क्या हम भ्रष्टाचार के अधिक गहरे कारणों की उपेक्षा नहीं कर रहे हैं? मेरा दृढ़ विश्वास है कि हम ऐसा ही कर रहे हैं। हम उथलेपन की यह अपनी मौजूदा संस्कृति में इतने रचे-बसे हैं कि थोड़ी देर को ठहरकर यह भी नहीं सोचते कि भ्रष्टाचार से सम्बन्धित कानूनों और संस्थाओं में हमारे द्वारा इतने सारे बदलाव और संशोधन करने के बावजूद विफल क्यों साबित हुए और क्या प्रस्तावित लोकपाल इनसे किन्हीं मायनों में अलग होगा।
इसमें कोई शक नहीं कि हमारे संस्थागत तंत्र में सुधार की जरूरत है। लेकिन तंत्र आखिर तंत्र ही होता है। एक मशीन। सबसे महत्वपूर्ण वे लोग, जो मशीन को संचालित करते हैं। यदि वे कार्यकुशल नहीं हैं या उनके इरादे और उनकी प्रेरणएँ गलत हैं, तो वे अच्छी से अच्छी मशीन को भी खराब कर देंगे। कोई मशीन किन परिस्थितियों में कार्य कर रही है, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। जाहिर है ईमानदार व्यक्तियों के बिना ईमानदार प्रशासन की स्थापना करना संभव नहीं है। भारतीय इतिहास के अनेक दशकों का संदेश एकदम स्पष्ट है : हमारे तंत्र में भीतर तक बैठा भ्रष्ट आचरण ही कई बुनियादी समस्याओं की जड़ है। इसी कारण केन्द्र और राज्य में गैर जिम्मेदार राजनेता और अधिकारी अपनी जगह बना लेते हैं। भ्रष्ट व्यक्ति अपने संपर्क में आने वाली हर चीज पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
इतिहास भी हमें यही सबक सिखाता है। इतिहास गवाह है कि किसी भी सभ्यता के विकास में तब तक बुनियादी रूप से बदलाव नहीं आता है, जब तक उसके लोगों के विचार न बदल जाएं। यूरोप ने मध्ययुग में आधुनिकता तक एक लंबा सफर तय किया था। यूरोपीय पुनर्जागरण ने लोगों की बौद्धिक क्षमताओं और उनके दृष्टिकोण का विकास किया। साथ ही उनकी सांस्कृतिक संवेदना और सामाजिक स्थिति भी परिष्कृत हुई। नवजागरण के इसी दौर में वैज्ञानिक चेतना का विकास हुआ। अन्वेषण की प्रवृत्ति विकसित हुई। विकासशील विचारों ने चर्च और राज्य की रूढिय़ों को चुनौती देना प्रारम्भ किया। समानता, स्वतन्त्रता और बंधुत्व के आदर्श ने फ्रांसीसी क्रांति का सूत्रपात किया, जिससे यूरोपीय राष्ट्रों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचे पर गहरा असर पड़ा। लेकिन फ्रांसीसी क्रांति से पहले रूसो, वॉल्टेयर और थॉमस पेन के लेखन ने अपने समय के बौद्धिक और सांस्कृतिक परिवेश को गहराई तक प्रभावित किया था। लोगों के दिमागों में स्थित रूढिय़ाँ खत्म होने के बाद पुरातनपंथी शासन तंत्र कब तक अपना अस्तित्व बचाए रख सकता था? लोगों के विचार बदले तो समाज में एक नए शासनतंत्र का मार्ग प्रशस्त हुआ।
यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी है। मुझे अपने सार्वजनिक जीवन में विभिन्न क्षेत्रों में देश के लिए काम करने का मौका मिला। मैंने दस साल तक लेफ्टिनेंट गवर्नर/गवर्नर के रूप में काम किया। चौदह साल संसद सदस्य की भूमिका निभाई। साढे पाँच साल कैबिनेट मंत्री के रूप में कार्य करने का अवसर मिला, जिसमें मैंने संचार, शहरी विकास, गरीबी उन्मूलन, संस्कृति और पर्यटन आदि विभागों का काम देखा। अपने लंबे सार्वजनिक जीवन के दौरान मैंने मौजूदा भारतीय समाज को नजदीकी से देखा। तरह-तरह के लोगों से मेरी मुलाकात हुई, जिनमें झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लोगों से लेकर देश के प्रधानमंत्री, फुटकर विक्रेता से लेकर शीर्ष बिजनेसमैन और सीधे-सरल-समर्पित लोकसेवकों से लेकर सत्ता के मद में चूर नौकरशाह तक शामिल हैं। मैंने विभिन्न दृष्टिकोण से कई परिस्थितियों को देखा और उनका आकलन किया। मैंने पाया कि एक आम भारतीय अपने मन में कई अवरोधों का अनुभव करता है। ये बाधाएँ और अवरोध उसने अपनी सभ्यता के लंबे इतिहास के दौरान प्राप्त किए हैं। मेरा मानना है कि जब तक भारतीय मन को उसकी बाधाओं से मुक्त नहीं किया जाता, तब तक देश गैरजिम्मेदार नागरिकों, स्वार्थी नेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों से त्रस्त रहेगा। किसी भी तरह के प्रशासनिक, आर्थिक या राजनीतिक सुधार तब तक कारगर साबित नहीं हो सकते, जब तक की भारतीय मानस और चेतना का ‘रूट एण्ड ब्रांच’ स्तर पर सुधार नहीं किया जाए, अन्यथा आर्थिक दुनिया के महज कुछ क्षेत्रों की अस्थायी चमक-दमक हमारे मन में झूठी उम्मीदें जगाए रखेंगी।
1947 के बाद भारतीय मानस के पुनरूत्थान के किसी भी प्रयास के पूर्णत: अभाव और लोगों के मन व समाज के तौर-तरीकों को बदलने वाले किसी भी उल्लेखनीय सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन का उदय न होने के कारण हमारा समाज संविधान के वास्तविक अर्थों और आदर्शों से वंचित रह गया है। चिंतनीय बात यह भी है कि अपने घर का कचरा बुहारने के स्थान पर हमने पश्चिमी सभ्यता के कचरे को भी एकत्र करना शुरू कर दिया है। हमने पश्चिम से भौतिकवादी दर्शन तो सीख लिया, लेकिन अनुशासन व नागरिक बोध नहीं सीख पाए। नतीजा यह रहा कि हमारा समाज दोनों सभ्यताओं के खराब गुणों का प्रतिनिधि बनकर रह गया।
कभी-कभी मैं यह भी सोचता हूँ कि हमारी समस्याओं की जड़ें इतनी गहरी हैं कि क्या किसी भी तरह की क्रांति उनका निदान कर सकती है? भारत का इतिहास और उसकी विरासत यह बताती है कि हमारी समाज क्रांतियों की तुलना में पुनर्जागरण के प्रति अधिक ग्रहणशील है। क्रंाति और पुनर्जागरण में एक बुनियादी फर्क होता है। क्रांति आंधी की तरह होती है, जो अपने मूल्यों, तौर-तरीकों, संस्थाओं और संरचनाओं को उखाड़ फेंकती है, लेकिन क्रांतियाँ सृजन से अधिक विध्वंस होती है। इसके स्थान पर पुनर्जागरण ताजी हवा के झोंके की तरह होता है, जो हमें घुटन भरे माहौल से मुक्त करता है। आज हमें एक और महान पुनर्जागरण की जरूरत है, जो विचारों के एक नए भूगोल का निर्माण कर सके और अतीत की सदियों पुरानी बाध्यताओं से हमें मुक्त कर सके। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला ऐसा नया मुक्त मानस ही नैतिक रूप से सक्षम राज्यतंत्र की नींव रख सकता है। केवल इसी तरह के राष्ट्र का प्रशासनिक तंत्र स्वच्छ, विवेकशील और भ्रष्टाचार से मुक्त हो सकता है।