जश्न में जोश नहीं
15अगस्त और 26जनवरी के उत्सवों में अब आम जनता की रुचि लगभग समाप्त सी हो गयी है। अब यह उत्सव मनाने का ‘काम’ स्कूलों और फ़ौजियों-पुलिसवालों को सौंप दिया गया है। उनके लिए भी यह ‘उत्सव’ न होकर ‘काम’ हो गया है। शेष बचे कर्मचारियों के लिए ये दिन छुट्टी के दिन के रूप में अधिक महत्त्व रखते हैं। एक -दो दिन आगे पीछे की दूसरी छुट्टियां जुड़ जायें, तो मजे ही मजे। मजे की इस महफिल में ‘राज’ में जमे नेता और अफसर अलग ढंग से भाग लेते हैं। उनके लिए यह अपना ‘रुतबा’ दिखाने का वक्त होता है। दिल्ली से लेकर ज़िलों तक, गाँवों तक झण्डे फहराते ‘राज’ में भागीदार लोग दिखाई दे जाते हैं। दिखाई नहीं देता, तो बस आम आदमी।
15अगस्त 1947से 2011 तक की 64 वर्षों की हमारी एक देश के रूप में यात्रा अर्थहीन कैसे लग रही है? आम आदमी का मोह भंग कैसे हो रहा है? विचारणीय प्रश्न है। विचारणीय इसलिए कि अगर आजादी का, गणतंत्र का दिन जब देश के अधिकांश लोगों के लिए खुशी और उल्लास का दिन नहीं रहेगा, तो एक देश के रूप में हम कमजोर हो जायेंगे। अन्दर से कमजोर हो भी गये हैं। बहलावे और भुलावे से काम चल रहा है। बहलाया जा रहा है कि हम विश्व की ताकत बन रहे हैं, जबकि हम विश्व के लिए शोषण का बड़ा बाजार बन रहे हैं। भुलाया जा रहा है कि जनता सरकार की मालिक है, बल्कि कहा यह जा रहा है कि ‘राज’ में बैठे ‘नये मालिक’ जनता पर मेहरबानियाँ कर रहे हैं। अर्थ का अनर्थ किया जा रहा है।
फीकी पड़ी बारात
कबीर कहते हैं – सुनी सुनायी बात नहीं है, आखन देखी बात। दूल्हा – दुल्हन मिल गये, फीकी पड़ी बारात। आप अकसर देखते हैं न कि जब बारात की रवानगी का समय होता है, तो कैसे बारातियों की अटैचियां उठायी जाती हैं। घरों से किस आदर भाव से उन्हें बस तक लाया जाता है। फिर दुल्हन के घर पर कितना जोर से स्वागत होता है। उसके बार क्या होता है? बाराती सोने की जगह ढूँढ़ते रहते हैं। सर्दी – गर्मी से परेशान भागते फिरते हैं। कोई पानी का भी नहीं पूछता। वापिस जाना है, तो अपने आप बस को तलाशो और फूट लो। दूल्हा – दुल्हन के साथ बैठा है, उसके परिजन वी.आई.पी. बनकर बैठे हैं। अब आपका वहाँ काम क्या है?
1947की 15 अगस्त को भी यही हुआ। सत्ता की दुल्हन से दूल्हा बने कुछ महत्त्वाकांक्षी नेता मिल गये। उनके परिजन भी ‘सेट’ हो लिये। आम जनता, जो बाराती बनकर ‘अँग्रेज़ों भारत छोड़ो’ के नारे लगा रही थी, 1947 के बाद ठगी सी रही गयी। उसे कहा तो यह गया था कि अँग्रेज़ों के जाने के बाद भारत देश में जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए शासन होगा। लेकिन यहाँ तो जनता का शासन नहीं दिखाई दे रहा था। नेहरूओं का शासन था। बारात में चलने का निमंत्रण देने वाले गाँधी बाबा तो 15 अगस्त को दिल्ली में ही नहीं थे। 1948 में तो वे दुनिया में भी नहीं रहे। किससे शिकायत करें। किसे कहें? और शासन जनता का नहीं लगा, तो जनता द्वारा भी शासन नहीं लगा, भले अपने प्रतिनिधि चुनने का मौका उसे दिया गया था। चक्र ऐसा चला कि चुने गये प्रतिनिधि भी रियासती राजाओं जैसे नजर आने लगे थे। चुनने का विकल्प भी सीमित था। दो राजाओं में से एक को चुनो। अपना मालिक गुलाम मिलकर चुनें। और तो और जनता के लिए भी शासन नहीं था। जिनके लिए यह शासन साबित हुआ, उनकी उपलब्धियों के आँकड़े देश-विदेश में आजकल खूब चर्चा में है। ये आँकड़े विदेशी बैंकों में जमा धन के रूप में सामने आ रहे हैं। यानी एक बड़ा धोखा हो गया। और धोखा जनता को जब समझ में आया, तो आजादी के या गणतंत्र बनने के उत्सव में उसकी रुचि कम हो गयी। उसका मोहभंग साफ झलकने लगा है।
गड़बड़ कैसे हो गयी ?
इस मोहभंग का कारण समझना जरूरी है। यही एक रास्ता है, ऐतिहासिक गलती को सुधारने का। इतिहास पढ़ाया ही इसलिए जाता है कि पिछली गलतियों से सबक लें। और गलती यह हो गई कि आजादी के बाद जो जनजागरण का कार्यक्रम चलाना था, वह नहीं चल पाया। राजतंत्र से लोकतंत्र में प्रवेश के लिए नया भाव, नयी समझ और नयी जिम्मेदारी आम जनता में आनी चाहिये थे। यह सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था, जो नये देश को मजबूत बनाये रखने के लिए आवश्यक था। देश के बुद्धिजीवी वर्ग को यह कार्य करना था, क्योंकि वे ही इस नई व्यवस्था को लाये थे। वरन् आम जनता तो राजतंत्र की छाया में रहने को आतुर है। राजकुमार राहुल हो या महारानी वसुंधरा, जनता को एक राजा या रानी आज भी चाहिये। लेकिन बुद्धिजीवियों को यह बताना कि जनता को ‘राजा’, ‘महाराजा’, ‘हुजूर’, ‘हुकुम’ छोड़ कर ‘अपने’, ‘स्वयं के’ शासन यानी स्वशासन के बारे में सोचना चाहिये । बच्चे-बच्चे को ‘स्वशासन’ का अर्थ समझाया जाना चाहिये था। परन्तु 1950 आते-आते बुद्धिजीवी फिर ‘गुलामी की बौद्धिक परम्परा’ में बह लिये। संविधान का हिन्दी अनुवाद करते समय यह परम्परा फिर सारी मेहनत पर पानी फेर गयी। आपको जानकारी होगी कि हमारे संविधान की मूल प्रति अंग्रेज़ी में हाथ से लिखी गयी थी। उसका हिन्दी अनुवाद भी हाथ से लिखा गया था। इस अनुवाद में अंग्रेज़ी के कई शब्दों का ऐसा अनर्थ कर दिया गया कि लोकतंत्र के खोल में राजतंत्र की आत्मा डाल दी गयी। ‘प्रेसीडेंट’ को राष्ट्राध्यक्ष की जगह राष्ट्रपति (राष्ट्र को पालने वाला) कहा गया। ‘गवर्नर’ को शासनाध्यक्ष की जगह राज्यपाल (राज्य को पालने वाला) कहा गया। ‘ऑफिसर’ को कार्यालय (ऑफिस) प्रभारी की जगह अधिकारी (अधिकारों का मालिक) कहा गया। विभागों के डायरेक्टरों को ‘मंत्री’ कहा गया। ‘राजा’ के ‘मंत्री’। नाम लोकतंत्र का, भाषा राजतंत्र की!
स्वशासन के भाव का अभाव
संविधान की व्याख्या का विषय लम्बा है। उस पर फिर कभी बात करेंगे। अभी बात करते हैं, एक और बड़ी अनदेखी की। जनता को यह तो कहा गया कि वे अपने प्रतिनिधि चुनकर ‘राज’ बदल सकती है, लेकिन यह नहीं बताया गया कि यह ‘राज’ चलेगा कैसे? पहली बात बढ़ा-चढ़ाकर बतायी गयी, ताकि जनता खुश हो जाये कि चलो हम चाहे जिसको ‘राजा’ चुन सकते हैं। दिल बहलाने के लिए यह ख्याल अच्छा है, ग़ालिब! लेकिन दूसरी बात, राज चलाने वाली बात ऐसी दबी कि लोकतंत्र का अहसास ही खत्म हो गया। क्योंकि यह बात जितनी आपको पता चलेगी, उतना ही ‘राज’ में बैठे लोगों को खतरा है। यह छोटी सी, मगर एक आजाद लोकतांत्रिक देश में सबसे महत्त्वपूर्ण बात क्या है? यह बात है कि आम आदमी रोज सरकार चलाने के लिए चंदा देता है। टैक्स (कर) देता है। हम अधिकांशतः यही बात सुनते हैं कि व्यापारी एवं उद्योगपति ही टैक्स देते हैं, आम आदमी के टैक्स देने वाली बात पर कहाँ अधिक चर्चा होती है। क्योंकि यह चर्चा होते ही आप हिसाब मांगोगे। अपने पैसे को बरबाद होते देख आपकी आत्मा जलेगी। इसलिए इस मसले पर जनता में जागरण कभी नहीं किया गया। यह नेताओं का, अफ़सरों का ‘जनकल्याण’ का ‘मेहरबानी’ का नाटक, हमारी अज्ञानता से ही तो सफल रहता है। हम सोचते हैं, वे हम पर अहसान कर रहे हैं। यह नहीं बताया जाता कि आप बाजार से जब चाय-शक्कर, जूते-कपड़े, या तेल-साबुन लाते हैं, तो अपनी तरफ से सरकार चलाने का चंदा दे देते हैं। इस बात को छोडिय़े कि इसमें से कितना चंदा (टैक्स) ऊपर पहुँचता है, पर जो भी पहुँचता है, उससे ‘सरकार’ चला करती है। और यह जानते ही आप यह कह दोगे, कि सरकार हमको ‘सब्सिडी’ नहीं देती है। हमारे ही पैसे को हमें दान (अनुदान) करने वाली बात फिर पचेगी नहीं। इतना जनजागरण तो माहौल बदल देगा।
आप में से कुछ विद्वान कह सकते हैं कि इसमें नया क्या है? हमें भी पता है कि ऐसा है। तो जनाब, आपका यह पता होना आपके व्यवहार में आज तक क्यों नहीं झलका? क्यों नहीं आपको यह भाव आया कि यह स्कूल, यह थाना, यह तहसील आपके अपने हैं। जैसा भाव आपके अपने मकान के प्रति है, वह अस्पताल भवन के बारे में क्यों नहीं है? तभी तो हम अस्पताल के एक कोने में थूक लेते हैं। घर में तो नहीं थूकते हैं। तभी तो राहुल गाँधी, अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे के हवाई जहाजों में घूमने पर हम आपत्ति नहीं करते हैं। हमको लगता है कि हमारा क्या, सरकार का पैसा खराब हो रहा है। तभी तो हमको देश के, प्रदेश के बजट में कोई रुचि नहीं है। योजनाओं में कोई रुचि नहीं है। हम तो 64वर्षों के बाद भी इस बात के लिए लड़ रहे हैं कि खजाने की लूट में हमको हिस्सा कितना मिल सकता है। हिस्सा नहीं मिल रहा है, तो हम परेशान हैं। यही तो है हमारी असली परेशानी। कभी तो लगता है कि जनता उस बिगड़ैल बच्चे की तरह है जो घर के पैसे को अपनी मौज पर खर्च करने को तुला हुआ है। उसे क्या फर्क पड़ता है कि घर में पैसा कहाँ से आता है, कहाँ जाता है?
स्वशासन से ही राष्ट्रप्रेम
मित्रों, राष्ट्रप्रेम किसी भी राष्ट्र की पहली आवश्यकता है। और वह स्वशासन से ही पनप सकता है। और इसके लिए जागृति की अभी भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी 1947 में थी। बात वहीं ठहरी पड़ी है। कोल्हू के बैल की तरह हम आँखों पर पट्टी बांधे कब तक अर्थहीन यात्रा करते रहेंगे। असली जनजागृति करनी है, ताकि स्वशासन का भाव जगे। यह भाव जगेगा, तो आम जनता का व्यवहार बदल कर रहेगा। जिम्मेदारी का अहसास बढ़ेगा। वोट देने का कारण समझ आयेगा। वोट सही भी पड़ेगा, क्योंकि अब इससे हमारा ‘नोट’ भी जुड़ गया है। अभी तक जो हम ‘अमूल्य’ वोट देते आ रहे हैं, वह वाकई में अमूल्य है! उसका कोई मूल्य नहीं है! न हम उसका मूल्य समझते हैं और न हमारे नेता। लेकिन जनजागरण के बाद उसका मूल्य भी समझ में आ जायेगा।
और शासन में बैठे लोगों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? कई मित्र निराशाजनक बात कह सकते हैं। अजी, उन पर कहाँ असर होगा। यह प्रवृत्ति सही नहीं है। मानकर चलिए कि जब आपके अंदर बैठा ‘स्वामी’ जगेगा, तो स्वामित्व का प्रभाव सब तरफ पड़ने लगेगा। इस प्रभाव के प्रकाश में चोरियां बंद हो जायेगी। फिर आपको अनशन के चक्कर में भी पड़ने में शर्म आयेगी ! आप अपनी कार के ड्राइवर के सामने अनशन करेंगे, तो मूर्खता नहीं लगेगी? कार आपकी, ड्राइवर आपने रखा है और कहते हो कि वे आपको गाड़ी में नहीं बैठा रहा है। आप अपने परिवार के साथ पैदल चल रहे हैं! और ड्राइवर मजे कर रहा है। नहीं। यह सब अब नहीं। हमारी इस बड़ी कार ‘सरकार’ के ड्राइवरों के सामने कोई बाबा या अन्ना अनशन नहीं करेंगे। हमारी आँखों में जागरण की चमक ही समाधान के लिए काफी है।
राजतंत्र से लोकतंत्र में प्रवेश करो। शासन का ‘धणी’ बनकर सोचो। सारे समाधान आपके दरवाजे पर खड़े होंगे।
डॉ. अशोक चौधरी
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