क्या कारण है कि आज लोग पागलों की तरह मोबाइल लेकर घूम रहे हैं? जहाँ देखो, हाथ में मोबाइल थामे मर्द और औरतें खड़े हैं, बातें कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे जन्मों कि कोई प्यास थी जो अब बुझ रही है। वरन् इस बीमारी से कौन दो चार होना चाहेगा ? एक दशक के बाद वैज्ञानिक बताने लगे हैं कि दिन में 30 मिनट से ज्यादा बात करना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। कई सालों बाद गुटखे के बारे में पता चला था तब तक नई और पुरानी पीढ़ी के मुंह चिपक चुके थे। तब चेतावनियों का दौर चला और लोगों को इसके संभावित नुकसानों के बारे में बताया गया , लेकिन अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत ! ऐसा ही मोबाइल के साथ होगा , जब चारों तरफ बहरे लोगों की भीड़ होगी, मस्तिष्क कैंसर के मरीज़ होंगे।
आखिर लोगों को क्रिकेट और गुटखे के बाद यह बीमारी कैसे लगी ?
1. पहला कारण मोबाइल को लग्जरी आइटम मान लेना है। कार, ए सी की तरह मोबाइल को भी भारत में लग्जरी मान लिया गया है। ग़रीब आदमी भी इस लग्जरी से रुबरु चार हो लिया है। उसे तो जैसे धनवान होने का अहसास सस्ते में ही हो गया है। मिडिल क्लास के लोगों को भी क्रिकेट और गुटखे के बाद एक नया जुनून हाथ लग गया है।
2. दूसरा कारण भारतीयों की बतियाने की आदत है। हम तो वैदिक काल से ही लिखने से ज्यादा बोलने के शौकीन रहे हैं। यह तो मुग़लों- अंग्रेजों ने लिखने कि अहमियत समझा दी, वरन् हमें तो लिखने से परहेज ही रहा था। आज भी वह आदत गई नहीं है। हम अब भी हस्ताक्षर से अधिक कुछ नहीं लिखते है। ज़ोर लगायें तो एस एम एस कर सकते है। पत्र या लेख लिखने की हिम्मत नहीं है। ऐसे में मोबाइल पर बातें करते रहते हैं। लेकिन बातें भी अधिकतर गैरजरूरी !
3. ठाले बैठने में भी हम दुनिया में सबसे आगे हैं। कभी ताश खेलते रहते थे, तो कभी सड़क छाप राजनीति की बातें हमारा मनपसंद टाइमपास होता था। अब उनकी जगह मोबाइल ने ले ली है। अभी भी अधिकांश भारतीय मानसिक रूप से बेरोज़गार ही हैं, भले उन्हें कोई काम भी मिला हुआ हो। काम करने की ज़िम्मेदारी कम ही लोगों में पाई जाती है। इस स्थिति में मोबाइल रही सही कसर पूरी कर देता है। पुलिस का सिपाही, अस्पताल की नर्स, ऑफ़िस का बाबू, बस का ड्राइवर या फिर स्कूल का टीचर जब काम के दौरान बतियाते हैं तो कितने खतरनाक लगते हैं। और कोई टोकने वाला भी नहीं होता।
4. विज्ञापनों ने भी भारी काम किया है। क्रिकेट और गुटखे की तरह यह बीमारी हमारे जीवन में घुसा दी है। कम्पनियों ने भारत की गैर जिम्मेदार जनता की आदतों को भाँप लिया है और भारत के कोने कोने में मोबाइल, क्रिकेट और गुटखा पहुंचा दिया है। यह अलग बात कि वहां तक अभी पीने का पानी, बीमारी की दवा या अच्छी शिक्षा नहीं पहुँच सकी है। मॉरिशस के रास्ते आये काले धन ने गरीबों और अमीरों की जेब पर एक साथ हाथ मारने का कमाल दिखा दिया है।
5. बच्चों के लिए यह नया खिलौना बर्बादी की संभावनाएं लेकर आया है। बचपन में ही देश के बच्चे जवान हो रहे हैं। उनके लिए प्रमुख कारण खेल कूद के अवसर ख़त्म होना है।
उक्त कारणों से मोबाइल को एक आम भारतीय की अन्य मूल ज़रूरतों – रोटी, कपड़ा, रोज़गार, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य से भी ऊपर रख दिया है। उस पर हमारे बुद्धिजीवियों की निष्क्रियता ने या कहिये इस बीमारी में भागीदारी ने आग में घी का काम किया है।
तो क्या करें ? मोबाइल बंद कर दें ? नहीं जी. बंद नहीं करें , केवल गैरजरूरी बात न करें। आपका स्वास्थ्य ठीक रहेगा, पैसा बचेगा, देश का पैसा मॉरिशस के रास्ते कम बाहर जायेगा और देश में मोबाइल पर ध्यान कम होने से काम बढ़ेगा।
बच्चों पर भी रहम करें और उनके इस स्टेटस सिम्बल को आगे के लिये छोड़ दें। आपको अच्छा मां-बाप बनने के कई और भी रास्ते हैं। ऐसा न हो कि कुछ समय बाद बच्चों को किसी मोबाइल छुड़ाने वाले क्लिनिक में ले जाना पड़े और भगवान न करे सर में कोई गांठ तब तक बन जाये तो….. अभी भी वक्त है, रोकथाम ही इस महामारी का ख़रा और पक्का इलाज है।
– डॉ. अशोक चौधरी
“हम तो वैदिक काल से ही लिखने से ज्यादा बोलने के शौकीन रहे हैं। यह तो मुग़लों- अंग्रेजों ने लिखने कि अहमियत समझा दी, वरन् हमें तो लिखने से परहेज ही रहा था।”
इतना विपुल संस्कृत साहित्य पाली, प्राकृत, डिंगल-पिंगल, तमिल, तेलुगू, बांग्ला साहित्य वैदिक काल, पुराण काल व 1000 सीई से पहले लिखा गया है और लिपियों की महारानी ब्रह्मी-देवनागरी व अन्य बनाने वाले हिंदुओं को लिखना मुग़ल-अंग्रेज सिखाएंगे, भाईसाहब आप व्यंग्य में कुछ अधिक ही कह गए हैं। ये बातें माडर्न सेक्युलर करें तो कोई बात नहीं आप लिखते हैं तो जी दुखता है
mai bhee subash bhai se sehmat hun