जिस प्रकार आलस्य शरीर में कई प्रकार की बीमारियों का जनक है, गुलामी भी समाज में कई समस्याओं के मूल में है। और भारत में तो एक हजार वर्षों की लम्बी गुलामी रही है। हमारे राजस्थान में गुलामी के तीन स्तर रहे हैं। यहाँ के राजा भी गुलाम रह चुके। ऐसे में गुलामी जनित कई समस्याएँ यहाँ पर पनपी हैं, जिनके कई रूप हमारे सामने आते रहते हैं। वही भ्रष्टाचार वाली बात। मूल में गुलामी की बीमारी है और हम लक्षणों पर आँसू बहाते रहते हैं। गुलामी पर ‘रोचक राजस्थान’ का सटीक विश्लेषण।
द लास्ट एम्परर एक अंग्रेजी फिल्म मैंने देखी थी – द लास्ट एम्परर। इस फिल्म को कई पुरस्कार विश्व स्तर पर मिले थे और इसकी खूब चर्चा रही थी। 1987 में रिलीज हुई इस फिल्म में चीन के आखिरी शासक पुयी के जीवन को दर्शाया गया है। पुयी अभी वयस्क नहीं हुआ था और बाल सुलभ हरकतें कर रहा था। इस कहानी में एक मजेदार वाकया आता है। पुयी अपने कमरे में बर्तन में ही मल त्याग करता है, क्योंकि राजा बाहर नहीं जा सकते थे। उस बर्तन को उठाने के लिए पुयी के नौकरों में होड़ लग जाती है। जो सफल रहता है, वह नौकर इतना खुश हो जाता है कि वह बार-बार उस मल को सूँघता है और अपनी उपलब्धि जताता है। एक दिन अचानक यह घटना मुझे याद आ गयी। किसी चैनल पर देख रहा था कि महाराष्ट्र का गृहमंत्री राहुल गांधी के जूते उठाकर घूम रहा है और उन्हें पहना रहा है। जाने क्यों मुझे राहुल में चीनी राजा पुयी की सूरत नजर आने लगी। उनके आसपास मण्डरा रहे ‘नेताओं’ की शक्लें मेरे मन में घूमने लगी। भारत के प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री आदि में मचा घमासान याद आ गया। एक मन से सबका कहना कि हमारा भविष्य राहुल गांधी। और इन सबके हाथ में भारत की जनता ने सत्ता की चाबियाँ सौंप रखी हैं।
गुलामी की गहराई
लेकिन इसमें अचरज न करें। भ्रष्टाचार की तरह यहाँ भी अलग ढंग से सोचें। गहराई में जायें। याद रखें कि आखिर हमारे देश की जनता को गुलामी इतनी प्रिय क्यों हो गयी है। बात केवल राहुल गाँधी की नहीं है। भ्रष्टाचार की तरह यह गुलामी भी सर्वव्यापी हो गयी है। लेकिन समस्या पुरानी है। हमारी गुलामी की कहानी सल्तनत से शुरू हुई थी। हमने पहली बार देखा था कि कोई व्यक्ति इतना शक्तिशाली हो जाता है कि अपने निर्णय अधिकांश लोगों पर थोप सकता है। वरन् हम तो ‘गण’ और ‘पंचायत’ के सामूहिक निर्णयों के आदी थे। लेकिन जब मूर्तियाँ टूटी, तो भगवान भी इन सुलतानों के आगे हमें कमजोर दिखे, जिन्हें हम सर्वशक्तिमान मानते थे। हम घबरा गये और गुलामी की पहली सीढ़ी चढ़ गये। गणराज्यों और जनपदों की लड़ाईयों ने पहले ही देश को कमजोर कर दिया था। परिणामत: देश ने गुलामी स्वीकार कर ली। चाणक्य के वंशज भी अब कम बचे थे और वे भी इस अप्रत्याशित स्थिति का जवाब नहीं ढूंढ पाये थे। सल्तनत के शासक अपने साथ अरब और अफ्रीका से खरीदे गुलाम भी लाये थे। हमने उन्हें उनकी प्रजा समझ लिया और उसी रंग में हम भी ढलने लगे।
गुलामी की बौद्धिक परम्परा
गुलामी ने अपना पहला चरम तब छुआ था, जब हम कुतुबुद्दीन ऐबक के गुलाम हो गये थे। ऐबक खुद 16 टके में खरीदा गया गुलाम था और ऐसे गुलाम की भी हमने गुलामी स्वीकार कर ली, तो शेष क्या बचा था? बात यहीं तक खत्म नहीं हुई थी। अब तक हमारे बुद्धिजीवियों की ‘बुद्धि’ भी भ्रष्ट हो चुकी थी और उन्होंने ऐबक को ‘लाख बख्श’ (लाख मोहरें दान करने वाला) कहकर भारत में गुलामी की ‘बौद्धिक परम्परा’ शुरू कर दी। फिर हमने मुग़लों का ‘महान्’ कहा और अँग्रेज़ों को ‘जन-गण-मन अधिनायक’ और भारत भाग्य विधाता कहा। हमारी सोच, हमारा नजरिया एक अलग मोड़ ले चुका था। हमने ‘जाति प्रथा’ अपना ली और उसे ‘ऊँच-नीच’ में ढाल दिया। ‘राजा’ से लेकर आखिरी पंक्ति में खड़े वर्ग के लिए ‘नियम’ बना दिये, शास्त्रों की व्याख्याओं से इन नियमों को रंग दिया और ‘राजा’, ‘प्रजा’, ‘स्वामीभक्ति’ आदि शब्दों को नई परिभाषाएँ दे दीं। कुल मिलाकर हमारे जीवन की सम्पूर्ण शब्दावली ही गुलामी से ओतप्रोत हो गयी। अब कहने को हमारे यहाँ लोकतंत्र है, परन्तु शब्दावली अभी राजतंत्र की है। संविधान रचते समय ऐसे शब्दों को फिर महिमामंडित कर हमने पेश किया, तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी। ‘राष्ट्र’ को पालने वाला ‘राष्ट्रपति’, राज्य को पालने वाला ‘राज्यपाल’! प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री आदि शब्दों से राजतंत्र की व्यवस्था की स्पष्ट बू आ रही थी। ‘सरकार’, ‘नौकरी’, ‘अधिकारी’, ‘कर्मचारी’, ‘महोदय’, ‘कृपा’, ‘निवेदन’ आदि सैकड़ों शब्द गुलामी का ही संकेत देते हैं।
सब तरफ गुलामी इस सब को नेहरू-इंदिरा के लम्बे ‘राज’ ने मजबूती दे दी। ‘मंत्री’ वाकई में हमारे नये राजा ‘नेहरू’ या महारानी ‘इंदिरा’ के मंत्री लगते थे, सहयोगी नहीं। अब राहुल भैया तक आते-आते कहानी फिर चीन के उस राजा पुयी की याद दिलाती है, जो स्वाभाविक भी है। देश में गुलामी की यह विरासत सभी दलों में अब यह भरी पड़ी है। बल्कि ‘गुलामी’ अब एक योग्यता, ‘क्वालिफिकेशन’ भी बन गयी है। हमारे नये ‘राजा’ यह पसन्द करते हैं और हमारे नये ‘मंत्री’ भी गुलामी में, स्वामीभक्ति का आनंद लेते हैं। राहुल-सोनिया के आसपात दांत निकालते, गर्दन झुकाये, मण्डरा रहे, धक्का मुक्की कर रहे देश के कर्णधारों को तो देखते ही हैं। अटल-आडवाणी-वसुन्धरा के आसपास भी इनकी कमी नहीं है। बाल ठाकरे, करूणानिधि, मुलायम, लालू, चौटाला आदि ने भी इस परम्परा को आगे बढ़ाया है। अधिकारी-कर्मचारी भी इसमें पीछे नहीं है। मैं हंस पड़ता हूँ, जब किसी अधिकारी को अपने वरिष्ठ अधिकारी से बात करते देखता हूँ। फोन पर बात करते-करते ही कई थानेदार, तहसीलदार, आरएएस और आईएएस खड़े हो जाते हैं, जैसे वरिष्ठ अधिकारी सामने खड़ा हो। इतनी घबराहट! ये अनुशासन तो कतई नहीं है, भले हम ऐसा समझें या कोई हमें समझाये। फिर उनका सर-सर कहना भी बंद नहीं होता है। सर गुलामों का अपने मालिकों को किया जाने वाला सम्बोधन है जिसे हमने गलती से श्रीमान् का अंग्रेजी अर्थ मान रखा है। श्रीमान को शुद्ध अंग्रेजी में मिस्टर कहते हैं।
गुलामी से प्रेम क्यों ? तो गुलामी हमें इतनी प्रिय क्यों है? क्यों हम बार-बार राहुल में ‘राजा’ और वसुंधरा में ‘महारानी’ देखकर उनकी स्तुति करना चाहते हैं? क्यों हमारा गुलाम मन इनकी ‘दया’, ‘कृपा’ व ‘दान’ को तरस रहा है? क्यों हम इनकी बचकानी हरकतों में भी ‘विकास की दृष्टि’ ढूंढ़ लेते हैं? मेरे एक मित्र कहते हैं कि हम गुलाम नहीं रहना चाहते हैं। हमें अच्छा भी नहीं लगता है कि कोई हमारे साथ गुलामी का व्यवहार करे। असली बात तो यह है कि हम जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं और उसका सरल तरीका है गुलामी। सब कुछ राजा पर छोड़ दो, वह हमारी रक्षा करेगा, हमारा भला करेगा। हम अवतारवाद में विश्वास करते हैं और ये अवतार भी लगते हैं। मध्यकाल में हमने राजा को भगवान का अवतार कहा भी था और उन्हें रामवंशी, सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी आदि कह भी दिया था। यह सब हमने कहाँ से सीख लिया? जैसा राजा, यथा प्रजा। जब हमारे ‘राजा’ किसी और के गुलाम हो गये, तो हम भी हो लिये। वे निकम्मे हो गये, तो हम भी हो गये। वरन् गुलामी से पहले के दौर में ‘राजा’ केवल मुखिया होता था और जनता के साथ मिलकर काम भी करता था। गणतंत्रों में यही स्वस्थ पद्धति थी। जबकि अब राजा खुद शोषित था और वह भी शोषण कर रहा था। प्रजा की राज से दूरी बढ़ी, तो गुलामी का स्तर भी बढ़ा। आजादी केवल अँग्रेज़ों से हुई है, इसका इतना ही अर्थ हमें समझना चाहिये। गुलामी थोड़े ही गयी है। पहले ‘गोरे अंग्रेजों’ के गुलाम थे, अब ‘काले अँग्रेज़ों’ के। लेकिन गुलामी से असली परेशानी क्या है? दरअसल, नये राजाओं के प्रति ‘स्वामीभक्ति’ के कारण ‘राष्ट्रनिर्माण’ और ‘राष्ट्रभक्ति’ नहीं हो पा रही है। गुलामी के कारण कर्मचारी-अधिकारी अपने से वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ बोल नहीं पा रहे हैं। गुलामी के कारण ‘स्वतन्त्र चिन्तन’ विकसित नहीं हो पा रहा है। शासन के सारे अंग गुलामी की दीमक के काटने से क्षत विक्षत होते जा रहे हैं। गुलामी के अंधेरे में खो जाने से भविष्य संकट में नजर आता है।
इलाज ? बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा ऐसे वातावरण का निर्माण हो, जो भारत में स्वतन्त्रता से ओतप्रोत पीढ़ी खड़ी कर सके, जो ‘स्वामीभक्त’ न होकर ‘राष्ट्रभक्त’ हो। गुलामी की ज़ंजीरें टूटेंगी, तो ही विश्व के मुक्त आकाश में भारतीय सोने की चिड़िया उड़ पायेगी। वरन् हम घर की छत को ही आकाश समझते रहेंगे।