यस्त हैं जिसके लिये उन्हें ‘फन्ड’ मिलता है।
ऐसे धुन्ध भरे वातावरण में दो ही रास्ते सही दिशा में ले जा सकते हैं – एक तो यह कि किसी अवतार के आने की प्रतीक्षा कीजिये या अवतार पैदा कर दीजिये। इतना नहीं कर सकते तो फिर आम लोगों के बीच जाइये, वे रास्ता सुझायेंगे। क्योंकि वे जमीनी सच्चाई को जानते ही नहीं भोग भी रहे हैं। मार्क्स और गान्धी दोनों इस बात पर एक मत थे कि यदि कोई रास्ता नहीं सूझता है तो जनता के पास जाइये वह ही राह दिखायेगी। जी हाँ, जिसे हम निरक्षर, जाहिल और बुद्धिविहीन मानते हैं।
सुरेश पंडित