कहते हैं कि लोकतंत्र में तथ्यों से अधिक धारणाएँ महत्वपूर्ण हो जाती हैं। मानवीय स्वभाव गणित के नियमों से परे होता है। आसपास के वातावरण से कई बार हम इतने प्रभावित हो जाते हैं, जैसे खोपड़ी में बसा दिमाग केवल भावनाओं से चलने वाला चुम्बक मात्र है। ऐसे में धारणाओं के इस खेल को समझना किसी भी युग के नीति निर्धारकों व चिंतकों के लिए आवश्यक होता है। क्योंकि गलत धारणाएँ अकसर समाधान में सबसे बड़ी बाधक होती हैं। मान लीजिये कि कोई बेकार बैठा आलसी व्यक्ति अपनी कमजोरी के लिए अपने आसपास के लोगों को दोषी ठहराता रहे, तो आप क्या कहेंगे? यही न कि अपने भीतर झाँको, उठो और काम करो। यही न। तो लीजिये यहाँ हम ऐसी ही कुछ धारणाओं पर विचार करते हैं, ताकि समाधान की दिशा में चिंतन मुड़ सके। अभिनव राजस्थान और अभिनव भारत बन सके।
जनसंख्या की समस्या अकसर यह कहा जाता है कि भारत में अधिक जनसंख्या एक बड़ी समस्या है। तर्कशास्त्री तो इसे सभी समस्याओं की जड़ बता देते हैं। जबकि होना तो यह चाहिये कि इस शब्द को हम ‘जनशक्ति’ कहें। हम संख्या मात्र नहीं है, चलते-फिरते सोचने वाले लोग हैं। यह अलग बात हे कि हमारी जनशक्ति के उपयोग का वातावरण हमारे नेतृत्व द्वारा नहीं बन पाया है। उस अक्षमता को छिपाने के लिए ‘जनसंख्या’ को ही समस्या बता दिया गया है। जबकि चीन ने अपनी जनशक्ति को पूँजी बनाकर उपयोग में लिया है और उसी की ताकत पर विश्व का सबसे मजबूत देश बनने जा रहा है। कह तो हमारे राजनेता और मीडिया भी रहे हैं कि हम विश्व की ताकत बनने जा रहे हैं। परन्तु फर्क यह है कि चीन उत्पादन के दम पर विश्व की ताकत बन रहा है और हम अपनी संख्या के आधार पर ‘शोषण’ का सबसे बड़ा बाजार बनने वाले हैं।
विकास विकास का अर्थ होता है, आज की स्थिति से बेहतर कल की ओर। अधिकतर आर्थिक क्षेत्र में विकास की ही चर्चा होती है। हम विकास कहेंगे-जीवन स्तर में सुधार को। यह होगा उत्पादन बढ़ने से और उससे हमारी औसत आय बढ़ने से। परन्तु हमारे यहाँ विकास का अर्थ उत्पादन से न होकर उधार के पैसों से सेवाएं चलाने को कह दिया गया है। शिक्षा-स्वास्थ्य-पानी-सड़क-ऊर्जा के लिए हम उधार लेकर आधारभूत ढाँचा खड़ा कर रहे हैं, जिस पर विदेशी उत्पादक सवार होकर हमारे देश की अर्थव्यवस्था चलायेंगे। हमारे यहाँ का उत्पादन कृषि एवं उद्योग का तो दिनों दिन ठप्प होता जा रहा है।
गरीबी गरीबी के नाम पर देश की जनता को बार-बार ठगा गया है। गरीबी समाप्त करने पर अरबों रुपये खर्च कर दिये गये हैं, परन्तु आज तक एक भी गरीब की गरीबी इन योजनाओं से खत्म नहीं हो पायी है। शायद यह मानव इतिहास का सबसे बड़ा मजाक है। दरअसल, गरीबी, गरीबों को पैसा बांटने, मुफ्त का अनाज देने या अनुदान देने से कभी भी खत्म नहीं हो सकती। बाबा रामदेव भी इंदिरा गाँधी की तरह बोल रहे हैं। विदेशों से पैसा लाकर गरीबों में बाँटना चाहते हैं। हम भी हाँ में हाँ मिला रहे हैं। गरीबी खत्म करने का एक ही रास्ता है : उत्पादन बढ़ाकर अधिक से अधिक लोगों को काम में लगाना। न कि खड्डे खोदने का अनुत्पादक काम ‘नरेगा’ के माध्यम से देने से। गरीबी की रेखाएँ खींचना या उनकी ‘संख्या’ गिनना बंद कर हमारी जनशक्ति के 60 प्रतिशत लोगों को गरीब मान लेना चाहिए। गाँव-गाँव, शहर-शहर में खेती और कुटीर उद्योगों का उत्पादन बढ़ाने पर ही गरीबी खत्म होगी। और तभी देश भी सही अर्थों में विकसित होगा। ग़रीबों को दान-अनुदान देने की प्रवृत्ति बंद होनी चाहिए। जब हम एक देश हैं, एक परिवार हैं, लोकतांत्रिक हैं, तो ‘गरीब’ शब्द को 60 वर्षों से क्यों ढो रहे हैं। कौन गरीब, कौन अमीर। भाई-भाई को दान दे रहा है?
महंगाई महंगाई एक बाजारू लक्षण है। मांग अधिक हो और उत्पादन कम हो, तो महंगाई होनी स्वाभाविक होती है। सरकारों की इसमें अधिक भूमिका नहीं होती है। आरोप-प्रत्यारोप के लिए यह मुद्दा काम आ सकता है! केवल उत्पादन बढ़ाना ही अन्तिम उपाय होता है। सरकार को मात्र ध्यान रखना होता है कि आयात-निर्यात से बाजार अधिक उछाल न खा जाये।
नेता नेता वह होता है, जो देश व समाज में परिस्थितियों के अनुसार सकारात्मक परिवर्तन सुझाता है और देश व समाज को इन परिवर्तनों के लिए तैयार करता है। अब हमारे यहाँ, कोई भी खादी धारी या पदधारी नेता हो चला है, और इनमें से अधिकांश भीड़ के पीछे चलते हैं। भीड़ कहे, बस जलायेंगे, तो वह माचिस दे देता है। इसे जनता की मांग ठहरा कर अपने नेतृत्व की कमी को छुपा लेता है। अभिनव राजस्थान में बस जलाने वाली भीड़ को रोकने वाला नेता होगा। वह भीड़ से कहेगा कि बस हमारी सबकी सम्पत्ति है। विरोध ही करना है, तो शान्तिपूर्वक तरीक़ों की कमी नहीं है। असली नेता चिंतन-मनन करेगा, योजना बनायेगा, जनता का मनोबल बढ़ायेगा, समृद्धि का विश्वास दिलायेगा और स्वयं कार्य कर उदाहरण पेश करेगा, केवल नसीहतें नहीं देगा। राजनीति गंदी है ? पहले राजनीति शब्द को समझ लें। अगर राजनीति का अर्थ राज में आने की नीति है, तो यह गंदी होकर ही रहेगी। राज की भूख इनसान को हैवान बना देती है। लेकिन जब हमने लोकतंत्र की व्यवस्था अपनाने की बात तय कर ली है, तो फिर राजनीति के स्थान पर लोक नीति शब्द को चुनना चाहिये था। राजनीति तो राजतंत्र का शब्द था। राजा-प्रजा से जुड़ा था। राज में आने और बने रहने की नीति थी राजनीति। अब राज में न आकर सेवा में अग्रणी होना, जिम्मेदारी लेना लोकतंत्र की आवश्यकता है। तभी ‘लोक’ के लिए ‘नीति’ को प्रमुखता रहेगी। अभी भारत में केवल लोकतंत्र आया है, लोक नीति नहीं आयी है। उसी की प्रतीक्षा है और जब वह नीति आ जायेगी, तो वह कभी भी गंदी नहीं होगी। यही भ्रम है, जिसने हमें उलझा रखा है। बेचारे राजनेता, अपने को ‘राजा’ ही समझते हैं और हम भी प्रजा बनकर सोनिया-राज या वसुंधरा-राज ही कहा करते हैं। राजनीति गंदी नहीं हो गयी है, गंदी ही थी और रहेगी। हमारी मानसिकता अभी लोकतंत्र के लिए तैयार नहीं हुई है। गलती हमारी ही है।
आधारभूत ढाँचा उत्पादन पहले हो, या आधारभूत ढाँचा। यह कहानी लगती तो पहले मुर्ग़ी या अंडे जैसी है, परन्तु वैसी है नहीं। उत्पादन बढ़ेगा, तो उससे हुई आमदनी से हम आधारभूत ढाँचे को और मजबूत कर लेंगे। इससे उत्पादन और बढ़ेगा। यही स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन इस देश में सीमेन्ट और स्टील माफिया ने ऐसा जाल बुना है कि हम सभी उसी धारणा में उलझ गये हैं। गाँवों-शहरों में सड़कें बन रही हैं, भवन बन रहे हैं, परन्तु उत्पादन ठप्प हो रहा है। गाँव में सड़क के विकास का पर्याय बता दिया गया है और सरकारी पैसा उसमें बहाया
नरेगा नरेगा, पर व्यर्थ बहस जारी है। इसमें भ्रष्टाचार पर देश की अमूल्य स्याही खराब हो रही है। मूल बात पर चर्चा ही नहीं हो रही है। क्या यह एक रोजगार योजना है? इस पर ध्यान नहीं जा रहा। बुद्धिजीवियों की ‘बुद्धि’ फिसल रही है। रोजगार का अर्थ होता है, किसी व्यक्तिगत या परिवार का ऐसे कार्य में संलग्र होना, जिससे उसकी मूलभूत आवश्यकताएं पूरी हो जायें और भविष्य की सुरक्षा के लिए भी कुछ पैसा बच जाये। अब 10000 रुपये प्रतिवर्ष एक परिवार को मिलें तो प्रतिदिन के 27 रुपये 39 पैसे होते हैं। आज की महंगाई में यह उस परिवार के लिए एक समय के भोजन का पैसा भी नहीं है। अब आप अरूणा राय और सोनिया की सलाह पर सरकार से इसे 11 हजार 900 रुपये (119 रुपए प्रतिदिन) करवा कर वाहवाही लूट लीजिये। प्रतिदिन के 32 रुपये 60 पैसे हो जायेंगे। क्या खास फर्क पड़ गया? हो गयी गरीबी खत्म? हो गया भारत निर्माण? उस पर आप दाल, तेल, चीनी, चावल, कपड़ा महंगा कर दीजिये। आयात-निर्यात का खेल ऊपर ही ऊपर खेल लीजिये और अपना कमीशन स्विस बैंकों में जमा कर लीजिये। बुद्धिजीवियों को नहीं लगता कि उन्हें कलम रखकर मन्थन करना चाहिये?
करदाता अधिकतर हम समझते हैं या हमें समझा दिया जाता है कि बड़े उद्योगपति या व्यापारी ही देश के करदाता हैं और सरकार उनके पैसों से चलती है। सरकार उनसे डरी भी रहती है और उन्हें खुश करने के लिए नीति भी बनाती है। क्या जिन्हें हम गरीब कहते हैं, वह भी करदाता हैं? विश्वास नहीं होता होगा? जी हाँ, वे ही असली कर दाता हैं। बड़े उद्योगपति और व्यापारी तो कर की चोरी शान से कर लेते हैं, परन्तु उपभोक्ता (जिनमें गरीब भी शामिल हैं) अपने खरीदे सामान पर पूरा कर चुकाते हैं। दाल, चीनी, साबुन, दवा आदि जो भी चीज़ें ख़रीदते हैं, उस पर कर सहित छपा पूरा मूल्य चुकाते हैं। अब सरकार तक नहीं पहुँचे, तो उसका वे क्या करें?
काला धन बाबा रामदेव विदेशों में पड़े धन को काला धन कहते हैं। इसमें सुविधा भी है। जैसे हम अँग्रेज़ों को भारत छोड़ने के लिए कह रहे थे, मगर राजा-महाराजाओं के अधीन उत्तरदायी शासन में खुश रहना चाहते थे। काला धन, वह है जो देश की अर्थव्यवस्था के हिसाब से बाहर है। यह देश के बाहर हो या भीतर, काला ही होता है। अभी बाबा का ध्यान विदेश में धन पर है या अफ़सरों-कर्मचारियों के पास रिश्वत से कमाये धन पर है। जिस दिन देशी व्यापारियों के पास पड़े धन पर हाथ डालने की बात कहेंगे, बाबा की सभाओं में भीड़ स्वत: ही कम हो जायेगी। क़स्बों-शहरों में दुकानों पर बाबा की तारीफ़ों के पुल बाँधते व्यापारी इसी बाबा को ढोंगी कहना शुरू कर देंगे! काला धन खत्म करना, भ्रष्टाचार खत्म, करना मजाक नहीं है। इतनी विशाल जनशक्ति की मानसिकता बदलना, लोकतंत्र की व्यवस्था में विश्वास पैदा करना और करोड़ों लोगों को उत्पादन में लगाना आधारभूत कार्य हैं, जिन्हें पहले करना होगा। काला धन तभी विकास एवं जागृति की रोशनी और आग में जलकर खाक हो पायेगा।
mere intern ka stipend toh 119 nhi 118 rupees per day hi hai