आजादी या विभाजन ?
14 अगस्त 1947 की रात जाने कैसे कटी होगी? हालांकि भारत की अधिकांश जनसंख्या, जो दूर गाँवों में या पहाड़ों पर रहती थीं, इन सबसे बेखबर थी। फिर भी शहरों में रहने वाले या दिल्ली के आसपास के लोगों को 15 अगस्त की सुबह का बेसब्री से इंतजार था। सुबह हुई तो ऐसा लगा, जैसे उस दिन सांस भी पहली बार ले रहे थे। इतने वर्षों से समझाया जा रहा था कि हमारी समस्याओं की जड़ अंग्रेज हैं और वह जड़ कटी तो बीमारी खत्म। लेकिन दो दिन तक उछल कूद की ही थी कि रेडक्लिफ ने 17 अगस्त को भारत-पाकिस्तान की सीमा रेखा घोषित कर दी। लोग आजादी तो भूल गये और लग गये अपनी नई जमीन तलाशने। पंजाब और बंगाल, सिंध, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान आदि प्रांतों से हिन्दू-मुसलमान चल पड़े। जिन्ना-नेहरू के सपनों की भेंट चढ़े हजारों परिवार मारकाट के बीच इधर से उधर भाग रहे थे।
कुल डेढ़ करोड़ लोगों ने जगह बदली। 10 लाख मारे गये।
अजीब तो यह लगा कि इतनी मौतें आजादी पाने के लिए नहीं हुई। अगर ऐसा हुआ तो क्रांति होती और आजाद देश की नींव हमारे खून से सींची होती। शायद आजादी की कीमत देने से हम उसका महत्व भी समझते। इधर यह मार काट चल ही रही थी कि आजादी के प्रमुख नायक गांधी जी की हत्या हो गयी। वैसे गांधी जी की धीमी मौत तो 1942 के बाद से ही कांग्रेस के भीतर होने लगी थी और विभाजन के समय तो उन्हें हाशिये पर ही डाल दिया गया था। 1948 को तो उनकी औपचारिक मौत हुई थी। कैसी आजादी? आजादी का एक नायक (सुभाष) विदेश में राष्ट्र के काम आ गया, दूसरा (गाँधी) देश के भीतर ही भ्रम की भेंट चढ़ गया। अब सब कुछ साफ था। नेहरू ने जिम्मेदारी ओढ़ ली थी। कितने वर्षों की कूटनीति से नेहरू को यह सफलता मिली थी। अब थोड़ा बहुत व्यवधान पटेल और लोहिया के कारण था। वरन् रास्ता साफ था और एक छत्र राज भी। युवा भारत का भ्रमित शासन 1947-48 में ही काश्मीर की समस्या के बीज व्यक्तिगत महत्त्कांक्षाओं के कारण बोये गये थे। नेहरू के बोये इस बबूल के कांटे आज भी देश को चुभ रहे हैं। शेख अब्दुल्ला से ‘दोस्ती’ निभाने के लिए नेहरू ने काश्मीर का मुद्दा अपने हाथ में रखा और इसी उधेड़बुन में भारत-पाकिस्तान का पहला युद्ध भी देश को झेलना पड़ा। 1986 में इन्दिरा ने और 1987 में राजीव-फारूख ने इस समस्या को बढ़ाया था। आज भी उमर अब्दुल्ला और राहुल गांधी को दोस्ती काश्मीर समस्या को जिंदा रखे हुए है। दो परिवारों की परम्परा – कभी दोस्ती की और कभी दुश्मनी की। यही काश्मीर समस्या का सार है।
1950 में हमने अपना बहुप्रतीक्षित संविधान बना लिया था। दुनिया का सबसे लम्बा संविधान बनाकर हम बहुत खुश थे। एक आदर्श देश की इससे ज्यादा कल्पना नहीं की जा सकती थी। कई देशों से धारणाएँ इसके लिए उधार भी ली थीं। अमेरिका, इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, आयरलैण्ड, रूस आदि देशों से देश चलाने के कई तरीके संविधान में रख दिये। 150 वर्षों तक अंग्रेज परस्त, 300 वर्षों तक मुग़ल परस्त और 500 वर्षों तक सल्तनत परस्त रहे लोग क्या सोच सकते थे? ढांचा लोकतन्त्र का और पुर्जे राजतन्त्र के। मात्र 60 वर्षों में 94 संशोधन हमें संविधान में करने पड़े हैं। तब भी संविधान की पालना हो पाने की संतुष्टि नहीं है।
नेहरू के ‘राज’ में नीरसता सी छाने लगी थी। नेहरू ने गांधी के ग्राम स्वराज्य को किताबों में बंद कर रूस की चाल पकड़ ली थी और वे अपनी जिद से देश चलाते रहे थे। देश से ज्यादा उनका ध्यान विदेशों में रहा या ‘विदेशियों’ में रहा। देश भुखमरी की कगार पर था और 1962 में चीन के हमले ने सेना का मनोबल भी तोड़ दिया था। लेकिन हमारा यह ‘नीरो’ बांसुरी तो नहीं बजा रहा था, परन्तु गुलाब अवश्य सूँघ रहा था।
1964-66 में कुछ समय के लिए शास्त्री का जय जवान-जय किसान का नारा गूंजा तो देश की उम्मीदें फिर बढ़ी थीं। शास्त्री जी ने देश में हरित क्रांति की शुरूआत कर आत्मनिर्भरता की तरफ पहला कदम बढ़ाया था। किसानों को खेती और खेती के विज्ञान पर विश्वास होने लगा था। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान को 1965 की लड़ाई में हराकर बता दिया कि अब यह नेहरू का 1948 वाला या 1962 वाला भारत नहीं है। यानि जय जवान – जय किसान की गूंज जन-जन की जुबान पर थी।
इन्दिरा ‘राज’ 1966-69 में राजतंत्र ने फिर नये सिरे से दस्तक देनी शुरू कर दी थी। वैसे भी संविधान में राजा-महाराजाओं से उपाधियाँ नहीं छीनी गयी थीं। लोकतांत्रिक देश में अभी भी राजा-रानियाँ औपचारिक रूप से मौजूद थे। लेकिन इन छोटे-मोटे राजा-महाराजाओं के ऊपर एक नया राजवंश पनप चुका था। नेहरू की बेटी का ‘राज’ आ गया था। शास्त्रीजी से परेशान हो चुके चापलूसों की चांदी बन गयी थी।
1969 में कांग्रेस टूटी, तो 20-22 वर्ष की निश्चिंतता की नींद भी टूटी। अस्थिरता की मारी इंदिरा को बांग्लादेश युद्ध का मौका ही चाहिये था। एक तीर से कई शिकार हो गये। मूल कांग्रेसियों को किनारे कर दिया गया और अवसरवादी कांग्रेसियों को सत्ता में पहला प्रवेश दे दिया गया। इंदिरा को महारानी का रूप दे दिया गया। हम तो जैसे रानी की तलाश में थे ही। विक्टोरिया और एलिजाबेथ को अभी भूले भी नहीं थे, कि यह ‘सहारा’ मिल गया। इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा का नारा भी देवकांत बरूआ जैसे चापलूसों ने लगा दिया। हमारा धर्म भी नया रूप ले चुका था। इंदिरा को ‘दुर्गा’ का अवतार कह दिया गया।
1971 से 1975 के दरम्यान गरीबी तो खत्म नहीं हुई, लोकतंत्र के बुरे हाल जरूर हो गये। संविधान की टाँगें तोड़ दी गयीं और राजतन्त्र को लोकतंत्र की चाशनी में पूरा लपेट दिया गया। गांधी की खादी और उनका नाम लेकर ‘राज’ कर रही इंदिरा के आगे पूरा देश नतमस्तक था। 1972 में ही हमारी नयी ‘महारानी’ ने राजा-महाराजाओं की उपाधियाँ समाप्त कर दी। आखिर इतने राजा-रानियों की कहाँ जरूरत थी, एक ही बहुत थी। इसी समय ‘गरीबों’ के साथ-साथ ‘अल्पसंख्यकों’ और ‘अनुसूचित जातियों’ के कल्याण पर अधिक बातें की गईं। कल्याण कितना हुआ, यह तो अभी तक पता नहीं चला है। जय जवान, जय किसान की जगह अब जय गरीब, जय मुसलमान, जय दलित और जय राज के नारे आ गये थे। अपने पिता नेहरू और उनके मांउटबेटन ‘दोस्तों’ से इंदिरा ने फूट डालो और राज करो की नीति सीख रखी थी और यह गजब असर कर रही थी।
इन्दिरा का ‘आफतकाल’
1975 से 1977 तक आपात काल था। कहा यह गया कि देश की स्थिति ठीक नहीं थी, परन्तु असलियत में यह इंदिरा का ‘आफतकाल’ था। चुनावों से उन्हें डर सा लगने लगा था। चुनाव में जाने के लिए कोई मुद्दा भी नहीं था। अब बांग्लादेश की लड़ाई भी नहीं लड़ी जा सकती थी, तो गरीबी भी वादे के अनुसार तनिक भी कम नहीं हुई थी। उस पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनके चुनाव को भी रद्द कर दिया था। घबराहट में इंदिरा ने संविधान की होली जला दी। राष्ट्रपति से लेकर पुलिस कांनिस्टेबल तक का दुरुपयोग किया। न्यायपालिका की निष्पक्षता पर चोट की, तो प्रेस का भी गला घोट दिया गया। वहीं खुशवन्तसिंह जैसे चाटुकार पत्रकारों का एक नया तबक़ा देश में पैदा हो गया, जिसने प्रेस को भी कलंकित कर दिया।
इसी समय गांधी के एक अवशेष ने देश को आखिरी उम्मीद बंधाई। जयप्रकाश नारायण या जे. पी. की ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के नारे ने समा बांध दिया। भीड़ फिर उस तरफ भागी। ‘दुर्गा’ के अवतार का भ्रम टूटने लगा था। जनता का राज आने का भ्रम सा हो गया। लेकिन धोखे ने फिर भी पीछा नहीं छोड़ा। 1977 में इंदिरा की जगह उन मोरारजी ने ले ली, जो नेहरू की मौत के बाद से प्रधानमंत्री बनने के सपने पाले बैठे थे। जगजीवनराम और चरण सिंह भी उनके साथ हो लिये। जे. पी. का वही हाल हुआ, जो कभी गांधी का हुआ था। सम्पूर्ण क्रांति, सम्पूर्ण भ्रांति बनकर रह गयी। घबराकर 1980 में फिर जनता इंदिरा की तरफ हो ली। फिर भी 1984 में अपनी मौत से पहले इंदिरा ने काश्मीर और पंजाब से छेड़छाड़ कर जिन्ना के सपनों को फिर जगा दिया था। इस पर भी अपनी महारानी की मौत पर जनता भावुक हो गयी और उनके राजकुमार बेटे राजीव को वोट दे बैठी। 1985 में सत्ता में आये राजीव ने भी काश्मीर को एक खड्डे से दूसरे खड्डे में धकेल दिया। फारूख का साथ देकर उन्होंने ‘आतंकवाद’ की नींव काश्मीर में रख दी। राजीव ने नेहरू की तरह अन्तर्राष्ट्रीय नेता बनने की भी ठान ली और इसी प्रयास में श्रीलंका में सैकड़ों भारतीय सैनिकों को मरवाने के बाद खुद भी इस आग के शिकार हो गये। एक और भ्रम काल 1992 में राजीव की मौत के कारण नरसिम्हा राव का भाग्य चमका, तो भारत का भाग्य अंधेरे की तरफ चल दिया। भारत को विदेशी लूट के लिए खोल दिया गया। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के शब्दों के साथ अपने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को देश को लुटाने की खुली छूट दे दी। विदेशों में ‘काला धन’ तभी से जमा होना शुरू हुआ था। राव ने पहली बार सांसदों को खरीद कर भी दिखा दिया था। आखिर बाजारीकरण का दौर वे लेकर आये थे और ऐसे में भारत में हर चीज बिकाऊ होनी ही थी। राव ने संसदीय ढाँचे को ढहाने में इसी प्रकार सक्रियता दिखाई, जिस प्रकार बाबरी मस्जिद ढाँचे को ढहाने में। फिर भी पूरे पाँच साल तक ‘मौनी बाबा’ भी ‘राज’ कर गये।
इसी बीच 1989 से 1998 के दौरान वी.पी.सिंह, चन्द्रशेखर, देवगोड़ा और गुजराल ने भी प्रधानमंत्री बनने के सपने को पूरा कर लिया। 1998 से 2004 के बीच एक ओर महत्त्वाकांक्षा भी शांत हो गयी। अटल बिहारी बरसों से उस कुर्सी को देख रहे थे। इधर संसदीय गलियारों में ‘किसी भी कीमत पर राज’ का फार्मूला सर्वमान्य हो चला था। अटल जी ने इसी फ़ार्मुले पर काम किया और ‘गठबन्धन धर्म’ का नया शब्द गढ़ लिया। न मंदिर बनाया, न धारा 370 खत्म की और न ही समान नागरिकता की बात की। ब्रजेश मिश्रा, जसवंतसिंह और प्रमोद महाजन के साथ वे जीवन के नये-नये बसंत मनाते रहे, कविताएँ कहते रहे और जीवन भर भाषणों में कही गयी बातों पर ‘अटल’ न रहकर टलते रहे। इस बहादुरशाह जफर ने अयोध्या आंदोलन को दबाने में वी.पी.सिंह और कांग्रेस को भी पीछे छोड़ दिया। घर का भेदी लंका ढहाये!
2004 में सोनिया ने ‘राज’ को ‘त्याग’ दिया और मनमोहन सिंह को कुर्सी सौंप दी। किसी समय भीष्म और भर्तृहरि राज त्यागा करते थे। इसे वैसा ही त्याग बताया गया। मनमोहन सिंह तब से प्रधानमंत्री है। ‘ईमानदारी’ से ‘बेईमानों’ के रक्षक बने हुए हैं।
लोकतंत्र के भवन के ये तीन खंभे टूटे, तो आखिरी खंभे पर भरोसा था, कि वह भवन को बचाले। परन्तु चौथे स्तम्भ (मीडिया) ने भी साथ छोड़ दिया। अखबार में लिखे को सच मानने के भ्रम का दुरुपयोग कर पत्रकारों ने भी लोकतंत्र की लूट में भागीदारी कर ली है।
लेकिन एक पाँचवाँ स्तम्भ भी था, जिसे हमें इन चारों स्तम्भों के बीच में लगाना था। यहाँ हम भूल कर गये। यह स्तम्भ सुलतानों, मुग़लों और अँग्रेज़ों के खूब काम आया था। उनसे जुड़ा मानकर ही हम इसे इस्तेमाल करने में चूक कर गये। यह पाँचवाँ स्तम्भ बुद्धिजीवी वर्ग को होना चाहिये था, लेकिन हमारे यहाँ पड़ा ही रह गया। शायद यही वजह हमारे अन्य स्तम्भों के कमजोर पड़ने के पीछे रही हो।
अब क्या करें? पाँचवें स्तम्भ को लोकतंत्र के भवन के बीचों बीच लगा दें, तो अन्य स्तम्भों में भी मजबूती आ जायेगी। थोड़ी बहुत कमी रह भी गयी, तो मरम्मत हो जायेगी। यही मंत्र या तंत्र है जो देश को बचा सकता है।
We should analyse the reason for the failure of executive.Here is clear roles and functions between the judiciary executive and legislature in constitution but we find a role reversal in executive and legislature.In absence of transfer policy executive is surrendered to legislature and all the acts of legislature are guided by politics.This is the reason that the executive lost its faith it draws the role of judiciary to correct wrong doings.Judicial protection is safeguard that judiciary is in a position to save the system otherwise this politics might have taken total control
Bhagwatsingh Rathore