यह पहली बार नहीं है कि भ्रष्टाचार पर इतना हल्ला मचा है। भ्रष्टाचार आलोचकों का मनपसन्द मुद्दा हुआ करता है। एक तरह से यह फैशन सा बन गया है कि समस्याओं की जड़ में भ्रष्टाचार बता दो, तो विवाद संक्षिप्त हो जाता है। ‘रोचक राजस्थान’ में प्रत्येक समस्या की तह तक जाना ही लक्ष्य रहता है और जब भ्रष्टाचार पर इतने लोग ‘चिंतित’ हैं, तो हमारी लेखनी इस विषय पर भी चलनी चाहिये।
भ्रष्टाचार – मात्र एक लक्षण भ्रष्टाचार के बारे में हम कुछ कटु सत्यों से बात शुरू करेंगे, तो विषय की गम्भीरता स्पष्ट हो जायेगी। हमारी दिलचस्पी अखबारी औपचारिकताओं में कदापि नहीं है। पहली बात हमें यह जान लेनी चाहिये कि भ्रष्टाचार मूल बीमारी नहीं है। यह तो एक लक्षण मात्र है।
जैसे किसी व्यक्ति को बुखार हो और हम कहें कि ‘बुखार’ की बीमारी है, तो यह गलत होगा। बुखार तो एक लक्षण, जो किसी बीमारी को इंगित करता है। यह मलेरिया, टाइफॉइड या अन्य बीमारी के कारण हो सकता है। आप बुखार की गोली से केवल लक्षण का इलाज कर मरीज को राहत दे सकते हैं, बीमारी खत्म नहीं होगी। बल्कि आप यह भी समझ लीजिये कि बुखार को उतारने के प्रयास में आप बीमारी को गम्भीर भी बना सकते हैं। मलेरिया का इलाज क्विनेन है, टॉयफॉइड का इलाज एन्टीबायोटिक है और ये बीमारियाँ तभी जड़ से खत्म होंगी, जब आप ये दवाईयां देंगे। लेकिन भ्रष्टाचार पर इतनी चर्चा हो रही है और मूल बात पर हम नहीं जा रहे हैं। या जाना नहीं चाहते, क्योंकि तब हम सभी लपेटे में आते हैं। फिर आलोचना का मजा छिनने का खतरा भी है। मूल समस्या सामाजिक मूल्यों की है। भारत में धन और पद का मूल्य इस क़दर बढ़ गया है कि प्रत्येक व्यक्ति इन मूल्यों पर खरा उतरना चाहता है। धन ही नहीं, धन के दिखावे का मूल्य भी बढ़ गया है। आप जानते हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है और भारतीय व्यक्ति तो वैसे भी सामूहिकता में अधिक विश्वास करता है। एकांकी जीवन या सोच के हम आदि नहीं है। जो सब करें, वही हमें करना है, सही हो या गलत। इसी भीड़ की भावना को हम लोकतंत्र भी कह देते हैं और बुराई को छिपा लेते हैं। यही हाल पैसे का है। किसी भी तरह से आये, पैसे को हमने अधिक मान दे रखा है। उस पैसे के दिखावे के रूप में हमने मकान, सोना, गाड़ी, विवाह व अन्य समारोहों में खर्च आदि को मान्यता दे रखी है। आपका ज्ञान या कला अब महत्वपूर्ण नहीं है। किसी को आपके ज्ञान या कला में दिलचस्पी नहीं है। आपके पास धन कितना है, यह मायने रखता है। और जब समाज के अधिकांश लोग ऐसा करने लगें, तो आप अपने आपको कितना रोकेंगे? तर्क-कुतर्क देकर भी आप धन और पद अर्जित करना चाहेंगे। चाहे तो रिश्वत खाकर या देकर और चाहे तो कर चोरी करके, आपको पैसा चाहिये। इतना कि समाज में अकड़ कर चल सकें। समस्या यही तो है। हमारे समाज के सबसे अधिक प्रतिभाशाली लोग आई.ए.एस., डॉक्टर या इंजीनियर बनने के बाद भी उन पदों से संतुष्ट नहीं है। उन्हें तुरन्त खूब सारा पैसा चाहिये, जिसे वह अपने समाज में दिखाकर प्रतिष्ठा पा लें। बड़ा मकान, बड़ी गाड़ी ले लें, बड़े समारोह आयोजित कर लें। दूसरा तबक़ा व्यापार में है और वे भी सरकार को कम से कम टैक्स (कर) देकर धनी बनना चाहते हैं। तीसरा तबक़ा राजनेताओं का है, जिनको धन भी चाहिये और पद भी है। उनका जीवन इसी खिलाड़ी को पकाने में खत्म हो रहा है। आप भारत की इन सभी प्रतिभाओं को ‘दोषी’ कहें, ‘चोर’ कहें, ‘नालायक’ कहें, परन्तु हम सब इनसे जुड़े हैं, इनके साथ रहना चाहते हैं, अपने बच्चों के रिश्ते इनसे करना चाहते हैं, इनके द्वारा आयोजित समारोह में जीमने से कभी नहीं चूकते। फिर गलती किसकी है? हमारे मोहल्ले में रहने वाले प्रोफेसर, लेखक या कवि या चित्रकार को हम कहाँ सम्मान दे रहे हैं। ऐसे में हमारे प्रतिभावान बच्चे क्यों चित्रकार, अध्यापक या लेखक बनना चाहेंगे, जिन्हें किसी भी समारोह में मुख्य अतिथि नहीं बनाया जाता। मैं भ्रष्ट लोगों पर दया करता हूँ, क्योंकि भारत की इन प्रतिभाओं को व्यवस्था ने भ्रष्टाचार की खाई में धकेल दिया है। हम इनसे संन्यासी बने रहने की अपेक्षा करते हैं और मेनकाओं को इनके चारों ओर नचा रहे हैं। प्रत्येक मनुष्य इतना शक्तिशाली नहीं हो सकता कि वातावरण को झुठला दे।
या यह भी हो सकता है कि आपको भ्रष्ट बनने का मौका हाथ नहीं लगा हो और आप जिनको मौका लगा है, उस पर अपनी कुंठा जाहिर कर रहे हों। सूचना के अधिकार का उपयोग अधिकांश लोगों ने भ्रष्टाचार में भागीदारी के लिए कर भी लिया है। लग गया एक विकल्प हाथ, भ्रष्ट होने का। नरेगा ने भी भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण कर एक मजदूर को भी इसमें भागीदार बनने का मौका दे दिया है। पंचायती राज में भी सत्ता का नहीं, योजना निर्माण का नहीं, मात्र भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण हुआ है। और बस यहीं पर बात रोकेंगे कि वातावरण बदलें, मूल बीमारी को खत्म करें, भ्रष्ट कोई नहीं बनना चाहेगा।
या यह भी हो सकता है कि आपको भ्रष्ट बनने का मौका हाथ नहीं लगा हो और आप जिनको मौका लगा है, उस पर अपनी कुंठा जाहिर कर रहे हों। सूचना के अधिकार का उपयोग अधिकांश लोगों ने भ्रष्टाचार में भागीदारी के लिए कर भी लिया है। लग गया एक विकल्प हाथ, भ्रष्ट होने का। नरेगा ने भी भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण कर एक मजदूर को भी इसमें भागीदार बनने का मौका दे दिया है। पंचायती राज में भी सत्ता का नहीं, योजना निर्माण का नहीं, मात्र भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण हुआ है। और बस यहीं पर बात रोकेंगे कि वातावरण बदलें, मूल बीमारी को खत्म करें, भ्रष्ट कोई नहीं बनना चाहेगा।
आम आदमी बेखबर यहीं पर दूसरी महत्वपूर्ण बात आती है। भ्रष्टाचार से आम आदमी अब परेशान नहीं है। वह सड़कों पर नहीं उतर रहा है। अखबार और तथाकथित बुद्धिजीवी ही चिल्ला रहे हैं कि देश में इतना भ्रष्टाचार है। आम आदमी ने भ्रष्टाचार को अपने भाग्य का हिस्सा उसी तरह मान लिया है, जिस प्रकार सल्तनत, मुग़लिया या अंग्रेजी राज के शोषण को। इसीलिए आजादी की व्यापक लड़ाई हमारे यहाँ नहीं लड़ी गयी थी और लगभग मुफ्त में सत्ता का हस्तान्तरण हो गया था। आम आदमी ने मान लिया है कि यहाँ सब भ्रष्ट हैं। जैसे-तैसे जीवन गुजारा और चुपचाप चलते रहो। गांधी-नेहरू की बात मानी, तो भी कुछ नहीं निकला, इंदिरा-संजय ने भी यही किया। जे. पी. से उम्मीद बंधी, तो उसका भी परिणाम आम आदमी के लिए अच्छा नहीं रहा। अब वह इस झाँसे में नहीं आ रहा है कि कोई व्यक्ति या दल भ्रष्टाचार को खत्म करने में गम्भीर है।
आम आदमी की इस बेरुखी को मैं और स्पष्ट कर देता हूँ। मैं बाबा रामदेव और कई अन्य महारथियों की भ्रष्टाचार के खिलाफ इसी 30 मार्च की रैली पर टकटकी लगाकर बैठा था। मुझे शंका थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस ‘महायुद्ध’ का अधिक अर्थ शायद ही निकले। लेकिन दिन भर चैनल बदलने पर कहीं-कहीं कार्यक्रम की झलक मिल पा रही थी। राष्ट्रीय समाचारों में यह प्रयास मुख्य ख़बरों में सम्मिलित नहीं था। लगभग 1500 व्यक्ति दिल्ली में इकट्ठे हुए थे और तस्वीरों से लग रहा था, कि एनजीओ द्वारा इन्हें जुटाया गया था। दिल्ली के आम आदमी का इस कार्यक्रम से अलगाव ही रहा था। एक करोड़ से अधिक लोगों के शहर में मात्र 1500 व्यक्ति, और वह भी किराये के, जुटना क्या संकेत है? हमें इसे समझना होगा। मैं यह भी सोच रहा था कि यह बाबा रामदेव अगर विदेश में छिपे काले धन के साथ देश में व्याप्त काले धन की खिलाफ बोलने लगे, तो शायद उनकी हालत खराब हो जायेगी। दुकानों के बाहर अखबार पढ़ते व्यापारी तब बाबा के प्रशंसक नहीं, रह पायेंगे। मैं यह भी अनुमान लगा रहा था कि किरण बेदी जब पुलिस अधिकारी थीं, तो क्या उनके अधीन काम करने वाली पुलिस ने रिश्वत लेना बंद किया होगा। शायद ऐसा नहीं हुआ होगा। वे स्वयं ईमानदार वैसे ही रही होंगी, जैसे मनमोहन सिंह हैं। कीचड़ के बीच कुर्सी लगाकर आप बैठ जायें और कहें कि आप पर दाग नहीं है, तो इससे समाज को क्या फायदा। आप अपनी छवि चमकाते रहो। कीचड़ को साफ क्यों नहीं करते? आपकी ईमानदारी से व्यवस्था पर क्या फर्क पड़ा? यह तो हमारा दुर्भाग्य है कि यहाँ ईमानदार रहना ही, एक उपलब्धि मानी जाती है। जबकि उपलब्धि तो उसे कहना चाहिये, जिसके कारण व्यवस्था में कोई स्थायी परिवर्तन हो पाया हो। मैं अरूणा राय को भी वहाँ देखकर हंस पड़ा। सोनिया गाँधी की सलाहकार परिषद् की सदस्य भी यहाँ भ्रष्टाचार पर भाषण दे रही थीं। इतना दोगलापन?
कुछ बुद्धिजीवियों के अख़बारों में लेख पढ़कर भी हंसी आती है। कुलदीप नैयर, इन्दर मल्होत्रा आदि को यह परेशानी है कि जनता को साँप सूँघ गया है। वे कहते हैं कि समझ नहीं आता, लोक खुलकर भ्रष्टाचार का विरोध क्यों नहीं कर रहे। अब जब आपको देश की जनता की सोच समझ में नहीं आ रही है, तो आप कैसे बुद्धिजीवी हैं? आप कौनसी दुनिया में रहते हैं? आप खुद बाहर निकलने से डरते हैं और दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि वे आपके जीवन को बेहतर बना दें। कब तक इस मुगालते में जिया जा सकता है? भ्रष्टाचार का इलाज आपको यह न लगे कि मैं भ्रष्टाचार के समर्थन में तर्क दे रहा हूँ। भ्रष्टाचार खत्म करने के वर्तमान तरीके (?) जारी रहें और साथ में इस बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए दीर्घकालीन उपाय भी शुरू किये जाने चाहिए। इसलिए अब अंत में भ्रष्टाचार को खत्म करने का मेरा सुझाव आपके सामने रख दूं।
पहले तो प्रदेश और देश के बुद्धिजीवियों को यह कोशिश करनी है कि ज्ञान और कला की कद्र का वातावरण बन सके। ‘अभिनव राजस्थान’ के हमारे अभियान में हम यही करेंगे। विद्वानों और कलाकारों का हम सम्मान करेंगे, उनकी मार्केटिंग भी करेंगे। अच्छाई भी मार्केटिंग माँगती है और ऐसा नहीं करके हम बुराई से हार रहे हैं। बुरे लोग, अपनी बुराई को भी अच्छाई के रूप में, मार्केटिंग के दम पर पेश कर रहे हैं। इसीलिए कोकाकोला, गुटखा, घटिया फिल्में, गाने और खादीधारी नेता वातावरण में छाये पड़े हैं। ‘अभिनव समाज’ में ऐसा नहीं होगा। दूसरे हमें वैकल्पिक शासकीय व्यवस्थाओं का निर्माण करना होगा, ताकि सरकार का मतलब केवल जनता को परेशान करना न रह जाये। यह काफी गंभीर कार्य होगा और अभिनव राजस्थान में ‘अभिनव शासन’ के रूप में हम इसे सामने लायेंगे। केवल शासन की आलोचना से हम पीछा नहीं छुड़ायेंगे, बल्कि शासकीय ढाँचे को नये सिरे से निर्मित कर जनता से इसका जुड़ाव पैदा करेंगे। जनता से शासन की दूरी कम करेंगे।
और अंत में यही कहूँगा कि आज के समय में भ्रष्टाचार की रेखा को काटकर कम नहीं किया जा सकेगा। इतनी गहराई तक हमारे खून में भ्रष्टाचार घुस गया है। ‘अभिनव राजस्थान’ में हम ईमानदारी की रेखा को भ्रष्टाचार की रेखा से लम्बा खींचकर भ्रष्टाचार की रेखा को बिना काटे ही छोटी कर देंगे। या कहिये कि भ्रष्टाचार की दीवार के चारों ओर खाई खोदकर उसमें पानी डाल देंगे। भ्रष्टाचार तभी खत्म होगा।
आम आदमी की इस बेरुखी को मैं और स्पष्ट कर देता हूँ। मैं बाबा रामदेव और कई अन्य महारथियों की भ्रष्टाचार के खिलाफ इसी 30 मार्च की रैली पर टकटकी लगाकर बैठा था। मुझे शंका थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस ‘महायुद्ध’ का अधिक अर्थ शायद ही निकले। लेकिन दिन भर चैनल बदलने पर कहीं-कहीं कार्यक्रम की झलक मिल पा रही थी। राष्ट्रीय समाचारों में यह प्रयास मुख्य ख़बरों में सम्मिलित नहीं था। लगभग 1500 व्यक्ति दिल्ली में इकट्ठे हुए थे और तस्वीरों से लग रहा था, कि एनजीओ द्वारा इन्हें जुटाया गया था। दिल्ली के आम आदमी का इस कार्यक्रम से अलगाव ही रहा था। एक करोड़ से अधिक लोगों के शहर में मात्र 1500 व्यक्ति, और वह भी किराये के, जुटना क्या संकेत है? हमें इसे समझना होगा। मैं यह भी सोच रहा था कि यह बाबा रामदेव अगर विदेश में छिपे काले धन के साथ देश में व्याप्त काले धन की खिलाफ बोलने लगे, तो शायद उनकी हालत खराब हो जायेगी। दुकानों के बाहर अखबार पढ़ते व्यापारी तब बाबा के प्रशंसक नहीं, रह पायेंगे। मैं यह भी अनुमान लगा रहा था कि किरण बेदी जब पुलिस अधिकारी थीं, तो क्या उनके अधीन काम करने वाली पुलिस ने रिश्वत लेना बंद किया होगा। शायद ऐसा नहीं हुआ होगा। वे स्वयं ईमानदार वैसे ही रही होंगी, जैसे मनमोहन सिंह हैं। कीचड़ के बीच कुर्सी लगाकर आप बैठ जायें और कहें कि आप पर दाग नहीं है, तो इससे समाज को क्या फायदा। आप अपनी छवि चमकाते रहो। कीचड़ को साफ क्यों नहीं करते? आपकी ईमानदारी से व्यवस्था पर क्या फर्क पड़ा? यह तो हमारा दुर्भाग्य है कि यहाँ ईमानदार रहना ही, एक उपलब्धि मानी जाती है। जबकि उपलब्धि तो उसे कहना चाहिये, जिसके कारण व्यवस्था में कोई स्थायी परिवर्तन हो पाया हो। मैं अरूणा राय को भी वहाँ देखकर हंस पड़ा। सोनिया गाँधी की सलाहकार परिषद् की सदस्य भी यहाँ भ्रष्टाचार पर भाषण दे रही थीं। इतना दोगलापन?
कुछ बुद्धिजीवियों के अख़बारों में लेख पढ़कर भी हंसी आती है। कुलदीप नैयर, इन्दर मल्होत्रा आदि को यह परेशानी है कि जनता को साँप सूँघ गया है। वे कहते हैं कि समझ नहीं आता, लोक खुलकर भ्रष्टाचार का विरोध क्यों नहीं कर रहे। अब जब आपको देश की जनता की सोच समझ में नहीं आ रही है, तो आप कैसे बुद्धिजीवी हैं? आप कौनसी दुनिया में रहते हैं? आप खुद बाहर निकलने से डरते हैं और दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि वे आपके जीवन को बेहतर बना दें। कब तक इस मुगालते में जिया जा सकता है? भ्रष्टाचार का इलाज आपको यह न लगे कि मैं भ्रष्टाचार के समर्थन में तर्क दे रहा हूँ। भ्रष्टाचार खत्म करने के वर्तमान तरीके (?) जारी रहें और साथ में इस बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए दीर्घकालीन उपाय भी शुरू किये जाने चाहिए। इसलिए अब अंत में भ्रष्टाचार को खत्म करने का मेरा सुझाव आपके सामने रख दूं।
पहले तो प्रदेश और देश के बुद्धिजीवियों को यह कोशिश करनी है कि ज्ञान और कला की कद्र का वातावरण बन सके। ‘अभिनव राजस्थान’ के हमारे अभियान में हम यही करेंगे। विद्वानों और कलाकारों का हम सम्मान करेंगे, उनकी मार्केटिंग भी करेंगे। अच्छाई भी मार्केटिंग माँगती है और ऐसा नहीं करके हम बुराई से हार रहे हैं। बुरे लोग, अपनी बुराई को भी अच्छाई के रूप में, मार्केटिंग के दम पर पेश कर रहे हैं। इसीलिए कोकाकोला, गुटखा, घटिया फिल्में, गाने और खादीधारी नेता वातावरण में छाये पड़े हैं। ‘अभिनव समाज’ में ऐसा नहीं होगा। दूसरे हमें वैकल्पिक शासकीय व्यवस्थाओं का निर्माण करना होगा, ताकि सरकार का मतलब केवल जनता को परेशान करना न रह जाये। यह काफी गंभीर कार्य होगा और अभिनव राजस्थान में ‘अभिनव शासन’ के रूप में हम इसे सामने लायेंगे। केवल शासन की आलोचना से हम पीछा नहीं छुड़ायेंगे, बल्कि शासकीय ढाँचे को नये सिरे से निर्मित कर जनता से इसका जुड़ाव पैदा करेंगे। जनता से शासन की दूरी कम करेंगे।
और अंत में यही कहूँगा कि आज के समय में भ्रष्टाचार की रेखा को काटकर कम नहीं किया जा सकेगा। इतनी गहराई तक हमारे खून में भ्रष्टाचार घुस गया है। ‘अभिनव राजस्थान’ में हम ईमानदारी की रेखा को भ्रष्टाचार की रेखा से लम्बा खींचकर भ्रष्टाचार की रेखा को बिना काटे ही छोटी कर देंगे। या कहिये कि भ्रष्टाचार की दीवार के चारों ओर खाई खोदकर उसमें पानी डाल देंगे। भ्रष्टाचार तभी खत्म होगा।