डॉ. अशोक चौधरी
देश में आज जो कुछ भी हो रहा है, उस पर लिखने का मन नहीं है. वह सब आप अखबारों में पढते रहते हैं, चेनलों पर देखते रहते हैं. उन बातों पर लिखकर क्यों और स्याही बर्बाद की जाये और क्यों आपका दिमाग खराब किया जाए. नरेगा के मजदूर से लेकर देश के राष्ट्रपति तक सभी लोकतंत्र के इस हमाम में नंगे साबित हो चुके हैं. कोई नहीं बचा है. इसलिए सवाल यह नहीं है कि देश में क्या हो रहा है. सवाल यह है कि हम और आप मिलकर ऐसी स्थिति में क्या कर सकते हैं. अपनी सीमाओं और साधनों के साथ हम इस स्थिति को बदलने के लिए क्या कर सकते हैं. केवल आलोचना के ग्रन्थ लिखने और पढ़ने से तो कोई परिवर्तन संभव नहीं होगा, न अभी तक ऐसा करने से कुछ खास हुआ है. बल्कि लगातार आलोचनाओं से तो समस्याएं उलझती जा रही हैं, समाधान दूर होते जा रहे हैं. गलत काम करने वालों की चमड़ी पर इन हल्की-फुल्की, सतही आलोचनाओं की चुभन का असर नहीं पड़ रहा है, बल्कि चमड़ी मोटी होती जा रही है. हां, चमड़ी मोटी हो ही गई है.
तो अब हम क्या करें ? ऐसे में हम क्या कर सकते हैं ? इस ‘हम क्या करें’ या ‘क्या कर सकते हैं’ से पहले एक और सवाल है, जिसका उत्तर हमें पहले ढूढना पड़ेगा. तीसरे सवाल का उत्तर, पहले दो सवालों के उत्तर की तरफ हमें ले जाएगा. वह तीसरा अहम सवाल है, कि ‘हम कुछ कर क्यों नहीं रहे या क्यों नहीं कर सके या हम चुप क्यों हैं ?’ क्या कारण है कि हम सब चुप हैं. केवल अपने घर या मोहल्लों में बातें कर रहे हैं. क्या कारण है कि हम केवल ‘सब खराब है, खराब है’ कह रहे हैं, लेकिन घर से बाहर निकलने से डरते हैं.किसने हमें रोक रखा है कि बाहर आयें और अपनी आवाज बुलंद कर कहें कि सब बकवास बंद करो और व्यवस्था को ठीक से चलाओ. कुछ तो कारण होंगे ? जरूर होंगे और वही कारण ढूंढने हैं. अगर समाधान निकालना है तो. अगर परिवर्तन करना है तो. क्या कारण हैं. पहले आपके कारण.
चुप्पी के लिए हमारे बहाने
आप चुप क्यों हैं, इसके कारण आपने गढ़ रखे हैं. आप यह तो नहीं कह सकते कि कोई कारण नहीं है. ऐसा कहते हैं तो सारी जिम्मेदारी आप पर आ जायेगी !
इसलिए अपने छद्म अहंकार को, झूठे अहंकार को बचाए रखने की भारतीय शैली में आपने, मैंने, हम सभी ने कुछ कारण पाल रखे हैं, ताकि हम जिम्मेदारी से बच सकें. ताकि हम कह सकें कि इस अव्यवस्था के लिए नेता और अफसर जिम्मेदार हैं, हम क्या कर सकते हैं, हम तो जनता हैं. आपके पाले हुए कारण ये हैं-
१. मेरी घर गृहस्थी की जिम्मेदारियां हैं. बच्चे पालने हैं, उनकी शादियाँ करनी है, मकान बनाना है. मैं इनसे फ्री हो जाऊं, तो शायद घर से बाहर आकर किसी संगठन के माध्यम से व्यवस्था को, सिस्टम को बदलने में योगदान करूं. हालांकि यह बहाना इन जिम्मेदारियों के निभाने के बाद भी जारी रहने वाला है ! पर आज तो बचे.
२. मेरी आर्थिक स्थिति अभी ठीक नहीं है, आर्थिक सुरक्षा नहीं है. एक बार बेलेंस हो जाए तो मैं भी क्रांति का बिगुल बजाने वालों के साथ हो जाऊंगा. अभी मन तो बहुत कर रहा है, देश की दशा पर दुःख भी होता है, पर क्या करूं, मजबूरियों ने घेर रखा है. एक बार कोई ऐसी कमाई की व्यवस्था हो जाए, जिसमें घर बैठे मोटी रकम हाथ लग जाए तो मैं भी फुल टाइम समाज और देश की सेवा में लग जाऊँगा.
३. मैं अभी सरकारी या निजी सेवा में हूं और सरकारी आदमी को या निजी सेवक को तो डरना ही पड़ता है. कल को मेरी नौकरी चली गई तो मैं तो बर्बाद हो गया न. मेरे परिवार का क्या होगा. मैं हूं न सप्पोर्ट में, मोरल सप्पोर्ट तो करता ही हूं न.
४. आप कह सकते हैं कि मैं बूढा हो गया हूं, यह काम तो जवानों को करना चाहिए. जब आप जवान थे, तब नहीं किया, यह अलग बात है. अगर आप आज युवा हैं तो आप कह सकते हैं कि मैं तो बेरोजगारी से जूझ रहा हूं. पहले उससे निपटूं. कैसे निपटोगे, नौकरी लग गई तो बोलोगे कि अब नौकरी में हूं, मजबूर हूं.
५. आप यूं भी बच सकते हैं कि क्या करें जनाब, आजकल किसी पर विश्वास ही नहीं होता है. सभी आते हैं कुछ कहने-करने और बाद में कुछ दूसरी बातें करने लग जाते हैं, कोई दूसरा ही काम करने लग जाते हैं. हालांकि आपने इन लोगों के साथ मिलकर क्या किया, यह अधिकतर नहीं पता होता है.
यह बहाने अधिकांश लोगों के पास रेडीमेड होते हैं, जस्ट जबान पर धरे होते हैं. एक मिनट भी नहीं लगता कि कोई बहाना ठीक से याद किया जाए. सब तैयार है. फट करते ही लोग यह भी कह देते हैं कि कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि जनता चुप है. इतनी चालकी से यह वक्तव्य जारी होता है कि इस जनता में कोई भी व्यक्ति खुद को नहीं गिनता है !
मैं मानता हूं कि आपमें से कई लोगों ने कई बार घर से बाहर कदम भी रखा होगा, चंदा भी दिया होगा, ठगे भी गए होंगे, पत्र-लेख लिखे होंगे, धरने दिए होंगे, जेल भी गए होंगे. मैं साफ़ झाडू नहीं मार रहा हूं. पर आज बात यह है कि कुछ बदला नहीं है. या तो प्रयास ठीक से नहीं हुए या प्रयास किये ही नहीं गए. जो भी हो, आपकी चुप्पी या निष्क्रियता समस्या को गंभीर बनाये चली जा रही है. यह समस्या की जड़ में है. उसे तोड़ना जरूरी है. पर यह हो कैसे ? क्या रास्ता है, जो प्रेक्टिकल होगा, जो आसान होगा. इसके लिए आपकी मानसिकता को समझना होगा, ईमानदारी से. स्वीकार्य भाव से. अपनेपन से.
हमारी चुप्पी के प्रचलित कारण या बहाने लिखने की कोशिश मैंने ऊपर की थी. अब मेरी नजर में असली क्या कारण हैं, उन्हें जान लें.
हमारी चुप्पी के असली कारण
किसी भी कौम का व्यवहार उसके इतिहास और संस्कृति से प्रभावित होता है. मोटे तौर पर. जो भी संस्कृति बताती है और जो भी इतिहास सिखाता है, उसका असर हमारी मानसिकता पर जरूर पड़ता है. भारत और राजस्थान के इतिहास में भी बहुत कुछ घटा है, जिसने हमारे आज के व्यवहार को पैदा किया है. इसे समझे बिना बात कभी भी आगे नहीं बढ़ेगी. हम जड़ तक नहीं पहुंचेंगे और तनों में, पत्तों में बीमारी ढूंढते रहेंगे. बीमारी बढ़ती रहेगी और हम दोष के नए कारण खोजते रहेंगे. तो क्या है इस बीमारी की जड़ में ?
१. सबसे अहम कारण जो हमें खुलकर बोलने से रोकता है, जो हमें बहाने मारने को उकसाता है, वह है, हमारी एक हजार साल की गुलामी. गुलामी भी आला दर्जे की. मुहम्मद गौरी के सौलह टके में खरीदे गए गुलाम कुतुबुद्दीन की गुलामी से. गुलाम की भी गुलामी से शरू हुआ था यह सफर ! फिर इस पर गुलामी की परतें चढती ही गईं. हमारी आत्मा इस बोझ के नीचे दबती ही गई. मुग़ल और अंग्रेज को हमने माई बाप कहा, महान् कहा, भारत-भाग्य-विधाता कहा. फिर देशी शासक बने तो उन्हें भी ऐसी ही उपाधियां देकर गुलामी की परंपरा जारी रखी गई है. गुलामी की जंजीरें कायम हैं, गुलामी की भाषा कायम है. जंजीरें भले सोने की हो, भाषा भले साहित्य की हो, परंपरा की हो, अतिथि सत्कार की हो, स्वामिभक्ति की हो, अनुशासन की हो ! गुलामी को छुपाने के भारतीय उपाय हैं. मैं इसे ‘गुलामी की बौद्धिक परंपरा’ भी कह लेता हूँ. पर इस गुलामी से हमारा व्यवहार कैसे बदलता है ? क्या हो जाता है, किसी कौम को ?
क. गुलाम आदमी का आत्मविश्वास कम हो जाता है. खुद पर विश्वास नहीं रहता. उसे लगता है कि वह कुछ नहीं बदल सकता. जो भी है, उसके साथ समझौता करना उसकी फितरत बन जाती है, आदत बन जाती है. तो ऐसा व्यक्ति बाहर कैसे निकले ? है न यही बात हमारे साथ ? यह गुलाम आदमी तो सत्ता हस्तांतरण (आजादी ?) के आन्दोलन में भी घर में दुबका था. हमारे कुछ लोगों ने अंग्रेजों से सत्ता भीख मेंु ले ली थी, आजादी नहीं मिली थी. आजादी तो अरविन्द-सुभाष-भगत के रास्ते आनी थी, पर वह रास्ता चालक लोगों ने बदल दिया, डायवर्ट कर दिया, फिर गुलामी के रास्ते की तरफ. बाईपास कर दिया !
ख. गुलाम आदमी का आत्मसम्मान भी कम हो जाता है. उसे लगता है कि वह अपने मालिक के सम्मान पर जिन्दा है. मालिक जो भी हो. कल का राजा या बादशाह हो या आज का नेता या अफसर हो. अपना सम्मान ज्यादा महत्त्व नहीं रखता. इसे सही साबित करने के लिए हमारे बुद्धिजीवी ने शब्द भी दिया हैं, स्वामिभक्ति. इसकी महिमा आज भी बार बार गाई जाती है. इसलिए आजकल कोई कलक्टर, नेता या थानेदार, किसी को झाड़ देता है या फटकार लगा देता है तो हमें अजीब नहीं लगता है. अखबार भी इसे शान से छापता है. ऐसा कोई अमेरिका या योरोप में करके देखे. वहां कोई ऐसा करने के बारे में सोच भी नहीं सकता. कारण क्या है ? आत्मसम्मान. वे लोग आत्मसम्मान से भरे होते हैं.
ग. यही नहीं गुलाम आदमी दूसरों पर भी विश्वास नहीं करता. खुद पर विश्वास जिसे नहीं, वह दूसरों पर कैसे विश्वास कर सकता है. उसे हर कोई उसका शोषण करता नजर आता है. यह अलग बात है कि इस शोषण के विरुद्ध वह आवाज नहीं उठा पाता, डर के कारण. पर अविश्वास तो है. यहां तक कि इस अविश्वास के भ्रम में वह यह भी नहीं जान पाता है कि कौन उसके हित में है और कौन उसे ठगता है. डरे हुए बच्चे की तरह ! डॉक्टर से डरता है और चाकलेट के चक्कर में फंस जाता है.
घ. गुलाम कौम के लोग डरते भी बहुत हैं. साहस कम हो जाता है. उन्हें हर समय लगता है कि ‘मालिक’ कोई दंड न दे दे. यह डर फिर जीवन के हर क्षेत्र में चला जाता है. रात को घर से बाहर नहीं निकलना, जंगलों में नहीं जाना, मोहल्ले के गुंडे की करतूतें सहन करना आदि व्यवहार इसी गहरे डर के परिणाम हैं. बहाने ‘अहिंसा प्रेमी’ होने के हम गढ़ लें, कानून में विश्वास का गढ़ लें, लेकिन सही मायने में गुलामी से उपजा डर है, जो हमें अपने या अन्य पर हो रहे अन्याय का सामना करने से रोकता है.
ङ. गुलामों को अपने और अपने साथियों की बजाय अवतारों पर ज्यादा विश्वास होता है. अवतारों के ‘चमत्कार’ उसे प्रभावित करते रहते हैं. वह सामूहिक जिम्मेदारी में काम करने के बजाय किसी अवतारी व्यक्ति के चमत्कार में अपनी समस्या के हल ढूंढता है. यह अवतार कोई भी हो. गांधी हो, नेहरु हो,इंदिरा हो. बाबा हो या अन्ना या अरविन्द हो. मोदी हो, राहुल हो, वसुंधरा हो. माया, ममता, जयललिता हो, मुलायम हो. कोई भी हो. चमत्कार करता दिखाई पड़ना चाहिए. तो यह पहला कारण है, जो हमें चुप करके बैठा है.
गुलामी. गुलामी और फिर उससे उपजे लक्षण. आत्मविश्वास और आत्मसम्मान में कमी, अविश्वास और डर, जिम्मेदारी से बचने का भाव. पांच लक्षण, गुलामी के. शांत मन से सोचेंगे, तो शायद स्वीकार कर लें. स्वीकार करते ही मन झूठे अहंकार के भार से मुक्त होकर हल्का हो जाएगा. काम नहीं करने के बहानों से छुटकारा मिल जाएगा.
२. दूसरा कारण है, देश में सत्ता हस्तांतरण के बाद आवश्यक लोकनैतिक शिक्षा का नहीं दिया जाना. जैसा मैंने कहा कि केवल सत्ता हस्तांतरित हुई है, भारत में, आजादी नहीं आई. फिर भी जो भी नई व्यवस्था हमने अपनाई है,उसके लिए आमजन को तैयार करना जरूरी था. राजतंत्र से लोकतंत्र में बदलाव के लिए राजनीति की जगह लोकनीति का पाठ पढाया जाना चाहिए था. यह काम कतिपय स्वार्थों के चलते नहीं हो पाया. सत्ता में जम गए लोगों, नेताओं और अफसरों को सत्ता का चस्का लग चुका था और अभी भी यह चस्का कायम है. वे क्यों चाहते कि लोकनीति की समझ बढे. वे क्यों चाहेंगे कि लोकतंत्र मजबूत हो. इसलिए उन्होंने वोट देने को ही लोकतंत्र की मजबूती बताकर, अपने ‘राजतंत्र’ को जमा लिया है. परिणाम क्या हुआ ? जनता की शासन से दूरी बढ़ गई है. यह जनता की शासन से दूरी दूसरा कारण है, जो आपको, हमको चुप कर रहा है. जब शासन की समझ ही नहीं है, जानकारी ही नहीं है, तो बोलें क्या ? जब शासन अपना ही नहीं लगता है, तो खजाना कोई भी लूटे, हमें क्या. शासन से पहचान नहीं है. पहचान है, जाति से, गाँव से, क्षेत्र से, भाषा से. उससे कोई छेड़छाड़ करे तो गुस्सा सड़कों पर दिखाई देता है ! वोट भी उसी आधार पर देते हैं. इतना ही लोकतंत्र समझ आया है, अभी तक.
कैसे टूटेगी यह चुप्पी ?
हमें यह मान लेना है कि आम भारतीय या राजस्थानी नागरिक इसी मनोदशा में जीता है. न बोलने के बहाने वह कुछ भी करे, पर उसे अभी ‘राज’ का डर है, गुलामी के दौर के कारण. इसे मान लेना ही बेहतर है. अब, इस हकीकत को ध्यान में रखकर क्या रास्ता निकालें कि वह हिम्मत कर ले. सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. ऐसा उपाय कैसे करें. पर यह केवल उपदेश देने से तो नहीं होगा. कुछ ठोस काम करना होगा, व्यवहारिक काम करना होगा. तभी विश्वास बढ़ेगा, तभी साहस बढ़ेगा. एक बार गाड़ी पटरी पर आ गई तो मंजिल तक पहुँच ही जायेगी.
‘अभिनव राजस्थान अभियान’ यही है. हम और आप बोलने लगें, आवाज उठाने लगें,यही अभियान है. लेकिन बोलें क्या, कैसे बोलें, यह भी महत्त्वपूर्ण है. बोलने का मतलब धरना, प्रदर्शन या ज्ञापन-निवेदन नहीं हो, हवा में आरोप लगाना नहीं हो, मुखौटों या टोपियों को धारण करना न हो. बोलने का मतलब,जिम्मेदार नागरिक की तरह बोलना हो. अधिकारपूर्वक बोलना हो. अपना शासन मानकर बोलना हो.
कैसे ? इस 30 दिसम्बर का मेड़ता सम्मेलन भी इसी चुप्पी को तोड़ने की एक निराली कोशिश है.