इस विषय पर लिखने से बचने की जितनी कोशिश करते हैं, उतना ही यह सामने आ खड़ा होता है। पिछले अंक में मैंने लिखा था कि बाबा रामदेव को अधिक जन समर्थन मिलने की उम्मीद नहीं है। यही हुआ था कि अन्ना हजारे का पदार्पण हो गया। जैसे सब कुछ प्लान किया गया हो या मीडिया की भाषा में प्लांट दिया गया हो। जब सारे भारत के बुद्धिजीवी और आमजन इस पर चर्चा कर रहे हों, तो हमें फिर इस मुद्दे पर कलम चलानी पड़ रही है।
दरअसल भ्रष्टाचार एक बड़ा ड्रामा है, नाटक है। कभी रामलीला, हरिशचन्द्र आदि हुआ करते थे। कौन कहता है कि नाटकों में आजकल लोगों की रुचि नहीं रही है। रुचि है और गहरी भी है। बस स्टेज अब बड़ा हो गया है। कुछ थियेटरों में ऐसे प्रयोग किये गये थे, जब घोड़े-गाड़ी भी अंदर तक जाने लगी थी। अब इसकी जरूरत नहीं है। अब यह खुले मंच पर, टी.वी. के सामने, सड़क पर, संसद में, हर कहीं खेला जा सकता है। जनता तालियाँ पीटती है, लेकिन नाटक में भागीदार नहीं बनती है। दर्शक बनी रहती है। पर्दा गिरते ही घर रवाना और फिर प्रतीक्षा नये किरदार की। तो चलिये इस नाटक की समीक्षा कर लेते हैं। ताकि दर्शकों को थोड़ा सा अहसास हो जाये, कि यह सब नाटक है, इसे इतनी गम्भीरता से न लें।
नाटक की शुरूआत
भ्रष्टाचार का मतलब केवल रिश्वतखोरी नहीं है, यह पहले मान लें। तभी कुछ काम की बात हो पायेगी। भ्रष्ट आचरण वह जो समाज के तय नियमों के विरूद्ध हो। यह किसी भी रूप में हो सकता है। परन्तु परिभाषाओं के रचयिता, ठगोरे, इसे अपने अंदाज में प्रचारित कर लिया करते हैं। रिश्वत भ्रष्टाचार हो जाता है, कर चोरी करने वाले सेठ ‘भामाशाह’ और ‘दानवीर’ बन जाते हैं। दुर्योधन द्रोपदी का चीर हरण करे तो भ्रष्टाचारी, युधिष्ठिर उसे जुए में लगा दे, तो भी धर्मराज। व्याख्याओं और उनके प्रचारित करने की कला का कमाल।
आधुनिक भारत में भ्रष्टाचार की शुरूआत कैसे हुई? वैसे तो अंग्रेज राज में पनपे भ्रष्ट अधिकारी ही हमारे नये राज को संभाल चुके थे और अपने पदों का बेजा इस्तेमाल करने की परम्परा तब से ही चली आ रही है। लेकिन राजनीति में सिद्धांतों को तिलांजली और लोकतंत्र का अपमान भी काफी पहले से शुरू हो गया था। हमारे देश में इस रंगमंच पर यह नाटक पहली बार सार्वजनिक रूप से तब खेला गया, जब 1939 में कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में गांधी जी ने हस्तक्षेप किया था। सुभाष चन्द्र बोस अध्यक्ष का चुनाव जीत गये थे, परन्तु गांधी जी को यह रास नहीं आया था। उनका नेहरू प्रेम भी शिष्टाचार तो नहीं था। सुभाष ने कांग्रेस छोड़ दी और देश के पहले बड़े राजनैतिक संगठन में सत्ता के लिए सब कुछ कर सकने की नीति नींव में डल गयी।
तब से आज 2011 तक इस रंगमंच पर कई हीरो, विलेन या चरित्र अभिनेता आते रहे हैं। भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार का खेल खेल रहे हैं। जनता तमाशा देख रही है, सीटियाँ बजा रही है, तालियाँ बजा रही है। कभी एक-दो पत्थर फेंक कर कुंठा निकाल लेती है, मंच के कलाकार भाग जाते हैं। कभी दर्शक बोर होकर बाहर चले जाते हैं। नाटक जारी है।
1947 के बाद इस रंगमंच पर 1974 में (संख्या उलटी हो गयी!) एक चरित्र अभिनेता का अवतरण हुआ था। जे. पी. या जयप्रकाश नारायण आये, तो हॉल खचाखच भर गया। सम्पूर्ण क्रांति के नारे पर देश फिदा हो गया था। दो साल पहले की बांग्लादेश युद्ध की नायिका, दुर्गा या इंदिरा गांधी, अब विलेन के रोल में थीं। जैसे ललिता पंवार या शशिकला हुआ करती थीं। आपात काल घोषित हो गया, खत्म भी हो गया। परदे पर नये सफेद वर्दीधारी मोरारजी, चरण सिंह-जगजीवनराम आ गये। जयप्रकाश परदे के पीछे, वैसे ही पहुँचा दिये गये, जैसे 1947 में गांधी। जे. पी. का इस रंगमंच से विदा होना जनता को इतना अधिक निराश कर गया था कि अब तक उस निराशा का असर जनमानस पर दिखाई देता है। फिर इंदिरा विलेन से 1980 में हीरोइन बन गयीं। उनके बाद 1984 में राजीव रंगमंच के हीरो बने, तो 1989 में विलेन के रोल में भी जँचने लगे। इसके बाद हीरो या विलेन में फर्क मिटता सा नजर आने लगा। आज कोई हीरो नहीं है, सभी विलेन नजर आते हैं, खलनायक नजर आते हैं।
ऐसे में परदे पर बाबा रामदेव एक चरित्र अभिनेता के रूप में उभरते हैं। उनके अभिनय से जनता में फिर जोश भर गया। फिर तालियाँ, फिर सीटियाँ। लेकिन नाटक में भागीदारी से सब बच रहे हैं। बाबा तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। बाबा को भी भ्रम सा हो जाता है। इतना जन समर्थन। बाबा, भारतीय जनमानस के इतिहास को भूल गये। उन्हें नहीं लगा कि यह नाटक है, वास्तविकता नहीं है। बाबा के योग शिविरों में आयी जनता ने यूं ही मजाक कर लिया था। नाटक में तो मजाक हो जाया करते हैं। बाबा को क्या पता कि इस भारतीय मेले में कोई और यह खेल अच्छे से करेगा, तो जनता उधर भाग जायेगी। यह तत्काल हो भी गया, जब अन्ना हजारे मंच पर आ गये। यही नहीं जनता ने तो बीच-बीच में राहुल गांधी की साफगोही, गरीबों की चिंता और भ्रष्टाचार पर वार के नाटकों पर भी तालियाँ बजा दी थी।
भ्रष्टाचार के इस नाटक पर आजकल चरित्र अभिनेता अन्ना हजारे कुछ समय के लिए छा गये हैं। हॉल फिर खचाखच भरने लगा है। एक नई टीम, नया अंदाज। बाबा रामदेव की जगह गांधी टोपी वाले अन्ना। कांग्रेस के खिलाफ बोल रहे हैं, फिर भी भगवा की जगह गांधी टोपी देख कांग्रेस सहज भाव से उन्हें स्वीकार कर रही है। एक नीति के तहत सोनिया गांधी उनका समर्थन करती है, तो दिग्विजय सिंह और अमर सिंह उनका विरोध करते हैं। कपिल सिब्बल, चिदम्बरम और प्रणव मुखर्जी बैलेन्स बनाने में लगे हैं। जनता शुरू में जोश में थी। ऐसे लगा था कि भ्रष्टाचार अब दो तीन दिन की बात है। इंटरनेट पर, मोबाइल पर मैसेज, मोमबत्तियों के साथ प्रदर्शन। हमारी जनता भी नाटक देख-देख कर पारंगत हो गयी है। जैसे कभी शोले के गब्बर के डॉयलॉग हर कोई बोल लेता था, वैसे ही अब भ्रष्टाचार पर बोलने में सबकी मास्टरी हो चुकी है। इसी बीच अन्ना की टीम के एक प्रमुख सदस्य शांति भूषण द्वारा मायावती व मुलायम से धन्यवाद स्वरूप ली गयी ज़मीनों व पैसे का पता लगता है, अन्ना ने धोती सँभाली, टोपी सँभाली। परदा गिराने का आदेश दिया गया।
इधर देश भर के बुद्धिजीवियों का भी नाटक देखिये। लगभग सभी ने एक आवाज में अपने लेखों संवादों में अन्ना की कार्यशैली से चालाकी पूर्वक असहमति जता दी। वे अन्ना की गांधी से तुलना करने से नाराज थे। उनके मानो भ्रष्टाचार से लड़ने का यह तरीका भी सही नहीं था। यह अलग बात है कि वे सही तरीका बताना भी नहीं चाहते। वे घर से बाहर निकलना भी नहीं चाहते, लेकिन और कोई निकले तो उसमें खामियाँ ढूंढेगे। तर्कों के ये महारथी एक हजार वर्षों की अपनी महारत को जल्दी नहीं छोड़ने वाले। और तो और, बाबा रामदेव भी अन्ना की टीम पर नकारात्मक टिप्पणी कर बैठे। जैसे कभी गांधी ने सुभाष बोस के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर की थी। ईर्ष्या के ये स्तर भी सदियों तक नुकसान देते हैं। तब लगता है कि कोई भी व्यक्ति यहाँ वास्तविक नहीं है, स्वार्थ रहित नहीं है। काम के साथ नाम भी चाहिए। केवल काम होने का लक्ष्य नहीं है। सभी नाटक भर कर रहे हैं। अन्ना हजारे की नीयत पर कोई संदेह नहीं है, परन्तु उनके चारों तरफ घेरा बनाये नेहरूओं पर विश्वास नहीं होता है। नेहरू और उनके पिता मोतीलाल भी तो प्रशांत और शांति भूषण की तरह जाने माने वकील थे।
अब हम इस रंगमंच से आगे बढ़ते हैं और भारतीय जनता के मनोविज्ञान पर नजर डालते हैं। यह वो जनता है, जो अवतारवाद में कट्टरता की हद तक विश्वास करती है। कहीं से कोई अवतार ले और हमारे जीवन को समृद्ध बना दे। हम उस अवतार के लिए तालियाँ बजा देंगे, वोट व नोट का प्रसाद चढ़ा देंगे, उसे संत या देवता मानकर उसकी मूर्ति या पोस्टर बनवा देंगे। यह अवतार चाहे जो हो। गांधी हो, जे. पी. हो, इंदिरा हो, राजीव-राहुल हो, बाबा रामदेव हो या अन्ना हजारे। दक्षिण में जनता ने एम.जी.रामचन्द्रन, जयललिता और एन.टी.रामाराव में अवतार के दर्शन किये हैं, तो पूर्व में ममता बनर्जी अवतार ले रही हैं। हमारे राजस्थान में वसुन्धरा ने अवतार लिया है। मायावती और नीतिश भी अवतारी माने गये हैं। इन अवतारों से चमत्कार की उम्मीदें की गयी थीं, परन्तु जनता को निराशा ही हाथ लगी है। व्यवस्था में खास परिवर्तन नहीं हुआ। मीडिया मैनेजमेन्ट से वैसी ही तस्वीरें दिखाई जा रही है जैसी फिल्मों में ‘इफेक्ट’ से दिखाई जाती हैं। वास्तविकता में अभी तक स्वतन्त्र भारत में लाल बहादुर शास्त्री और नरेन्द्र मोदी ही कुछ खास कर पाये हैं।
अवतारवाद में यह जनता आस्था के कारण नहीं डूबी है। बस हमें कुछ करना नहीं पड़ जाये। हम पर कोई जिम्मेदारी न आन पड़े। इसलिए हमें अवतार चाहिये। हम अपने क़स्बे में भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं बोलेंगे, लेकिन अन्ना हजारे के समर्थन में मोमबत्ती मार्च निकाल देंगे। इसमें ज्यादा रिस्क नहीं है। हम भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं, इसका सबूत भी दे देंगे और कुछ करना भी नहीं पड़ेगा। इससे ज्यादा अगर ये अवतार अपेक्षा करेंगे, तो जनता गायब हो जायेगी। ऐसा नया अवतार पकड़ लेगी, जो जिम्मेदारी न डाल दे। फिर शाहरुख़ खान या सचिन तेंदुलकर क्या बुरे हैं? उनके लिए तालियाँ बजा देंगे।
अभी तक मीडिया व न्यायालय, ईमानदारी का ठेका लेकर बैठे थे, परन्तु अब धीरे-धीरे उनके भी दागदार दामन सामने आने लगे हैं। दो गज जमीन, दो रुपये, दो विज्ञापन या किसी प्रभावशाली अफसर-नेता से नजदीकी। बस इतने में आप किसी को भी भ्रष्ट या ईमानदार कहलवा सकते हैं। अपनी ‘सुविधानुसार’ मीडिया समय-समय पर चरित्रों की प्रस्तुति देता है। देश के जाने-माने कई पत्रकार अब अपने सम्पर्कों के जरिये राजनीति में ‘फिट’ हो गये हैं और अपनी पार्टी के लिए मीडिया को मैनेज करते हैं। कई मशहूर व्यापारिक घराने भी मीडिया को खरीदने में पारंगत हो गये हैं। क्या मजाल कि उनकी करतूतों पर कुछ छप जाये। छपेगा भी तो मीडिया की पॉलिसी के तहत। अगले दिन मैनेज होने पर बात बंद। फिर भी जनता बेचारी प्रत्येक छपे शब्द पर विश्वास कर लेती है। लेकिन प्रेस काउंसिल ने भी आँखों पर पट्टी बांध ली है। जाने माने पत्रकारों, बरखा दत्त और प्रभु चावला द्वारा जब ए. राजा को संचार मंत्री बनवाने में सहयोगी की पोल खुली, तो एनडीटीवी और इंडिया टुडे सरीखे ठीक दिखाई पड़ते संस्थानों पर से भी विश्वास उठ गया। लोकतंत्र की लूट में ढीठता से सभी ने अपने हिस्से तय कर लिये हैं। सांसद पैसा खायें तो खायें, आप उनके विरूद्ध बोले तो संसद की अवमानना। न्यायपालिका के भगवानों को छेड़ा, तो न्यायपालिका की अवमानना। मीडिया को छेड़ा, तो प्रेस की स्वतन्त्रता का हनन। अब जनता ही बची है, जिसे आप चाहे जैसे घुमाओ, कोई अवमानना नहीं हो सकती।
राजनैतिक दल
कांग्रेस, भाजपा और अनेक दूसरे दल। सभी एक बात पर सहमत हैं, भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं। यह बात सभी दलों के नेता बड़ी संजीदगी से करते हैं। सोनिया और राहुल गांधी को भ्रष्टाचार के कारण नींद नहीं आती है। वे इससे परेशान है, ऐसा वे कहते हैं। शायद इसीलिए क्वात्रोची पर मुकदमा खत्म करवा दिया गया था। क्वात्रोची के नाम में भी उन्हें भ्रष्टाचार की बू आती थी। हालांकि क्वात्रोची के बेटे से दोस्ती कायम है, परन्तु बाप का दोष बेटे को क्यों? कोई फिल्म निर्माता, ऐसे सुन्दर अभिनय के लिए अभिनेता या अभिनेत्री ढूँढ़ता ही रह जायेगा!
भाजपा के नेता भी भ्रष्टाचार से परेशान हैं। लेकिन जनसंघ से निकली भाजपा अब कांग्रेस की फोटोप्रति नजर आ रही है। आश्चर्य तो यह है कि इधर वसुन्धरा राजे भी भ्रष्टाचार से दुखी है। राजे ने इसीलिए ललित मोदी को देश से बाहर भेज दिया है जैसे सोनिया ने क्वात्रोची को। न बांस रहेगा, न बांसुरी! अशोक गहलोत भी गांधीवाद से पूंजीवाद की तरफ अग्रसर हैं। लेकिन सभी भ्रष्टाचार पर अच्छा बोल लेते हैं। जैसे कोई शराबी, शराब के नशे में धुत होकर कहता है कि शराब बुरी चीज है। उसी प्रकार भ्रष्टाचार में गले तक डूबे लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी शानदार प्रस्तुतियाँ दे रहे हैं। धृष्टता और भ्रष्टता की पराकाष्ठा है।
लोकपाल और सूचना का अधिकार
सूचना का अधिकार जब 2005 में देश भर में लागू हुआ था, तब जोरदार हल्ला मचा था। भ्रष्टाचार यह गया, वो गया। अधिकांश आम जनता को पता ही नहीं चला था कि यह अधिकार क्या है, परन्तु कुछ बुद्धिजीवियों ने इसे क्रांति कह डाला। उन्हें लगा कि अब बिल्ली के गले में घंटी बंध कर रहेगी। लेकिन वही पुरानी समस्या आ गयी। घंटी कौन बांधे? यह घंटी प्रदान करने वाली अरुणा राय ने साफ मना कर दिया। कहा कि मेरा काम था, घंटी लाकर देना। बड़ी जतन से तैयार की है। आप इसे बांधो। तालियाँ पीटने वाले सुन्न रह गये। एक दो ने कोशिश की घंटी बांधने की, परन्तु इस प्रयास में मारे गये। दूसरों ने जल्दी ही सबक ले लिया। अब वे केवल घंटी बजाने से ही खुश हैं। कभी कभार बिल्ली इससे डर जाती है। बस चूहे खुश। लेकिन अब बिल्ली भी समझदार और खबरदार रहने लगी है। घंटी बजाने वालों पर गुर्राती है। घंटी बजाने वाले घबराने लगे हैं और उनके हाथ घंटी बजाते वक्त काँपते हैं। अरुणा राय को एवार्ड मिल गया है, नाम हो गया है, सोनिया गांधी की सलाहकार बन गयी है। बस इतना काफी है। अब वे क्यों सूचनाएँ माँगती फिरें।
सूचना के अधिकार पर काम करने वाले जानते हैं कि इस पर काम करना कितना कठिन है। एक सूचना पर एक वर्ष का समय चाहिये फिर सूचना मिल भी जाये, तो प्रेस और न्यायपालिका का सहयोग चाहिये। इतना सब साधारण नागरिकों के बस में नहीं है। फिर इस बीच ‘मैनेज’ करने वाले भी तो कहाँ शांत रहते हैं।
अंतिम समाधान
अभिनव राजस्थान में भ्रष्टाचार को मूल बीमारी न मानकर केवल लक्षण माना जायेगा। मूल बीमारी का उपचार ही अंतिम और स्थायी समाधान होगा। अभिनव राजस्थान में भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए ये प्रयास किये जायेंगे।
1. पैसे के दिखावे को अभिनव राजस्थान में मूल्य नहीं दिया जायेगा, सराहा नहीं जायेगा। सादगी एक फैशन का रूप ले लेगी।