अभिनव राजस्थान में हम जन जागरण का मूल कार्य करेंगे। और जन जागरण के लिए हमें कई धारणाओं को तोड़ना होगा, या मोड़ना होगा। क्योंकि जब अगर हमारी किसी विषय पर धारणा ही गलत बन चुकी है, तो हम समस्या के समाधान तक नहीं पहुँचेंगे। आज लगभग प्रत्येक विषय पर ऐसा ही हो रहा है। बरसों से ऐसी कई धारणाएँ मौखिक या लिखित रूप में प्रचार माध्यम फैला रहे हैं, जिनका कोई आधार ही नहीं। इन बिना आधार की धारणाओं के सहारे हमने कई योजनाएं भी बना ली हैं। एक योजना सफल नहीं होती है, तो दूसरी योजना बना लेते हैं। पता नहीं क्या हो गया देश को, कि अवतारवाद लोकतंत्र को रोक कर बैठा है, तो गलत धारणाएँ विकास नहीं होने दे रही है।
कहते भी हैं कि एक गलत बात को सौ बार दोहराओ, तो सच से भी सच्ची लगती है। यही हमारे देश में हर कदम पर हो रहा है। सड़क को विकास का पैमाना कहेंगे, लेकिन खेती और कुटीर उद्योग की बात करना पिछड़ापन कहलाएगा। जनसंख्या को समस्या कहा गया है, परन्तु करोड़ों हाथों को काम देकर इसे जनशक्ति बनाने की बात देशद्रोह जैसी लगेगी। चीन से हमें खतरा है, यह बात बुद्धिमानी की होगी, परन्तु अपने देश का उत्पादन बढ़ाकर चीन जैसा मजबूत देश बनने की बात पर उबासी आ जायेगी। ऐसे कई विषयों पर हम ‘रोचक राजस्थान’ में लिख चुके हैं। इस अंक में शिक्षा से जुड़ी गलत धारणाओं पर गौर करते हैं।
कहते भी हैं कि एक गलत बात को सौ बार दोहराओ, तो सच से भी सच्ची लगती है। यही हमारे देश में हर कदम पर हो रहा है। सड़क को विकास का पैमाना कहेंगे, लेकिन खेती और कुटीर उद्योग की बात करना पिछड़ापन कहलाएगा। जनसंख्या को समस्या कहा गया है, परन्तु करोड़ों हाथों को काम देकर इसे जनशक्ति बनाने की बात देशद्रोह जैसी लगेगी। चीन से हमें खतरा है, यह बात बुद्धिमानी की होगी, परन्तु अपने देश का उत्पादन बढ़ाकर चीन जैसा मजबूत देश बनने की बात पर उबासी आ जायेगी। ऐसे कई विषयों पर हम ‘रोचक राजस्थान’ में लिख चुके हैं। इस अंक में शिक्षा से जुड़ी गलत धारणाओं पर गौर करते हैं।
शिक्षा से ही विकास होगा, यह बात प्रत्येक मंच से, दिल्ली से गाँव तक कही जा रही है। नेता और नीतिकार कहते हैं कि जब भारत में सभी पढ़े-लिखे हो जायेंगे, तो ही विकास हो पायेगा। यह बात इतनी मीठी और सुहावनी लगती है कि इसके खिलाफ बोलने की हिम्मत कौन करे? जैसे आरक्षण से देश के पिछड़ों की तकदीर संवर जायेगी। कौन बोलेगा, इस बात के खिलाफ। किसको राज गँवाना है? वैसे ही शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए दिये जा रहे तर्क पर कोई पूरक प्रश्न नहीं पूछे जा रहे हैं। हम नहीं पूछते हैं कि बिना उत्पादन बढ़ाये शिक्षा का उपयोग कहाँ करेंगे? शिक्षितों के लिए रोजगार के अवसर कहाँ से जुटायेंगे? सेवा के क्षेत्र में कितने लोगों को खपायेंगे और फिर उत्पादन के बिना उनका वेतन कहाँ से देंगे? खेती नहीं पनपेगी, उद्योग नहीं पनपेंगे, तो कोरी शिक्षा का क्या करेंगे? लेकिन क्या आप अखबारों में, चैनलों पर देश के कृषि मंत्री या उद्योग मंत्री को चिंतित देखते हैं, जितना शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल को। क्या कभी विश्व बैंक ने खेती और उद्योग को बढ़ावा देने के लिए धन देने की बात कही है? केवल शिक्षा और स्वास्थ्य पर ही उधार देने में इस बैंक की रुचि क्यों है? ताकि पढ़े-लिखे, जिंदा, स्वस्थ, उपभोक्ता बाजार में बने रहें? इसलिए मित्रों, शिक्षा से ही विकास नहीं होगा, विकास में शिक्षा की एक भूमिका होगी। और यह भूमिका वर्तमान शिक्षा या साक्षरता की नहीं होगी। अभिनव शिक्षा या ज्ञानवर्द्धक शिक्षा ही विकास में सहायक होगी। वर्तमान शिक्षा तो उलटे विकास के रास्ते में बाधक हो रही है और विकास की जगह विनाश को आमंत्रण दे रही है। वास्तविक विकास के लिए तो खेती और उद्योग का उत्पादन बढ़ाना होगा और अभिनव शिक्षा लानी होगी।
शिक्षा से समाज सुधार पर भी रटी रटायी बातें कही जाती हैं। शिक्षा से सामाजिक कुरीतियाँ खत्म करने की आशा जगायी जाती है। दहेज, मृत्यु भोज, बाल विवाह, छुआछूत, नशाखोरी, अपराध आदि पर अंकुश के लिए कई दशकों से बुद्धिजीवी शिक्षा के प्रसार को ही अंतिम हथियार बताकर भागते फिर रहे हैं। बिना शिक्षा फैलाये बीच मैदान में कौन कूदे, क्योंकि मैदान में उनके माने निरक्षरों की भीड़ है। वे इन निरक्षरों को, अनपढ़ों को गँवार और जाहिल (असभ्य) भी कह देते हैं। लेकिन इस शिक्षा से समाज सुधार की धारणा के प्रसार में कई तथ्यों पर जानबूझकर आँख मूंदी गयी है। क्योंकि उससे नई समस्याएँ सामने आयेंगी और उनका समाधान सोचने के लिए समय किसके पास है। समस्या यह भी आयेगी कि शिक्षा पद्धति में ही दोष है और उन दोषों को दूर करने की योजना बनाने वाला नेतृत्व नहीं है। विशेषण करने पर नये तथ्य धारणाओं की मट्टी पलीत भी कर सकते हैं। तथ्य बतायेंगे कि शिक्षा का जहाँ-जहाँ प्रसार हुआ है, वहाँ दहेज प्रथा, दिखावा और फ़िज़ूलखर्ची बढ़ी है। तथ्य तो यह भी संकेत देंगे कि शिक्षित ज़िलों में लड़कियों की संख्या चिंताजनक रूप से कम हो गयी है। यह भी पता चलेगा कि शराब और अपराध वहीं ज्यादा बढ़े हैं, जहाँ शिक्षा अधिक फैली है। छुआछूत कम हुआ या नहीं लेकिन, समाज को बांटने व घृणा फैलाने का काम इन शिक्षित लोगों ने ज्यादा किया है। यह जानकार भी परेशानी होगी कि बेरोज़गारी का प्रतिशत भी वहाँ ज्यादा है, जहाँ शिक्षा का स्तर बढ़ा है। क्रिकेट, गुटखा और मोबाइल का दुरुपयोग भी वहीं ज्यादा बढ़ा है। तो क्या शिक्षा का प्रसार रोक देने से सामाजिक सुधार के परिवर्तन हो पायेंगे? नहीं। असल बात यह है कि वर्तमान शिक्षा के प्रसार से उलटा असर हो रहा है। सही ज्ञान देने वाली शिक्षा पद्धति के आने पर समाज की जमीन विकास के लिए तैयार हो पायेगी। वर्तमान शिक्षित समाज से तो अनपढ़ समाज अच्छा है। जयपुर से अधिक बाँसवाड़ा में लड़कियाँ सुरक्षित महसूस करती हैं। इशारा काफी है।
बालिका शिक्षा पर तो जैसे ग्रन्थ ही लिख डाले गये हैं। लाखों वाक्य इसके पक्ष में बोल दिये गये हैं। एक बालिका को पढ़ाओ, दो घर सुधरते हैं। मैं कई बार पूछ लेता हूँ कि इस ‘सुधरने’ का पैमाना क्या है? कोई घर तो दिखाओ, जो बालिका के पढ़ने से ‘सुधर’ गया हो। मेरी बात अजीब सी लगती है। धारणाएँ टूटती हैं, तो ज्ञान के अहंकार पर भी चोट लगती है। अधिकतर समस्याएँ तो इस अहंकार ने ही पैदा कर रखी हैं। तथ्यों की अहंकार से बनती नहीं, इसलिए तथ्यों में अधिकांश लोगों की कोई रुचि नहीं रह गयी है। बुद्धिजीवी वर्ग तथ्यों से दूर भागता है। तथ्य यह है कि राजस्थान के झुंझुनू ज़िले में, कोटा ज़िले में महिलाओं की साक्षरता का प्रतिशत सबसे अधिक है। आप चौंक जायेंगे कि इन्हीं ज़िलों में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत सबसे कम है। पढ़ी-लिखी महिलाएं काम करना नहीं चाहती। अनपढ़ महिला काम कर लेती है। खेती का, मजदूरी का। और इस काम का मतलब उनके लिए ‘नौकरी’ है। अगर नौकरी नहीं मिले, तो वह बैठी रहेगी। हाउसवाइफ ही सही। पढ़ी लिखी हाउसवाइफ। पढ़ी-लिखी महिला ने एक दिखावा पसन्द उपभोक्ता बनकर घर का खर्च बढ़ा दिया है। कमाई नहीं बढ़ायी, खर्च बढ़ा दिया है। लेकिन खर्च ही नहीं बढ़ रहा है। यह महिला एवं उसके बच्चे कुपोषित भी हैं। कमजोर है। अंट-शंट चीज़ें खा रहे हैं। एक तो यह सुधार हो गया! फिर माँ-बाप को भी देखिये। पढ़ी-लिखी लड़की के लिए लड़का भी पढ़ा लिखा होना चाहिये। अवगुणों से भरा हो, बेकार खानदान हो, पर पढ़ा-लिखा नौकरी वाला चाहिये। तभी दहेज की समस्या गंभीर बन जाती है। मरे बेचारे माँ-बाप। एक तो पढ़ाई का खर्च, ऊपर से दहेज का खर्च। सुधर गये दोनों घर? फिर ये पढ़ी-लिखी महिलाएं अगली पीढ़ी में दहेज को पोषित करती हैं। दहेज की माँग ही ये पढ़ी-लिखी महिलाएं करती हैं। कभी सुना है कि महिला शिक्षित है और उसने अपने बेटे के लिए दहेज लेने से इनकार कर दिया। क्या कभी इस महिला ने बहू को बेटी मान लिया। सास-ससुर का जो हाल होता है, उसे क्यों लिखें। आपने तो महसूस कर लिया होगा। हकीकत कितनी कड़वी। लेकिन यह मज़े लेने की बात नहीं। दोष महिला का नहीं, दोष शिक्षा का नहीं। दोष है वर्तमान शिक्षा पद्धति का। ज्ञान-रहित साक्षरता का दोष है। अभिनव शिक्षा समाधान है। अभिनव शिक्षा में पढ़ी लिखी महिला समाज पर भय नहीं बनेगी, विकास में मदद करेगी।
शिक्षा से लोकतंत्र मजबूत होगा और विकास की योजनाओं में जनता की भागीदारी बढ़ेगी। शिक्षा विभाग के अधिकारी और शिक्षा की नीति बनाने वाले इस बहलावे से भी कई पन्ने भर देते हैं। उन्हें शायद यह मालूम नहीं है या वे जानना नहीं चाहते हैं कि अधिकांश पढ़े-लिखे लोग, न तो अखबार से ज्यादा कुछ पढ़ते हैं और न ही हस्ताक्षर से अधिक कुछ लिखते हैं। साहित्य और उनके बीच तो जैसे अरुचि का समुद्र गहरा गया है। वे तो एक सामान्य जागरूक नागरिक के लिए आवश्यक जानकारी भी नहीं पढ़ते। कैसे लोकतंत्र मजबूत होगा? साठ वर्षों की पढ़ाई-लिखाई के बाद भी शिक्षित वर्ग ‘सरकार-सरकार’ करता रहता है। अभी भी यह वर्ग नहीं समझ पाया है कि लोकतंत्र में सरकार जनता ही है। और जनता केवल वोट देकर प्रतिनिधि नहीं चुनती है, रोज बाजार में खरीदे माल पर टैक्स देकर सरकार चलाती भी है। लोकतंत्र में पहला अहसास ‘स्वशासन’ अपने शासन का होना चाहिये और वह मूल भाव भी शिक्षितों में नहीं आ पाया है। वे भी निरक्षरों की ही भाषा बोलते हैं। कहते रहते हैं, ‘राज’ की बस है, ‘राज’ की स्कूल है। कौन सा ‘राज’? ‘राज’ तो राजा-महाराजाओं -अँग्रेज़ों के साथ 1947 में ही चला गया। अब तो सब कुछ आपका अपना है। लेकिन शिक्षित व्यक्ति भी बस में थूक देता है, बस जला भी देता है, मौका चाहिये। और आप कहते हैं कि विकास की योजनाओं में वह भागीदार बनेगा। वह तो ‘राज’ की योजनाओं में अपने ‘हिस्से की लूट’ में जरूर भागीदारी करता है। वरन् उसे कहाँ फुर्सत है कि वह राजस्थान का बजट पढ़े, समझे। पंचवर्षीय योजना को पढ़े, दोस्तों में उस पर बहस हो। लेकिन मोबाइल पर छिछली बातों में अटके, अखबार में हत्या, बलात्कार या स्थानीय राजनीति की ख़बरें पढ़ते शिक्षित व्यक्ति को केवल ‘राज’ से शिकायत है। और लोकतंत्र का उसके लिए मतलब केवल अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट देना है। इससे अधिक जिम्मेदारी वह नहीं लेना चाहता। लेकिन अभिनव शिक्षा में रंगा नागरिक लोकतंत्र की सही परिभाषा भी समझेगा, भागीदार भी बनेगा और विकास की जिम्मेदारी भी लेगा।
आधुनिक शिक्षा के मायनों में जब भी चर्चा होती है, तो लोग कहते आई.टी., आई.आई.टी., एम.बी.ए., सी.एस. (सी.ए.) या कम्प्यूटर विशेषज्ञता की डिग्रियों का जमाना है। मीडिया और मौखिक प्रचार-प्रसार ने भी इस धारणा को कस्बों तक पहुँचा दिया है और गाँव के धनी वर्ग तक भी यह बात पहुँच रही है। कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि अगर आपके बच्चे इन विधाओं के जानकार या कहें डिग्रीधारी नहीं बनते हैं, तो अनपढ़ जैसे ही हैं। धारणा का प्रसार इतना तेजी से हुआ है कि लगभग भारत के ठीक-ठाक परिवार इसके बहाव में बह रहे हैं। या कहिये कि बहाव में कूद रहे हैं। वे भी आँख मूँद कर। आप कहेंगे, इसमें क्या गलत है। हो सकता है, आप विरोध में उतर आयें कि बस, अब यह वाली बात तो नहीं पचेगी। लेकिन यह कड़वी गोली भी आपको खानी पड़ेगी, पचानी पड़ेगी। अगर धारणाओं को सही करना है, समाधान तक पहुँचना है। और कड़वी गोली यह है कि ऊपर वर्णित डिग्रियाँ कम्पनियों के लिए आवश्यक नये युग के मुनीमों की हैं। घर में नौकर रखते हैं कई। एक पोछा लगाता है, कपड़े-बर्तन धोता है, दूसरा रोटी बनाता है, तीसरा गाड़ी चलाता है, चौथा पी.ए. बनता है। नौकर का स्तर ऐसे बढ़ता जाता है। यही हाल इन डिग्रीधारियों का है। विदेशी व देशी कम्पनियों को ऐसे ‘प्रशिक्षित’ नौकरों की आवश्यकता रहती है, ताकि वे अपने लाभ को बढ़ा सकें। भारत से ये नौकर सस्ते मिल जाते हैं, क्योंकि विदेशों में इन्हें खरीदना काफी महँगा होता है। अमेरिका व यूरोप में ये काफी महंगे हैं और फिर वे वेतन के साथ सुविधाएँ भी ज्यादा चाहते हैं। भारतीय नौकर केवल वेतन देखता है, सुविधाओं का चक्कर उसके साथ नहीं है। उसे डाँटो, सड़ी-गली जगह बैठाओ, 18 घंटे दौड़ाओ, पैसे के लिए सब कर लेता है। और यह भी जान लीजिए कि अमेरिका में व यूरोप में, जापान व आस्ट्रेलिया में अभी भी बच्चे फुटबाल के खिलाड़ी, लेखक, चित्रकार, फोटोग्राफर बनना चाहते हैं। ज्ञान के लिए वे भौतिकी, रसायन, इतिहास या भूगोल में शोध करते हैं। नोबेल पुरस्कार तो इन्हीं में मिलते हैं। ऊपर लिखित डिग्रियों में नहीं। इसलिए इस धारणा को भी बदलना होगा और इन तथाकथित आधुनिक विधाओं को मूल विषयों की कीमत पर बढ़ाने का प्रक्रम रोकना होगा।