रोचक राजस्थान के प्रत्येक अंक में धारणाओं पर मंथन का प्रयास हो रहा है। हमारे शोध में यह निष्कर्ष निकला है, कि गलत धारणाएँ अकसर समस्या समाधान में सबसे बड़ी बाधा बनकर उभरती है। इन धारणाओं की उत्पत्ति गलत व्याख्याओं से हो जाती है। फिर जब ये व्याख्याएँ निहित स्वार्थों के कारण प्रसारित की जाती हैं, तो पक्की होती जाती हैं। अनेक बार निष्क्रिय लोगों के लिए भी यह तर्क की ढाल बनकर उभरती है। भ्रष्टाचार, जनसंख्या, गरीबी, विकास आदि पर जिन धारणाओं ने बुद्धिजीवियों को जिस प्रकार जकड़ रखा है, उससे समस्या के मूल में पहुँचना मुश्किल हो गया है। आम जनता भी बुद्धिजीवियों के बहकावे में वही बातें दोहराती रहती है। आज कुछ ऐसी ही धारणाओं पर मंथन करते हैं। अभिनव राजस्थान की विचार प्रक्रिया में गलत धारणाओं के जाल को तोड़ना भी एक प्रमुख लक्ष्य जो है।
विकास दर
कुछ दशकों से हमारे अर्थशास्त्री हमें बरगला रहे हैं कि हमारा देश तेज गति से विकास कर रहा है और इसके लिए वे विकास दर को आधार बता रहे हैं।
यह आँकड़ों का खेल वे इतने खतरनाक ढंग से खेल रहे हैं, कि इसका परिणाम अभी दिखाई नहीं दे रहा है। वे कहते हैं कि हम अमेरिका, चीन और यूरोप को पीछे छोड़ देंगे। लेकिन बिना उत्पादन बढ़े, यह कैसे हो रहा है, इस पर अधिकांश लोगों की नजर नहीं है। अब अगर विदेशी कम्पनियाँ हमारी जमीन, हमारे श्रम का सस्ता उपयोग कर हमें लूट रहे हैं, तो इस विकास दर से हमें क्या फायदा होगा? इन विदेशियों के साथ हमारे कुछ धनपति भी मिल गये हैं और मीडिया को उन्होंने अपने गीत गाने के लिए खरीद रखा है। ये विकास समाज के एक अत्यन्त छोटे वर्ग का है, भूगोल के थोड़े से टुकड़े का है। इससे अधिकांश भारत का कोई लेना देना नहीं है। घर में एक व्यक्ति समृद्ध हो जाये, बाकी भूखे मरें, तो उस एक व्यक्ति के विकास दर का ‘घर’ के लिए सिवाय कुंठा के कोई मायना नहीं है।
शिक्षा
शिक्षा पर हमारी बहस एक अंधेरी गली की तरफ ले जा रही है। इस पर इतना बोला और लिखा जा रहा है कि शिक्षा के मूल प्रयोजन से ध्यान ही हट गया है। अब शिक्षा का ज्ञान से सम्बन्ध ही कट गया है और इसकी मंजिल साक्षरता और डिग्री ही रह गयी है। अब अधिकतर ध्यान स्कूलों में नामांकन बढ़ाकर वाहवाही लूटने, भवन निर्माण, परीक्षा पद्धतियों में परिवर्तन और जैसे-कैसे भी संस्थान खोलने पर लग गया है। देश के विकास के लिए शिक्षा का विस्तार करने की अंधी दौड़ में नई पीढ़ी को धकेल दिया गया है, जहाँ सरकारी और गैर-सरकारी माफिया आम जन का शोषण मात्र कर रहा है।
दरअसल शिक्षा का अर्थ होता है – समाज की वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप वांछित नागरिक तैयार करना। लेकिन इस पर कोई बहस नहीं है, चर्चा नहीं है। 70 प्रतिशत लोगों को इतिहास पढ़ाकर पता नहीं किस तरह के नागरिक तैयार किये जा रहे हैं। क्या हमारी मुख्य आवश्यकता हमारे इतिहास को जानना ही है। नहीं तो फिर इस बात पर चिंतन बंद क्यों है? हमारी अर्थव्यवस्था का 60 प्रतिशत भाग खेती पर आधारित है और उससे जुड़े ज्ञान के लिए 1 प्रतिशत से भी कम ध्यान दिया जा रहा है। कुटीर उद्योगों को हमारी प्रत्येक उद्योग नीति में भारतीय विकास का आधार बताया जाता है। फिर उद्योग के इस क्षेत्र को आगे बढ़ाने की शिक्षा क्षेत्र में भारी उपेक्षा क्यों है? कपड़े, साबुन, जूते, टूथपेस्ट, पेन, फर्नीचर, कप-गिलास आदि वस्तुएँ बनाने से ध्यान क्यों हटाया हुआ है? केवल बड़ी कम्पनियों के भरोसे देश की महत्वपूर्ण उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन छोड़कर हम कितना बड़ा गुनाह कर रहे हैं? इन्हीं बातों पर शिक्षा के क्षेत्र में चिंतन-मंथन हो तो कुछ हो जायेगा। वरन् तर्कशास्त्रियों की चिकनी चुपड़ी बातों से शिक्षा का अनर्थ होता ही रहेगा। ‘अभिनव राजस्थान’ में विस्तार से कार्ययोजना तैयार हो रही है, जिससे कोई भी शिक्षित व्यक्ति रोजगार के लिए हाथ फैलाने की बजाय रोजगार पैदा करने के लिए अपने हाथ और दिमाग चलाता नजर आयेगा।
पर्यटन
पर्यटन से भारत का विकास करने की बातें तो आप रोज पढ़ते होंगे। आमिर खान एक विज्ञापन में कहते हैं कि इन विदेशी मेहमानों से ही तो हमारा देश चलता है। हम बिना सोचे समझे आमिर के दिमाग की दाद दे देते हैं। क्या कोई देश मेहमान नवाजी से चलाया जा सकता है। हाँ, पर्यटन व्यक्ति के जीवन की जरूरत है, ताकि वे अपने कार्य स्थल से दूर जाकर आराम कर सके, दुनिया देख सके। लेकिन हमारे यहाँ पर पर्यटन का अर्थ रह गया है-पश्चिमी देशों के व्यक्तियों का यहाँ आगमन और हमारे चिर परिचित गुलामी और हीनता से भरे लोगों का भिखारियों की तरह उनके आगे-पीछे घूमना। देशी पर्यटकों को तो हम ‘यात्री’ कहते हैं और अधिकांश प्रसिद्ध स्थानों पर तो वहाँ के स्थानीय निवासी, इन देशी पर्यटकों को तो देखना भी नहीं चाहते हैं। यह पर्यटन नहीं है? ऐसे पर्यटन के विकास से देश को अधिक लाभ नहीं है। हमें कोशिश करनी चाहिये कि हमारे स्थानीय पर्यटकों के लिए सुख सुविधाएँ जुटायें, ताकि हमारे देश के नागरिक एक जगह से दूसरी जगह जायें और देश एकता के सूत्र में बंधे। अभी तक तो हम मणिपुर-त्रिपुरा-नागालैण्ड जैसे सुन्दर स्थानों को राजस्थान-मध्यप्रदेश-गुजरात के लोगों से परिचित नहीं करवा पाये हैं। अभी भी अमरनाथ और अजमेर जाने वाले देशी पर्यटक हमारी प्राथमिकता में ठीक से नहीं आ पाये हैं। स्थानीय माल की स्थानीय खपत से स्वावलम्बन आता है। वैसे ही स्थानीय पर्यटन के भी दोहरे फायदे हैं। विदेशी माल और पर्यटक तो आटे में नमक जितने ही ठीक हैं, ताकि अन्य देशों से अच्छे सम्बन्ध बने रहें।
आधारभूत ढाँचा
पिछले तीन दशकों से पूरे देश में हल्ला मचा है कि आधारभूत ढाँचे से ही विकास संभव होगा। मीडिया ने आग में घी डाल दिया है। सब तरफ सीमेन्ट और स्टील दिखाई दे रहा है। झूठ को सौ बार दोहराओ तो वह सच से ज्यादा सच जान पड़ता है। यही आधारभूत ढाँचे के साथ हुआ है। हाँ, इससे इन्कार नहीं है कि इसकी आवश्यकता है। बात दूसरी है और वह यह कि विकास की प्रक्रिया शुरू होने के बाद यह ढाँचा उसकी गति को बढ़ा सकता है। पहले प्रक्रिया प्रारम्भ तो हो। हम तो आधारभूत ढाँचे को ही विकास समझ कर बैठ गये हैं। साधन को हमने मंजिल मान लिया है। गाँव में सड़क बनी, तो लो विकास हो गया। खेती वहाँ नहीं पनपी, छोटा उद्योग नहीं पनपा, तो कैसा विकास हो गया। हाँ विकास हो गया-सीमेन्ट, स्टील बनाने वालों का। इनसे सड़क-भवन बनाने वाले का। लेकिन जब तक गाँव की आमदनी नहीं बढ़ेगी, सड़क का हम क्या करेंगे? और सड़क बनने से खेती कैसे पनपेगी? हाँ, खेती-उद्योग पनप जायेंगे, तो उस आमदनी से सड़क बनायी जा सकती है। वरन् विश्व बैंक या अन्य ऐजेन्सी के उधार के पैसे यह कौनसा विकास हो रहा है? अब इस गलत चिल्लाहट का नतीजा यह हो गया है कि खेती और उद्योग हमारी योजनाओं में मात्र 3-4 प्रतिशत के निवेश तक सिमट गये हैं। इसमें भी कमाल यह कि इतनी सी रकम भी आधी खर्च नहीं हो पाती है। वाकई में धारणाएँ कभी-कभी देश के लिए इतनी खतरनाक हो जाती है कि पूरी एक पीढ़ी को खा जाती हैं। इस सीमेन्ट-स्टील ने महानगर से गाँव तक कोका-कोला, गुटखा व मोबाइल की तरह इतनी जड़ें जमा ली है कि देश का तीन चौथाई योजना गत खर्च चन्द लोगों की जेब भरने के काम ही आ रहा है।
किसानों की आत्महत्याएँ
नेता और मीडिया चिल्लाते हैं, तो बुद्धिजीवी भी गर्दन हिलाने लगते हैं कि सरकार की उपेक्षा के कारण किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। कभी भी ये लोग पास जाकर आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के पिछले तीस-चालीस वर्षों का हिसाब नहीं पूछ रहे। किसे फुर्सत है, जब बैठे बिठाये बोलने की छूट भी है और आदत भी।
किसान आत्महत्या कर रहे हैं, केवल महाराष्ट्र- आंध्र प्रदेश में और वे भी गिने चुने। किसानों की हालत के लिए वे स्वयं और थोथी इज्जत के नाम पर बनी सामाजिक परम्पराएं (कुरीतियाँ) जिम्मेदार हैं। इन कुरीतियों को अब निभाना महंगाई के कारण भारी पड़ रहा है, परन्तु स्थानीय ‘इज्जत’ के कारण वे कुछ भी करके समाज में खरा उतरना चाहते हैं। अपनी कमाई के साथ-साथ बैंक और महाजन, से लिया गया पैसा भी इन परम्पराओं पर लुटा देते हैं। इस उम्मीद में कि ‘इज्जत’ बच जाये, पैसा दो-चार वर्षों में चुका देंगे। अपने रहन-सहन के झूठे दिखावे और शादियों के फिजूल खर्चों को रोकने की हिम्मत नहीं कर पाने का परिणाम ब्याज पर ब्याज होता है। एक बार कुचक्र में फंसे, तो गये काम से। अब खेती भी बेचारी कितना साथ देगी। हाँ, यह भी ध्यान रखें, खेती साथ दे भी देगी, तो अगली बार उससे भी बढ़कर खर्चा करने की किसान ठान लेंगे। जैसे पंजाब के लोग कर चुके हैं। झूठी शान से उनकी भी हालत खराब हो चली है।
इसलिए अगर बुद्धिजीवी, नेता और मीडिया, वाकई में किसानों के लिए चिंतित है, तो उन्हें फिजूल खर्ची से रोकने के लिए बड़े स्तर पर प्रयास करें। यहाँ भी ध्यान रखें, एक-एक किसान अलग से यह नहीं समझेगा। वह सामूहिकता में विश्वास करता है। इसके लिए उनके समाज (जाति) या गाँव के स्तर पर बड़ी पहल होगी, तो वे आसानी से मान जायेंगे और समृद्धि का रास्ता पकड़ लेंगे। अभिनव राजस्थान में हमने ‘अभिनव समाज’ को इसी वजह से पहली आवश्यकता बताया है। इसे जमीन बताया है, जिसकी तैयारी से ही विकास की शुरूआत होगी।
सूचना का अधिकार
नरेगा की तरह यह अधिकार भी भारत की जनता पर थोपा गया है। जनता ने कभी इसके लिए आंदोलन नहीं किया था। कुछ तथाकथित चिंतकों की चिंता और उस चिंता के महिमा मंडन से यह अधिकार आया है। अब जब भूख ही न हो और खाना परोस दें, तो क्या होगा? वही हाल, जैसा हमारे बिना क्रांति किये, मुफ्त में आजादी मिलने के कारण हुआ है। आजादी का हम केवल दुरुपयोग कर रहे हैं, वरन् हम तो गुलामी पसन्द लोग आज भी हैं। अब दे दी गयी है, तो जब-तब आजादी का फायदा उठा लेते हैं। यही सूचना के अधिकार के साथ हो रहा है। पाँच वर्ष हो गये हैं, कल दस-बीस वर्ष भी हो जायेंगे। इक्का-दुक्का लोग इसका उपयोग-दुरुपयोग कर लेते हैं, तो हम किनारे पर बैठकर उनके लिए तालियाँ बजा लेते हैं। तर्क देने के लिए एक-दो उदाहरण दे देते हैं कि देखिये इस अधिकार ने क्रांति कर दी है। छोटे-मोटे अधिकारियों की सूचनाएँ मांगी जा रही है, जबकि बड़े लोगों से बचा जा रहा है। उनके हाथ-पैर लम्बे जो ठहरे। अब जब अधिकार की रचयिता अरुणा राय भी सोनिया गाँधी की सलाहकार परिषद् की सदस्य बनकर ‘संतुष्ट’ हो गयी है, तो इस अधिकार का प्रयोग कौन करेगा? धीरे-धीरे इसका असर जागरूकता के अभाव में खत्म हो जायेगा, जैसा अन्य अधिकारों के साथ हुआ है। वोट का अधिकार भी तो दिया गया था? उसके क्या हाल है? पैसे और अन्य प्रभावों से किस तरह उस अधिकार का बाजा बज गया है। गलत मात्रा में दिये गये एण्टीबायोटिक जैसे जीवाणुओं की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं, वैसे ही यह छोटे-छोटे प्रयोग भारतीय जनता की आमूल चूल परिवर्तन की भूख मिटा देंगे। नरेगा ने भ्रष्टाचार की जड़ें गाँव-गरीब तक मजबूत कर दी है, तो सूचना के अधिकार प्रशासन में ‘कुछ और’ लोगों की भागीदारी या प्रभाव बढ़ाकर प्रशासन को उलटे मदद कर देगा। भागीदारों की संख्या बढ़ने पर रहे-सहे जागरूक नागरिक भी कम होते जायेंगे। तो क्या यह अधिकार नहीं चाहिये? चाहिये, परन्तु जन जागरण के बाद। गलत हथियार, अप्रशिक्षित हाथों से खतरनाक ही साबित होता है। ‘अभिनव राजस्थान’ इस हथियार के लिए प्रशिक्षित नागरिक पहले तैयार करेगा।
गांधीवाद
मात्र खादी पहनना और चरख़ा कातना गांधीवाद नहीं है या नाम के पीछे गांधी सरनेम लगाना भी गांधीवाद होने की गारंटी नहीं है। गंधीवाद तो कोई वाद ही नहीं है। यह तो भारत के विकास की एक समग्रता भरी सोच है। भारतीय संस्कृति के मूल स्वभाव को देखते हुए आगे बढ़ने का मार्ग है। समाजवाद या पूंजीवाद, तो जीवन को टुकड़ों में देखने के दृष्टिकोण हैं। इन्हें भारतीय परिवेश में नहीं समझा जा सकता है। चिंतकों ने कोशिश करके देख भी लिया है। जाति-विहीन, धर्म निरपेक्ष या नास्तिकता से भरा देश पैदा करने की कोशिशें मजाक बनकर रह गयी हैं। गांधीवाद का अर्थ है मानव मूल्यों का सम्मान करते हुए आगे बढ़ते रहना। इस विचार के अनुसार स्थानीयता और स्वावलम्बन भारत की प्रगति के आधार हो सकते हैं। विदेशियों से परहेज नहीं करना है, परन्तु उनकी दी हुई बैसाखी से नहीं चलना है। गाँव, भारतीय समाज की आत्मा है और हमारा विकास गाँव के विकास का पर्याय होना चाहिये। कृषि, पशुपालन और छोटे उद्योगों के विकास से मजबूत गाँव ही देश की सुरक्षा की गारंटी हो सकते हैं। सदियों से भारतीय मानस जिस संस्कृति में रंगा रहा है, उससे हटकर नये-नये बने देशों-अमेरिका या ब्रिटेन की तर्ज पर विकास करने की भूल से अब उबर जाना चाहिए। आश्चर्य तो देखिये, चीन जैसा देश, गांधी जी की तर्ज पर चल पड़ा है और दुनिया की वास्तविक ताकत बनने जा रहा है। जबकि हमारे पूर्व के क्षेत्रों में माओ के प्रभाव से क्रांति हो रही है, गांधी जी के प्रभाव से ग्राम विकास नहीं हो रहा है। गांधी जी को झुठलाने की नेहरूवादी सोच का यह कितना भयानक परिणाम आया है। सच ही तो है – जहाँ गांधीवाद खत्म, वहाँ माओवाद शुरू!