इधर सुनता हूँ कि मोदीजी से जितनी और जैसी उम्मीद थी, वैसा कुछ हुआ नहीं.
फिर सुनता हूँ कि अरविन्द केजरीवाल भी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे.
राजस्थान को लेकर अब वसुंधरा राजे से नाराजगी भी कई लोग दर्शाते हैं.
आजकल राहुल गांधी की तरफ फिर से कईयों की नजर है.
आखिर यह माजरा क्या है ? निराशा की जड़ कहाँ है ?
मोदीजी के मसले पर जब मैं statement जारी करने वालों से पूछ्त्ता हूँ कि आपके परिवार या गांव-शहर की क्या उम्मीद थी जो पूरी नहीं हुई तो वे स्पष्ट नहीं हैं. बस यूं ही, जैसा सोचा था, वैसा हुआ नहीं. क्या नहीं हुआ ? कोई झेंप में काले धन का नाम लेकर अपनी ego बचाने में खैर समझता है तो कोई बेरोजगारी कम नहीं होने की बात कहकर.
और अरविन्द से निराशा क्यों है ? बस मीडिया में जो देख रहे हैं, उससे लगता है कि यह भी वादे पूरे नहीं कर पायेगा. कौनसे वादे ? छोड़ो यार, ये तो आपस में ही लड़ रहे हैं. तो ? बस !
दरअसल समस्या यह है मित्रों कि गुलाम मानसिकता से भरे इस देश के लोग आज भी खुद जिम्मेदारी लेने से बचते हैं और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए छद्म अवतार तलाशते रहते हैं. देशी-विदेशी कोर्पोरेट घराने और उनके इशारे पर मीडिया समय समय पर अपनी सुविधा से ऐसे अवतार परोसते हैं. कभी इंदिरा, कभी जे पी, कभी वी पी, कभी राजीव तो कभी अन्ना-बाबा-मोदी-अरविन्द. इससे ज्यादा कहानी में गहराई नहीं है, समस्या की जड़ यहीं है.
अभिनव राजस्थान अभियान भारत में पहली बार नागरिक गढ़ने और जिम्मेदारी ओढने के कठिन मार्ग पर है. यही असली मार्ग है जो लोकनीति के माध्यम से हमें समाधान तक ले जायेगा. बाकी राजनीति की अंधी गलियां हैं जो एक जगह जाकर बंद हो जाती हैं. निराशा में हम वापस लौटते हैं. खुद के जिम्मेदारी तय होते ही हम मोदीजी और अरविन्द जी से बेहतर काम ले पाएंगे. उनसे हमको काम लेना है जबकि हम मान बैठे हैं कि वे हमसे काम लेकर देश को स्वर्ग बनायेंगे.
छद्म अवतारवाद से दूर जनजागरण की ओर,
जनजागरण से स्वशासन की ओर,
स्वशासन से वास्तविक विकास की ओर.
राजनीति से लोकनीति की ओर.
आपां नहीं तो कुण ? आज नहीं तो कद ?
वंदे मातरम !
वंदे मातरम !
सटीक विश्लेषण !
अंधेरे से उजाले की और! वास्तविकता के धरातल पर.
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