आज मूल प्रश्र यही है, जिस पर गम्भीरता से मंथन-चिंतन होना चाहिये। हल्की-फुल्की-छिछली बातों से ऊपर उठकर इस पर विचार करना चाहिये, कि आखिर आज के हालतों को देखते हुए भारत किस तरफ जा रहा है। क्या हम वाकई में एक विश्वशक्ति बनने जा रहे हैं या हमने ठगने के लिए ही यह बात विकसित देश कह रहे हैं? क्या हम फिर से शोषण को तैयार बाजार बनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं? क्या हमें नहीं लगता कि हम विकसित देशों की फैक्ट्रियों के लिए आवश्यक जमीन, कच्चा माल और मजदूर उपलब्ध कराने में लगे हैं और उनके उत्पादों, उनकी वस्तुओं के लिए ग्राहक जुटाने में लगे हैं? क्या इसी को हम ऊँची विकास दर कहकर जनता को भुलावे में रख रहे हैं ?
इतिहास के झरोखे से पता नहीं क्यूं, भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार के खेल से मैं परेशान हो रहा हूँ। मुझे परेशानी तब अधिक होती है, जब भ्रष्टाचार के विरूद्ध वे लोग बोल रहे हैं, जो खुद गले तक भ्रष्टाचार में डूबे हैं। मुझे डर है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध इस थोथी लड़ाई में, नाटक में हमारा मूल प्रश्र न दब जाये, जैसा 1947 और 1977 में हो गया था। 1947 के सत्ता हस्तान्तरण को हमने आजादी कहकर इसी मूल प्रश्र को दबा कर रख दिया था। आज के ‘भ्रष्टाचार’ शब्द की तरह उस वक्त ‘आजादी’ शब्द ‘विकास’ को, ‘उत्पादन’ को खा गया था। 1977 में भी सम्पूर्ण क्रांति की जगह सम्पूर्ण भ्रांति फैली, तो हालात और खराब हो गये थे। राजनैतिक अस्थिरता के दौर में हम ऐसे फंसे कि 80 के दशक में विदेशियों की चाल में फंस गये। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के नये शब्दों ने हमें जकड़ लिया और एक उत्पादक देश बनने के हमारे अधूरे पड़े कार्य को रोक दिया। 1947 में सत्ता के उस पार लोग इधर आ गये, 1977 में भी ऐसा ही हुआ। इससे अधिक कुछ नहीं हो पाया। क्या आज भी केवल इतनी भर इच्छाएँ हैं ?
मित्रों, मैं कई विद्वानों से पूछता हूँ कि इतिहास विषय क्यों पढ़ाया जाता है? मुझे इसका जवाब ठीक से नहीं मिलता है। क्योंकि पढ़ाने वाले ‘बस यूं ही’ पढ़ा देते हैं और पढऩे वाले भी ‘यूं ही’, ‘सरलता के लिए’ या डिग्री के लिए पढ़ लेते हैं। यह खतरनाक, भयावह स्थिति है, क्योंकि इतिहास को ठीक से पढ़ायेंगे, तो देश बदल सकता है, आगे बढ़ सकता है। और अगर इसमें गलती हो गयी, तो देश गर्त में जा सकता है, जैसा हमारे साथ हो रहा है। इतिहास की किताबों में विवेकानन्द, अरविंद, सुभाष और भगतसिंह जैसे चरित्र भर दीजिये, देशभक्तों की पीढ़ी खड़ी हो जायेगी। भले ही डिग्री लेने के लिए पढ़ेंगे, इन महान् आत्माओं के चिन्तन के प्रभाव से छात्र बच नहीं पायेंगे। दूसरी तरफ आप किताबों में सल्तनत, मुगलकाल और गुलाम राजाओं की कहानियाँ भर दीजिये, गुलामी की भावना मन में भर जायेगी। और ठीक-ठाक अभी हमने यह कर रखा है। एक तो 70 प्रतिशत छात्र इतिहास विषय ले लेते हैं और वे भी 90 प्रतिशत से अधिक गुलामी से भरा, झूठा इतिहास पढ़ते हैं। ऐसे-ऐसे लोगों को आदर्श समझ कर पढ़ते हैं, जिनका जिक्र तक उनके सामने नहीं होना चाहिये।
खैर! यहाँ इतिहास का सन्दर्भ कैसे आया? वर्तमान हालातों को इतिहास के चश्मे से कैसे देंखे? क्या वहाँ उत्तर मिलेंगे? जी हाँ! मानव स्वभाव नहीं बदलता है। वह समान परिस्थितियों में एक जैसा व्यवहार करता है। समाज शास्त्र और मनोविज्ञान के विषय इस व्यवहार की काफी हद तक व्याख्या कर देते हैं। विकसित देश इन विषयों पर शोध करते हैं और स्थितियों को समझने में उन्हें इससे सहायता भी मिलती है। हमने तो कॉलेज-यूनिवर्सिटी लगभग बंद सी कर दी हैं। इसलिए इन विषयों का हम कैसे उपयोग करेंगे? ये विषय बताते हैं कि आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक, जबकि किसी देश, किसी सभ्यता या सम्पूर्ण विश्व में राजनैतिक-आर्थिक अस्थिरता आती है, तब अधिकांश जनता घबराने लगती है। लोगों का आत्मविश्वास डोलने लगता है और वे अपने प्रश्रों का उत्तर कई जगह ढूंढऩे लगते हैं। ध्यान रखिये, अस्थिरता राजनैतिक भी हो सकती है और आर्थिक भी हो सकती है। एक अनिश्चितता का अहसास चारों तरफ होता है। ऐसा मिश्र, भारत, चीन, यूनान या रोम की सभ्यताओं के समय भी हुआ, कई गणराज्यों के शासनों में हुआ, विश्व में कई क्रांतियाँ भी इसी कारण हुई। उथल-पुथल के कारण हमेशा गहरे रहते हैं।
अस्थिरता के दौर
भारत में पहली बार बड़ी उथल पुथल हुई, जब एक हजार वर्ष पहले पश्चिम से भारत पर आक्रमण होने लगे। देशी गणराज्यों की फूट और बुद्धिजीवी वर्ग की निष्क्रियता अपनी चरम सीमा पर थी। देश को सम्भालने वाले लोगों की अचानक कमी आ गयी थी। हालांकि सिकन्दर का हमला पहले हो चुका था, परन्तु तक्षशिला और नालन्दा के विश्वविद्यालय देश को बुद्धिजीवी देते रहे, जो शासन को निर्देशित करते रहे। भारत को सम्भालते रहे। चाणक्य एक सशक्त उदाहरण हैं। लेकिन गजनवी और गौरी ने जब निर्णायक वार किये, तब बुद्धिजीवी वर्ग निष्क्रिय था, ज्ञान के झूठे अहंकार में था, अंधविश्वास फैला रहा था, देश को बांट रहा था, समाज को तोड़ रहा था। आज लगभग वही स्थिति है! और जब देश का मनोबल टूटा, राजनैतिक अस्थिरता आयी, आर्थिक संकट आया, शोषण बढ़ा, धार्मिक आस्थाओं पर चोट लगी, तो जनता अपने प्रश्रों के उत्तर ढूंढ़ने लगी। जब राजनैतिक नेतृत्व उनके उत्तर नहीं दे पाया, तो जनता ने गुलामी भी ओढ़ ली। शोषण को अपनी किस्मत से जोड़ लिया।
इस स्थिति में कई संत महात्मा, लोकदेवता-देवियाँ देश में हुए। ध्यान रखें, इसी अस्थिरता के दौर में। वैष्णव सम्प्रदाय पूरे देश में फैला। रामानन्द, कबीर, नानक, चैतन्य महाप्रभु आदि संत, जनता को दिलासा देने लगे, भरोसा देने लगे। राजनैतिक नेतृत्व से आस नहीं रही, तो धार्मिक नेतृत्व ने साथ दिया। परन्तु याद रहे, धार्मिक नेतृत्व कभी भी राजनैतिक या आर्थिक नेतृत्व का विकल्प नहीं होता है। धर्म केवल दिशा दे सकता है, शासन का स्थान नहीं ले सकता है। यह समाज की चिरकालिक व्यवस्था है कि अलग-अलग विषयों की अपनी व्यवस्था होती है। समाज की अलग, धर्म की अलग, शासन की या अर्थ जगत की अलग। एक दूसरे से सब जुड़े हैं, परन्तु एक-दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते। जब भी आप विकल्प बनायेंगे, तो गड़बड़ होगी। नुकसान ही होगा, फायदा नहीं होगा।
गुलामी में शांति
आगे मुगलों के राज में राजनैतिक स्थिरता रही थी। साथ ही हमारे यहाँ ‘गुलामी की बौद्धिक परम्परा’ भी स्थापित हो गयी थी। अकबर को महान् कह दिया गया। गलतफहमी ने अकबर ने अपने आपको अवतार मानकर एक नये धर्म दीन-ए-इलाही की घोषणा भी कर दी थी। लेकिन इस दौर में नये संत-महात्मा-सम्प्रदाय-लोकदेव नहीं बने। राजनैतिक स्थिरता के कारण। आप इन देवताओं, फकीरों और समुदायों की तारीखों को टटोलेंगे, तो बड़ा रोचक अनुभव होगा। बुद्धिजीवियों ने गुलामी की जगह इस समय ‘स्वामिभक्ति’ का शब्द रच लिया था, जिसका अब भी सफलता से राजनैतिक क्षेत्र में प्रयोग हो रहा है। इन्हीं बुद्धिजीवियों के वंशजों ने आगे चलकर इंदिरा गांधी को दुर्गा का अवतार, राजीव गांधी को विकास पुरूष, सोनिया गांधी को त्याग की मूर्ति और राहुल गांधी को भारत का भविष्य बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
विद्रोह के स्वर
मुगल गये तो कुछ चिंता हुई लेकिन हम गुलामों को ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने संभाल लिया। हम कम्पनी राज की गुलामी में फिर मस्त हो गये लेकिन 1857 आते-आते ईस्ट इण्डिया कम्पनी की पकड़ देश पर कमजोर हुई, तो अस्थिरता फिर फैली। विद्रोह हो गया। नये अवतार उभरे। बहादुरशाह, लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे। 50-60 वर्ष की शान्ति रही, लेकिन बंगाल विभाजन ने फिर बखेड़ा कर दिया। भारत में क्रांति के बीज पड़ गये। अंग्रेज घबराकर राजधानी को 1911 में दिल्ली ले गये। थोड़ी साँस ली ही थी कि प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध ने अंग्रेजों को हिलाकर रख दिया। फिर जनता में बैचेनी फैली। शासक परेशान तो जनता भी परेशान हुई। उसे इसी प्रकार समझिये। हमें जो पढ़ाया गया है, उससे हटकर समझिये। हमारे शासक थे अंग्रेज। हम उनकी गुलामी में आराम से जीवन बसर कर रहे थे। लेकिन जब उन्हें योरोप में संकट में देखा, तो हमारा विश्वास डगमगाया। क्या अंग्रेज विश्व के सबसे ताकतवर लोग नहीं है? पहली बार यह प्रश्र दिमाग में आया, वरन् हम तो उन्हें अपना ‘भाग्य विधाता’ कह चुके थे। भारत भाग्य विधाता? कितने मन से हमने गाया था और आज भी जैसे उसी गुलामी की खुमारी में गाते हैं! इसी समय महात्मा गांधी ने अवतार लिया था। पेंट-शर्ट या पायजामे-कुर्ते में हमें अवतार दिखाई नहीं देता था, तो गांधी जी ने लंगोटी-धोती पहन ली। हमने सहजता से मोहनदास जी के इस रूप को स्वीकार कर लिया। गांधी जी हमें 1947 की अराजक स्थिति में छोडक़र चल दिये और हम अंग्रेजों की जगह नेहरूजी के गीत गाने लगे।
वर्तमान हालात
मैं बात को किस तरफ खींच रहा हूँ। या यूं ही बढ़ाये जा रहा हूँ? मैं वहीं आ रहा हूँ, जहाँ से बात शुरू की थी। देश में राजनैतिक नेतृत्व की कमी है। आप कह सकते हैं कि इतने नेता है तो सही। जी नहीं, ये नेता नहीं पिछलग्गू हैं। इनकी आँखों में, चाल-ढाल में अभी भी जनता को स्थिर शासन का आभास नहीं हो रहा है। इनकी भाषा में धोखा नजर आता है, इनकी बातों पर विश्वास नहीं होता। आर्थिक हालात ठीक नहीं है। बेरोजगारी, महंगाई मध्यम और निर्धन वर्ग को रोज खून के आंसू रूलाती है। खेती का उत्पादन कम हो रहा है और किसान की बात कोई नहीं कर रहा। मजदूरों की बजाय अब कम्पनियाँ अधिक प्रिय हो गयी हैं। हाथ के कारीगर अपने अस्त्र-औजार बक्सों में भरकर उद्योग जगत से विदाई ले रहे हैं। ऐसे में भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार के नाटक के बहाने नये अवतारों की खोज जारी है। भ्रष्टाचार तो केवल अव्यवस्थाओं का लक्षण है। गलत धारणा पकड़े लोग भ्रष्टाचार को बीमारी मानकर इसके पीछे पड़े हैं। वे पहले भ्रष्टाचार को खत्म करना अनिवार्य मानते हैं। इसे ही अव्यवस्थाओं का कारण मान बैठे हैं। जबकि अव्यवस्थाएँ, मूल बिमारी है। उन्हें ठीक करते ही भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा।
राजनैतिक-आर्थिक क्षेत्रों की स्थिरता के लिए देश की जनता और बुद्धिजीवी क्या कर पाते हैं, यही हमारे भविष्य का निर्धारण करेगा। जो लोग इस अस्थिरता और असंतोष की लहर पर सवार होकर सत्ता में आना चाहते हैं, उन्हें पूरी तैयारी करनी होगी, पूरी योजना और समर्पण से आगे बढऩा होगा। तभी भारत के पुननिर्माण का, वास्तविक विकास का लक्ष्य हासिल होगा। वरन् इस अवतारवाद, के सहारे ‘अवसरवाद’ की नीति पर चले तो, 1947 और 1977 दोहरा दिया जायेगा। मात्र सत्ता हस्तान्तरण से तो अराजकता ही आयेगी।
वंदे मातरम्।