आशु राड़ (अटलांटा, यू एस ए)
आशु से हमारा परिचय फेसबुक के माध्यम से हुआ है. वे नागौर जिले की लाडनूं तहसील के खंगार गांव से हैं. साधारण किसान परिवार में जन्मे आशु ने जोधपुर से कंप्यूटर साइंस में इंजीनीयरिंग की डिग्री ली है. बाद में उन्होंने अमेरिका की प्रतिष्ठित एमोरी यूनिवर्सिटी से एम. बी. ए. किया. आजकल वे अमेरिका की सबसे बड़ी परिष्कृत तेल पाइपलाइन कंपनी में वित्त विभाग के प्रमुख हैं. सरल स्वभाव के आशु, अपनी मिट्टी से गहरा लगाव रखते हैं. इसी कारण उनका ‘अभिनव राजस्थान अभियान’ से जुड़ाव हुआ है. हमारे आग्रह पर उन्होंने कई विषयों पर अमेरिकी व्यवस्था की व्यवहारिक जानकारी हमें भेजी है और राजस्थान से उसकी तुलना करने की कोशिश की है. अब सवाल यह कि अमेरिका की तुलना राजस्थान से कैसे की जा सकती है. तो जवाब यह कि ‘अभिनव राजस्थान’ की तुलना किसी विकसित देश से ही की जा सकती है.
तभी हम इसके परम उद्धेश्यों की तरफ अग्रसर हो पायेंगे. तभी हमारी सोच में बदलाव हो पायेगा. आधे अधूरे प्रयासों की बजाय हम गंभीरता से लक्ष्य की ओर कदम बढ़ा पायेंगे. आत्मविश्वास के साथ. इसलिए हमारी तुलना का स्तर भी ऊंचा होना चाहिए. हम मानते हैं कि सांस्कृतिक दृष्टि से हमें अमेरिका से कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं है, पर आर्थिक क्षेत्र में हम बहुत कुछ सीख सकते हैं. नैतिकता और ईमानदारी का राष्ट्र के विकास में महत्त्व सीख सकते हैं. यह तो मानना ही होगा कि आज अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर देश है. केवल मन बहलाने के लिए उस देश पर फब्तियां कसने वाले अपने बुद्धिजीवियों की बेसिरपैर की बातों से बचेंगे तो धरातल पर ठोस काम हो पायेगा. चलिए, बात
आगे बढ़ाते हैं.
सुहावने सफर करवाती सड़कें
आशु कहते हैं कि अमेरिका में सड़कें राष्ट्रीय और प्रदेशीय स्तर पर पेट्रोल और ऑटोमोबाइल्स पर लगने वाले टैक्स से बनती हैं. स्थानीय या
काउंटी(जिला) स्तर की सड़कें स्थानीय स्तर पर पेट्रोल-डीजल और ऑटोमोबाइल्स पर लगने वाले सेल्स टैक्स से बनती हैं. लेकिन आप सड़क पर कहीं भी गड्ढा नहीं देख सकते हैं. एक भी गड्ढा नहीं ! सड़क इस प्रकार बनाई जाती है कि दस वर्ष तक किसी भी प्रकार की मेंटेनेंस या मरम्मत की जरूरत नहीं रहती. दस वर्ष तक मरम्मत का बजट भी नहीं रखा जाता है. दस वर्ष बाद एक बार केवल रीसर्फेसिंग या परत चढाने का काम होता है. फिर अगले दस साल बाद. १०० वर्षों तक एक सड़क ऐसे ही चलती रहती है ! भारी बारिश में भी पानी सड़क से
चंद मिनटों में गायब हो जाता है. एक बूँद भी पानी सड़क पर नहीं बचता. यह सब सड़क निर्माण प्रणाली में पहले से ही नियोजित कर लिया जाता है. अगर कहीं पर गड्ढा रह जाए और उसके कारण किसी कार को नुकसान हो जाए या किसी व्यक्ति को कोई चोट आ जाये तो ? ठेकेदार और इंजिनीयर को पूरा हर्जाना देना पड़ता है. जेल भी जाना पड़ता है. लेकिन सडकों पर वहां खर्च अधिक आता होगा ? आप ऐसा सोच सकते हैं, पूछ सकते हैं. राजस्थान तो पिछड़ा प्रदेश है, इतनी महंगी सड़कें कैसे बनाएंगे ? आशु कहते हैं कि वे राजस्थान से ही हैं और यह बात जानते हैं. लेकिन उनका मानना है कि राजस्थान में आज भी सडकों पर खर्च अमेरिका से ज्यादा आता है ! यह महत्त्वपूर्ण बात है. खर्च यहां ज्यादा आता है. फिर यह सडकों की दशा क्यों है ? आशु की मानें और शायद हम भी जानते हैं कि नागरिकों की उदासीनता के चलते ऐसा होता है. तभी हमारे अधिकारी, इंजिनीयर और नेता सडकों की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देते हैं, अपने निहित स्वार्थों के कारण. अमेरिकी व्यक्ति बार बार मेरे टैक्स का पैसा, मेरे टैक्स का पैसा चिल्लाता रहता है. इसलिए सड़क खराब बनने की उसे भी चिंता रहती है. वह सोचता है कि सड़क जल्दी खराब हो गई तो उसे और टैक्स देना पड़ेगा ! यही सोचकर वह दबाव बनाये रखता है. क्या हम ऐसा कर सकते हैं ? जब हमने आशु को यह बताया कि ‘अभिनव राजस्थान’ में हम ऐसी ही जागरूकता से भरे नागरिक तैयार कर रहे हैं, तो उन्हें बहुत ही खुशी हुई. वे कहते हैं कि तब राजस्थान की सड़कें अमेरिका से भी मजबूत होंगी. राजस्थान की सड़कें तो कलात्मक भी हो सकती हैं क्योंकि यहां के व्यक्ति में कला और कारीगरी का बोध अधिक है.
सर्वशिक्षा यानि सर्वशिक्षा
सर्वशिक्षा के नाम पर हमारी खानापूर्ति की बजाय अमेरिका में इसे शानदार तरीके से लागू किया गया है. आशु बताते हैं कि शिक्षा सरकारी स्कूलों में ही दी जाती है. अमेरिका में लोग इस बात पर चौंक जाते हैं कि क्या शिक्षा भी निजी हो सकती है. फिर सरकार क्या करेगी ? शिक्षा का खर्च उठाने की जिम्मेदारी अमेरिका में स्थानीय निवासियों की ही है. प्रत्येक घर पर प्रोपर्टी टैक्स है, जिससे स्थानीय स्तर पर ही शिक्षा के लिए आवश्यक पैसा जुटा लिया जाता है. और जब स्थानीय जनता ही पैसा दे रही है, तो हिसाब भी वही रखती है. प्रत्येक स्कूल में पर्याप्त अध्यापक हैं, कम्पूटर हैं, खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों की सुविधाएं हैं. स्कूल की अपनी परिवहन व्यवस्था है.सभी बच्चों को स्कूल की बस लेने आती है. घर के पास ही २०० मीटर की रेंज में स्कूल बस स्टॉप है, जहाँ से बच्चे बस में बैठ जाते हैं. प्राइमरी, मिडिल और हाई स्कूल का अलग अलग समय होता है. इससे एक ही बस अलग अलग कक्षाओं के विद्यार्थियों को ले आती है. संसाधन का पूरा इस्तेमाल हो जाता है.
उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा होती है. लेकिन इसमें स्कूल की खेल, सांस्कृतिक और सामाजिक सेवा के अंकों को अतिरिक्त मान (वेटेज) दिया जाता है. केवल प्रवेश परीक्षा के अंकों को आधार नहीं बनाया जाता. स्कूल शिक्षक के मूल्यांकन को आदर दिया जाता है. उस पर
विश्वास किया जाता है. यूनिवर्सिटी में गांवों के बच्चे भी आसानी से प्रवेश पा सकें, इसके लिए भी प्रवेश की मेरिट को बेलेंस किया जाता है.
कहीं से भी उनको मेरिट के बहाने पीछे नहीं धकेला जाता है, जैसा हमारे यहां होता है. समाज के विशिष्ट वर्गों (एथनिक ग्रुप्स) को भी उच्च शिक्षा में भागीदार बनाया जाता है, एक निश्चित प्रतिशत में. लेकिन यह आरक्षण जैसा सिस्टम नहीं होता, शुद्ध भाव से समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की व्यवस्था होती है. हमारे यहां जो आरक्षण है, वह तो मात्र छलावा है. इससे कभी भी समाज में अवसरों की समानता नहीं बनेगी. जिन वर्गों को आरक्षण मिल रहा है, उन्हीं के भीतर खतरनाक असमानता पनप रही है.
आशु बताते हैं कि अमेरिका में मेडिकल, इंजिनीयरिंग, कानून, मेनेजमेंट आदि की शिक्षा की व्यवस्था यूनिवर्सिटीज करती हैं, पर इनके साथ ही वहां पर सामुदायिक(कम्युनिटी) कॉलेजों का एक जाल(नेटवर्क) भी है, जो नर्सिंग, मेकेनिक्स, अकाउन्टेंट, ऑफिस असिस्टेंट, इलेक्ट्रीशियन, प्लंबर, हेयर ड्रेसर, ब्यूटीशियन आदि के डिप्लोमा कोर्स करवाते हैं. इन संस्थानों के कारण उच्च शिक्षा और रोजगार का स्वस्थ जुड़ाव हो जाता है. यही नहीं, किसी भी कार्य(जॉब) के लिए कोई उम्र की सीमा नहीं है. आपको कोई जोब पसंद न आये तो आप वापस कॉलेज में प्रवेश ले सकते हैं और अपनी पसंद के नए जॉब की ट्रेनिंग लेकर उस जॉब में अपना करियर बना सकते हैं.
उत्तम खेती
आशु स्वयं किसान पुत्र हैं. अपने गांव में रहकर उन्होंने खेती के सारे का किये हैं. यहां तक कि खेती की जितनी शब्दावली उनको पता है, आज के युवाओं को नहीं पता. उन्होंने अमेरिका की कृषि व्यवस्था को भी नजदीक से देखा है. आशु कहते हैं कि अमेरिका में बड़े स्तर पर खेती होती है, लेकिन सरकार किसानों का इतना ध्यान रखती है, जैसे कि किसान को नुकसान, देश को नुकसान है. इसके लिए वहां किसानों को फार्म सब्सिडी बहुत ज्यादा दी जाती है, ताकि उन्हें लागत में मदद मिल सके. बीमा भी वहां हर खेत का होता है. वहीं किसान को उचित मूल्य दिलवाने का भी सरकार हर संभव प्रयास करती है. अमेरका यह मानता है कि दुनिया के व्यापार में अमेरिकी किसान को खड़ा रखना
है, तो उसे सहारा देना पड़ेगा, क्योंकि खेती में रिस्क या चुनौती ज्यादा है. हालांकि अमेरिका में लगभग जमीन को सिचाई की सुविधा नहरों से है, पर मौसम खेती को प्रभावित करता है. इसलिए किसान का ध्यान रखना आवश्यक हो जाता है. हमारी तरह किसान को केवल भगवान के भरोसे नहीं छोड़ा जाता है. हमारी योजनाओं में किसान के भले का नाटक तो होता है, परन्तु बजट में केवल एक से तीन प्रतिशत पैसा ही खेती के लिए रखा जाता है. ऊंट के मुंह में जीरे जितना. इसलिए उत्पादन बढ़ नहीं पा रहा. अमेरिका में यह भी ध्यान रखा जाता है कि कीटनाशकों का उपयोग कम से कम हो. ग्राहक तक पहुंचते पहुंचते इन कीटनाशकों की मात्रा शून्य हो जानी चाहिए. यह अलग बात है कि अमेरिकी कंपनियां हमारे यहां कीटनाशक ज्यादा से ज्यादा बेचना चाहती हैं ! पर इसमें उनका क्या दोष है, हमें सजग रहना चाहिए. आजकल वहां भी ओर्गेनिक(जैविक) खेती का चलन ज्यादा हो गया है. छोटे स्तर के फ़ार्म भी अब फिर से जैविक खेती के कारण पनपने लगे हैं. खेती के साथ दूध उद्योग, मुर्गी पालन, मछली पालन आदि भी वहां महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं.
मेरा टैक्स, मेरा पैसा
अमेरिकी नागरिकों का यह मनपसंद जुमला होता है. मेरा टैक्स, मेरा डॉलर. वे बार बार यह जताते हैं कि शासन उनके दिए पैसे (टैक्स) के कारण चलता है.इसलिए उसे खर्च भी ढंग से किया जाना चाहिए. लोकतंत्र की वहां मजबूती इसी कारण से है. दुनिया के सबसे विकसित देश वे इसी कारण से हैं. वे हमारी तरह नहीं सोचते कि राज का पैसा है, हमें क्या. कोई लूटे तो लूटे, मेरा क्या.यहां तक कि इस लूट में हिस्से के लिए सभी प्रतिभाशाली नागरिक इन्तजार में भी हैं ! कई तो शासन में जाना ही इसीलिए चाहते हैं कि लूट में हिस्सा मिल जाए. अफसर बनना या नेता बनना इसी के लिए होता है. और जिनको यह मौका नहीं मिलता है, वे भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार चिल्लाते रहते हैं !
अमेरिका में केंद्र और प्रदेशों की सरकारें, कस्टम, एक्साइज, इनकम और बिजनेस टैक्स से चलती हैं. जबकि जिला (काउंटी) और शहर (सिटी) का शासन चलाने के लिए सेल्स टैक्स की प्रमुख भूमिका होती है. यानि सेल्स टैक्स स्थानीय शासन लेता है. इसके अलावा, स्थानीय स्तर पर जमीन, मकान, कार आदि पर प्रोपर्टी टैक्स(संपत्ति कर) भी लगता है. इन करों से स्थानीय शासन अच्छे से चलाया जा सकता है. साथ ही स्थानीय नागरिक अपनी आंखों के सामने अपने टैक्स से हो रहे काम को देख सकते हैं. जबकि हमारे सिस्टम में इतनी उलझन है कि हमारे शहर से कितना टैक्स दिया गया और कितना खर्च हुआ, इसका पता ही नहीं चलता है. इसी उलझन के कारण नागरिक उदासीन हो जाते हैं. वर्ना मंदिर और गौशाला के लिए दिए गए चंदे का वे कैसे ध्यान रखते हैं !
अपना शासन
अमेरिकी लोग अधिकारियों को यह जताते रहते हैं कि उनका वेतन और सुविधाएं नागरिकों के द्वारा दिए गए टैक्स के कारण हैं और इसलिए उन्हें सेवा के भाव से काम करना है. हालांकि वे यह भी ध्यान रखते हैं कि कर्मचारियों का उचित सम्मान हो, क्योंकि वे नागरिकों की मदद के लिए सेवाएं दे रहे हैं. कर्मचारी भी यह ध्यान रखते हैं कि वे नागरिकों का सम्मान करें. पुलिस के अधिकारी भी किसी नागरिक से उचित सम्मान के साथ ही बात करते हैं, बॉस की तरह नहीं, जैसा हमारे यहां हो चला है. यहां पर कई पुलिस के अधिकारी तो सारी मानवता और नैतिकता को ताक में रखकर पेश आते हैं. कमाल तो यह है कि अमेरिका में कई स्थानीय अधिकारियों को जनता चुनती है, जैसे शहर या जिले के प्रमुख को. वहां पर प्रशासन का जिला कमिश्नर (जैसे हमारा कलक्टर), पुलिस का मुखिया( एस पी), टैक्स कमिश्नर और जिले का सरकारी वकील, जनता द्वारा चुने जाते हैं. दो वर्षों के लिए. इसी कारण ये अधिकारी ज्यादा जिम्मेदारी से काम करते हैं. तभी जनता इन्हें दुबारा चुनेगी. हमारी तरह नहीं कि एक परीक्षा पास कर कोई कलक्टर या एस पी बन जाए और अपनी मनमानी करे, रौब दिखाए.
अपने प्रतिनिधि
आशु लिखते हैं कि जिन्हें हम चुनते हैं और जिन्हें हम मानते हैं, उन्हीं से देश बनता है. उनके अनुसार अगर हम किसी भ्रष्ट राजनेता को चुनते हैं या राजनेता को भ्रष्ट करते हैं तो फिर उससे ईमानदारी, क़ानून और व्यवस्था की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. वे दावे से कहते हैं कि अमेरका में कोई भी व्यक्ति जो व्यक्तिगत या सार्वजनिक जीवन में भ्रष्ट रहा है, नहीं चुना जा सकता है. लोग मुफ्त खाने या शराब के लिए वोट नहीं देते हैं. बल्कि होता तो यह है कि लोग अच्छे उम्मीदवार को अपनी हेसियत के अनुसार खुलकर चंदा देते हैं ताकि वह ठीक ढंग से प्रचार कर चुनाव जीत सके. आशु स्वयं भी ऐसा करते हैं. वे भी अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को चंदा देते हैं. वे मानते हैं कि इसी तरह से हमें ईमानदार और समर्पित प्रतिनिधि मिल सकते हैं. ‘अभिनव राजस्थान अभियान’ लगभग इसी रास्ते पर अग्रसर है और इसी वजह से आशु और उनके मित्र इस अभियान के समर्थक बने हैं. उन्हें लगता है कि हम सब मिलकर एक वास्तविक रूप से विकसित राजस्थान खड़ा कर सकते हैं, जो भारत के अन्य प्रदेशों के लिए मॉडल बन सकता है. और तभी विवेकानंद, अरविन्द, भगत और सुभाष के सपनों का भारत बन सकता है.
वंदे मातरम !
Ashok Ji, it’s very good effort to educate people. We all can learn from the developed nations and incorporate all those good things which really WORKS !