धरती के किसी भी कोने में निवास करने वाले व्यक्ति की मनोदशा पर कई प्रभाव पड़ते हैं। इतिहास, संस्कृति, भूगोल और सामाजिक परम्पराएं, हमारे मन पर गहरा असर डालती हैं और हमारा एक साझा व्यक्तित्व विकसित हो जाता है। भारत में अभी भी मनोविज्ञान पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है और इसकी उपेक्षा से हम यहाँ की कई व्यक्तिगत एवं सामूहिक समस्याओं की तह तक नहीं पहुँच पाते हैं। आइये, राजस्थान के सन्दर्भ में मनोविज्ञान को लागू करके देखें, शायद हमारे नीति निर्धारण करने में यह सहायक हो। राजस्थान के इस मनोविज्ञान का उपयोग कर अगर कोई राजनैतिक, सामाजिक या आर्थिक नेतृत्व अपनी रणनीति बनाये, तो सफलता, अप्रतिम सफलता मिल सकती है। सकारात्मक पहलू मदद कर सकते हैं और नेतृत्व की क्षमता से नकारात्मकता व अविश्वास को कम किया जा सकता है। यह ध्यान रखना होगा, कि हम 7 करोड़ मनुष्यों के साथ काम कर रहे हैं, जो सोचते भी हैं (जैसा भी) और जिनके मनों में भी भाव होते हैं। अन्यथा दोनों तरफ से दोषारोपण तो जारी ही है।
नफे की नजाकत , गहरी समझ
किसी भी विषय की समझ, तुलनात्मक दृष्टि से आम राजस्थानी में काफी गहरी होती है। मैंने पृष्ठ एक पर इसके ऐतिहासिक कारणों पर लिखा है। सदियों की समृद्ध संस्कृति और अर्थव्यवस्था का असर इतना आसानी से नहीं जायेगा। वहीं दूसरी तरफ यहाँ के कठोर वातावरण ने भी हमारे मन की गहराईयों को बढ़ाया है। अब तो समस्या यही रह गयी है कि इस समझ के उपयोग के वर्तमान में अवसर कम पड़ गये हैं। हमारे गाँव-गाँव, कस्बे-कस्बे में ऐसे अनेक लोग आज भी इन अवसरों की तलाश में बैठे हैं। उनको मौका मिले तो वे राजस्थान को तो मजबूत बनायेंगे ही, भारत को विश्व की प्रमुख ताकत बनाने में सबसे आगे मिलेंगे। हमारे योजनाकारों को इनके अत्यधिक स्वाभिमान का ध्यान रखते हुए इस समझ का उपयोग देश हित में करना चाहिए। इस गहरी समझ की झलक हमारे यहाँ के साहित्य और लोककथाओं, कहावतों, बातों में भी मिलती है। एक शब्द में या एक वाक्य में गम्भीर विषय को स्पष्ट कर दिया जाता है और उसे इसी रूप में आम राजस्थानी समझ भी लेता है। लेकिन यहाँ की शिक्षा व्यवस्था में स्थानीय साहित्य को प्राथमिकता नहीं देने से यहाँ के बच्चों की इस पारम्परिक समझ पर असर पड़ने लगा है और वे मात्र अनुवाद करने में व्यस्त हैं। घर और स्कूल की भाषा का अन्तर वे प्रथम कक्षा से ही भुगतना शुरू कर देते हैं।
कला के पारखी
हमारे घरों की बनावट, हमारा पहनावा, हमारे औजार, हमारे मंदिर-मस्जिद, हमारे खेतों की देखभाल, जानवरों का शृंगार। हमारे प्रत्येक काम में जो तारतम्य और आकर्षण दिखाई देता है, वैसा अन्यत्र नहीं मिल पायेगा। गुजरात में पैसा अधिक हो सकता है, लेकिन कभी वहाँ के पहनावे और घरों को देखिए। आपको राजस्थानी आँख और हाथ जैसी परख विश्व में नहीं मिलेगी। सोने, चाँदी, लोहा-पीतल, मिट्टी और धागों पर भी जब हमारे हाथ चले हैं, तो निर्जीव वस्तुएँ जीवंत हो उठती है। यहाँ के नृत्य व वाद्यों का आकर्षण तो इतना अधिक होता है कि विदेशी भी भारत की लोककथाओं के नाम पर राजस्थानी कलाओं को ही भारत की प्रतिनिधि समझते हैं। यह तो हमीं हैं कि इस समृद्ध धरोहर से मुँह मोड़ कर बैठे हैं और गरबा व भाँगड़ा पर नाचने में अपने आपको ‘आधुनिक’ समझते हैं। हीन भावना। अपने पर कम विश्वास।
राजस्थान के इन कलाकारों को कुटीर उद्योगों के माध्यम से जिस दिन हमारी अर्थव्यवस्था में केंद्रीय भूमिका दे दी जायेगी, उस दिन विश्व भर के बाजारों में यहाँ के उत्पादों की धूम रहेगी। फिर चीन द्वारा उत्पादित घटिया माल कौन खरीदेगा? आप कल्पना करके देखिए कि अगर राजस्थान के गाँव-गाँव में बैठे दर्जियों, कुम्हारों, मोचियों, लुहारों या सुनारों को विश्व की अर्थव्यवस्था से जोड़ दिया जाये तो क्या होगा? आप जर्मनी के बाजार में राजस्थान के गाँवों की बनी जूतियों के लिए होड़ लगी देखेंगे, तो यहाँ कुम्हारों व लुहारों की बनाई मटकियाँ एवं बर्तन प्लास्टिक जैसे पर्यावरण प्रदूषक से मुक्ति दिला देंगे। राजस्थान की कला का यह बोध ही कभी विश्व में भारत को सोने की चिड़िया कहलवाता था। इन्हीं कलाकारों को ढूंढ़ने और उनके उत्पाद लेने के लिए कोलम्बस और वास्को-डी-गामा या चीन के यात्री भारत पर नजर गाड़े बैठे थे। वहीं हमारे जौहरियों के परखे बिना तो दुनिया के बाजार में हीरे नहीं बिकते थे। आज भी कला का यह बोध और इसके पारखी हमारी धरती पर मौजूद हैं। हमें केवल उनकी क्षमता का उपयोग करना है।
राजस्थान के इन कलाकारों को कुटीर उद्योगों के माध्यम से जिस दिन हमारी अर्थव्यवस्था में केंद्रीय भूमिका दे दी जायेगी, उस दिन विश्व भर के बाजारों में यहाँ के उत्पादों की धूम रहेगी। फिर चीन द्वारा उत्पादित घटिया माल कौन खरीदेगा? आप कल्पना करके देखिए कि अगर राजस्थान के गाँव-गाँव में बैठे दर्जियों, कुम्हारों, मोचियों, लुहारों या सुनारों को विश्व की अर्थव्यवस्था से जोड़ दिया जाये तो क्या होगा? आप जर्मनी के बाजार में राजस्थान के गाँवों की बनी जूतियों के लिए होड़ लगी देखेंगे, तो यहाँ कुम्हारों व लुहारों की बनाई मटकियाँ एवं बर्तन प्लास्टिक जैसे पर्यावरण प्रदूषक से मुक्ति दिला देंगे। राजस्थान की कला का यह बोध ही कभी विश्व में भारत को सोने की चिड़िया कहलवाता था। इन्हीं कलाकारों को ढूंढ़ने और उनके उत्पाद लेने के लिए कोलम्बस और वास्को-डी-गामा या चीन के यात्री भारत पर नजर गाड़े बैठे थे। वहीं हमारे जौहरियों के परखे बिना तो दुनिया के बाजार में हीरे नहीं बिकते थे। आज भी कला का यह बोध और इसके पारखी हमारी धरती पर मौजूद हैं। हमें केवल उनकी क्षमता का उपयोग करना है।
राष्ट्रप्रेम के पुजारी
किसी समय में हमें राष्ट्र का प्रहरी (प्रतिहार) कहा जाता था। मण्डोर (जोधपुर) से हम पश्चिमी आक्रमणकारियों को वापिस रवाना कर दिया करते थे। चौहानों के काल तक हम राष्ट्र को अक्षुण्ण बनाये रखने में कामयाब भी रहे थे। परन्तु अपने ही भेदियों ने जब हमारी मजबूती के राज खोल दिये, तो हमने राष्ट्रप्रेम का ऐसा जज्बा दिखा दिया था, जैसा विश्व में मानवता के इतिहास में कहीं नहीं दिखा। कोई कौम यह सोच भी नहीं सकी थी। हमने रणथम्भौर से जौहर और केसरिये की नई वीर परम्परा शुरू कर दी। चित्तौड़, जालोर, सिवाना और जैसलमेर में अब भी वह स्वाभिमानी खून, वह राख बिखरी है। लेकिन इसके बाद हमारे खून में कुछ बाहरी मिलावट हो गयी, तो हमारे कुछ शासकों ने हम पर गुलामी का कलंक पोत दिया। फिर भी हमारे अधिकांश शासकों ने गुलामी मंजूर नहीं की और खेती-पशुपालन व कुटीर उद्योग के काम में लगकर अपना स्वाभिमान बचाये रखा। अँग्रेजी राज तक ऐसा ही रहा। अँग्रेजी राज जब चला गया, तो फिर हमने नये राष्ट्र की रक्षा की जिम्मेदारी सँभाल ली। आज 25 प्रतिशत सेना के जवान यहीं से देश की रक्षा में लगे हैं। कारगिल युद्ध में सबसे अधिक जवान राजस्थान के ही शहीद हुए थे। लेकिन कमाल तो यह देखिए कि कभी भी हमने क्षेत्रीयता की तुच्छ बातें नहीं की। ‘आमची मुम्बई’ या ‘गरबी गुजरात’ जैसे नारे देकर अपने को देश से अलग दिखाने का प्रयास नहीं किया। न ही सौरव गांगुली जैसे क्रिकेटरों के पीछे भागते बंगालियों जैसा भोलापन दिखाया। हमारे यहाँ के अफसर, जो अन्य प्रान्तों में सेवाएँ देते हैं, वहाँ के सौतेलेपन की बातें करते हैं। हमने कभी भी ऐसा नहीं किया और देश के अन्य प्रान्तों से आये अफ़सरों को अपना मानकर पूरा मान और जिम्मेदारी दी है।
घाटे के गुण , गुलामी की भावना
हमारे कुछ शासकों द्वारा अन्य शासकों की गुलामी स्वीकार करने का हमारे मन पर गहरा असर पड़ा था। इससे पहले हमने यह सोचा भी नहीं था कि कोई राजा किसी दूसरे राजा के अधीन भी काम कर सकता है। हाँ, सहयोगी हो सकते थे, जैसे चौहान, प्रतिहारों के सहयोगी थे। सांगा के सहयोगियों के रूप में भी कई शासक खानवा के युद्ध में लड़े थे। हम यह जानते थे कि एक राजा किसी अन्य से युद्ध करेगा, तो जीतेगा या हारेगा। हारेगा, तो उसका मरना निश्चित था और अन्य राजा उसका स्थान लेगा। लेकिन अगर राजा किसी और की गुलामी करेगा, तो हमारा क्या हाल होगा? ऐसा हाल हुआ, तो हमने अपने आपको गुलामी के तीन तलों के नीचे दबा पाया। गाँव के जागीरदार की गुलामी, रियासत के राजा की गुलामी और दिल्ली में बैठे सुलतान, मुग़ल या अंग्रेज की गुलामी। जानवरों से भी बदतर हालत। उनका भी एक मालिक निश्चित होता है! बस फिर क्या था? एक लम्बे और शर्मनाक गुलामी के दौर ने हमारा आत्मविश्वास ही तोड़ दिया। राजनैतिक रूप से टूटे ही थे कि मुग़लों और अँग्रेज़ों ने आर्थिक शोषण से कमर तोड़ दी। एक समृद्ध कौम, लाचार बन गयी। गुलामी की यह भावना आज भी हमारे दैनिक व्यवहार में झलकती है। हम अब भी हुकुम-हुकुम करते रहते हैं। गुलामी को हम अनुशासन भी कह देते हैं, जबकि इनमें रात-दिन का अन्तर है। गुलामी बाहर से दबाव बनाती है, अनुशासन अंदर से आता है। अफ़सरों, कर्मचारियों से हम वाक़ई में घबराते हैं, और इस घबराहट से अफ़सरों को नये सामंत होने का भ्रम पैदा हो जाता है। वे भी इसका आनंद अँग्रेज़ों की तरह मुस्कुराते हुए लेते हैं।
नकारात्मक दृष्टिकोण
आत्मविश्वास जब किसी कौम का डगमगा जाता है, तो वह हर तरह से डरी-डरी रहती है। देश आजाद होते-होते हम एक कमजोर अर्थव्यवस्था बन चुके थे। जैसे तैसे पेट भरना, हमारी मानसिकता हो गयी थी। कुछ लोग जरूर यहाँ से बाहर चले गये और वहाँ पर अपनी धाक भी जमा ली। परन्तु अधिकांश आबादी इसी धरती पर अपने जीवन को अभिशाप मानकर बैठी रही। अब हाल यह है कि आप कुछ भी नये प्रयास की बात करिये, 100 में से 99 लोग आपको असफलता मिलने की गारंटी देंगे। सफलता की नहीं, जैसा गुजरात में होता है। आप दुकान लगाना चाहेंगे, तो आपको ना कहा जायेगा। नये आइटम की दुकान यहाँ नहीं चलेंगी, पुराने आइटमों की दुकानें पहले भी बहुत हैं, ऐसा कहा जायेगा। मैंने जब अपनी कपड़ों की दुकान शुरू की थी, तब मुझे सभी शुभचिंतकों ने मना किया था। अब चल गयी है, तो मेरे जैसे कई दुकानें स्थापित हो गयी हैं। एक अच्छा सा बाजार बन गया है। इसी प्रकार आप अगर खेती में सुधार की बात करेंगे, तो आपकी हँसी उड़ायी जायेगी। आप नहीं मानेंगे, तो पहले के किसी असफल प्रयास को बार-बार दोहराया जायेगा। इसी लिए अधिकतर सरकारी प्रयास यहाँ पिट जाते हैं। ऐसा नहीं है कि कर्मचारी बिल्कुल ही कोशिश नहीं करते हैं। ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा कभी हुआ क्या, मान ही नहीं सकता, सब कहने की बातें हैं, यह हमारी शब्दावली है। जयपुर से बाड़मेर तक, श्रीगंगानगर से बाँसवाड़ा तक। हमारी नकारात्मकता को ढकने के लिए तर्कों की कहाँ कमी है? बातें कहने में तो हम माहिर थे ही। हाँ, तब समाज को आगे बढ़ाने की बातें करते थे, अब जो बातें करते हैं, वे समाज को आगे बढ़ने से रोकती हैं। इतने से फर्क से तो जापान-सिंगापुर जैसे छोटे देश मजबूत हैं और भारत-अफ्रीका भूख से जूझते हैं।
अविश्वास प्रगति की गति धीमी रह जाने से आत्मविश्वास नहीं बढ़ पाया है, तो एक-दूसरे पर विश्वास भी नहीं हो रहा है। ऐसा होता भी है, जब अपने घर की अर्थव्यवस्था डोलने लगती है, तो हम सभी मित्रों-रिश्तेदारों में कमियां ढूंढने लगते हैं। अर्थव्यवस्था बहुत कमजोर हो तब भी और अचानक बहुत मजबूत हो जाये, तब भी। हमारे इस घर ‘राजस्थान’ के साथ कमजोर अर्थव्यवस्था वाली स्थिति बन गयी है। हम इसी कारण ‘सहकारिता’ की भावना खत्म कर बैठे हैं। ‘सहकारी संस्थाओं’ का भट्ठा बैठ गया है। वरन् अभी तक हम हमारे पुरखों वाली अर्थव्यवस्था तक पुन: पहुँच जाते। लेकिन हमें एक-दूसरे पर विश्वास नहीं है। दुकान चलायेंगे, अकेले, मकान बनायेंगे, अकेले, खेती करेंगे, अकेले। नतीजा? पूँजी की कमी रह जाती है और प्रबंधन में भी अकेले उलझना पड़ता है। अब यह अविश्वास हमारी हर बात में दिखाई देता है। हमने मान लिया है कि अधिकतर नेता, अफसर व व्यापारी हमारा नुकसान करने पर आमादा है। यह अलग बात है कि हमने कभी इन पर विश्वास करके इन्हें ज़िम्मेदारियाँ नहीं सौंपी है। हम तो वोट भी ईर्ष्या के कारण दिया करते हैं। यही नहीं कोई ऊर्जावान व्यक्ति, राजनीति या सामाजिक क्षेत्र में काम करना चाहे, तो हम उसे भी छिटक देते हैं। बिना उसे जाँचें-परखें। अविश्वास ही हमें नये प्रयोग करने से रोकता है और हम पहले से ही इस प्रयोग में कमी ढूँढ़ना शुरू कर देते हैं।