क्या आपने प्रयोग किया है?
हमारे पाठकों से सीधा सा प्रश्न। उनसे इसलिए क्योंकि आपको ही जागरूक नागरिक कहा जाता है। प्रश्न यह कि क्या आपने कभी सूचना के अधिकार का प्रयोग किया है? किया है, तो बहुत अच्छी बात है। नहीं किया है, तो क्या आपकी इस अरुचि का कारण जान सकते हैं?
(1) क्या आपने इसलिए इस अधिकार का प्रयोग नहीं किया, क्योंकि आपको यह कार्य आपके स्तर से नीचे का, बिलो स्टैण्डर्ड लगा? क्या आपको लगा कि आपके लिए यह एक मामूली काम है?
(2) या फिर आपने कोई सूचना इसलिए नहीं मांगी कि इससे क्या हो जाना है? आपकी जिन्दगी ठीक से चल रही है। क्यों इस झंझट में पड़ें? हो सकता है कि अपनी इस निष्क्रियता के लिए आपने कई तर्क ढूँढ़ रखे हों!
(3) ऐसा तो नहीं कि आप प्रशासनिक भय के मारे सूचना मांगने से डर रहे हैं? अधिकारियों, नेताओं और उनके दलालों से कौन दुश्मनी ले? आप चाहते होंगे कि कोई और यह काम करे? भगत सिंह आपको न बनना पड़े?
(4) या आप एक सूचना पर 50-100रुपये खर्च करने से बच रहे हैं? ऐसा तो नहीं होना चाहिये क्योंकि आप में से कई लोग गुटखे और मोबाइल पर भी तो फिजूल खर्ची कर ही लेते हैं?
(5) या आप ईमानदारी से कह सकते हैं कि आपको इसका प्रयोग करना ही नहीं आता है? राज-काज की गम्भीर बातों में आपकी रुचि न हो और नेताओं-अफ़सरों की हल्की-फुलकी आलोचनाओं से आपको तसल्ली हो जाती हो?
आप अपने अंदर झाँके और उत्तर भी अपने आपको दें, तो ठीक है। चलिये आगे बढ़ते हैं।
अरुचि का कारण
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एक बच्चे को आप पौष्टिक भोजन दे रहे हैं और वह ना-नुकर कर रहा है। आप कह रहे हैं कि यह भोजन उसकी सेहत के लिए अच्छा है और बच्चा है कि बराबर मना किये जा रहा है। कहता है, नहीं खाना। आप जबरदस्ती उसके सामने भोजन रख देते हैं। वह क्या करेगा? भोजन को बिखेरेगा। उसके साथ खेलेगा। आप चिल्लाएंगे तो वह एकाध टुकड़ा अनमने भाव से मुँह में रख लेगा। आपको गुस्सा आयेगा, कैसा नालायक बच्चा है। आप भोजन उसके मुँह में ठूसेंगे, तो वह उलटी कर देगा। आप परेशान होकर हार मान लेंगे। बच्चे को निकम्मा कहकर पल्ला झाड़ लेंगे। पड़ोसी बच्चों की उससे तुलना कर उसे नकारा सिद्ध करेंगे। लेकिन अगर आपका कोई समझदार दोस्त हो तो वह कहेगा कि पहले बच्चे की भूख जगाने का प्रयास करो। उसे व्यायाम, परिश्रम, शारीरिक श्रम एक्सरसाइज कराओ, दौड़ाओ, या फिर दवा कराओ। उसकी रुचि पूछो। वह पूड़ी खाना चाहता है, आप पिज्जा ठूँस रहे हो।
अब इस बच्चे की जगह भारत की जनता को रख कर देखते हैं। जनता को रोजगार चाहिये, घर चलाने लायक आमदनी चाहिये, बच्चों के लिये अच्छी शिक्षा-स्वास्थ्य चाहिये, पीने का साफ पानी चाहिये, सुरक्षा का अहसास चाहिये। उसकी भूख इस रोटी की है। उसने ये व्यवस्थाएँ चाही हैं। शासन ने दी नहीं। उसने कभी सूचना के अधिकार की मांग नहीं की, इसके लिए आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर भाग नहीं लिया। चलिये, आपने जिद की, कि नहीं, उसे ये पौष्टिक भोजन, यह अधिकार, यह पिज्जा चाहिये और आपने यह भी कहा कि सूचना के अधिकार से आम आदमी को सभी सुविधाएँ मिल जायेंगी, तो आपको प्रयोग करके उसे दिखाना चाहिये था। यह दवा करके उसका भरोसा जीतना चाहिये था। तो शायद उसकी रुचि आपके पिज्जा में भी बढ़ जाती। इटालियन पिज्जा में, जैसे सोनिया गाँधी में उसकी रुचि बढ़ी है।
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जनजागरण का अभाव
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गरीबों की अरुचि का कारण उनकी अपनी परेशानियाँ होंगी, जिनसे वे रोज दो-चार होते हैं, परन्तु मध्यम और उच्च वर्ग को किसने रोक रखा है? सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है- स्वशासन के भाव का अभाव। अधिकांश लोग अब भी ‘राज’ या ‘सरकार’ जैसी किसी चीज को ही देश का मालिक मानते हैं और उन्हें लगता है कि देश के नेता और अफसर ही यह ‘राज’ या ‘सरकार’ है। 64 वर्ष बाद भी अभी भारत में जनता को मालिक होने का अहसास नहीं हो पाया है। भारत की सभी समस्याओं की जड़ों में यही बीमारी लगी है, यही अज्ञान का दीमक लगा है। किसी देश के लिए इससे अशुभ स्थिति नहीं होती है, जिसमें उसके नागरिकों को ‘अपना शासन’ होने का अहसास न हो। एक ‘राष्ट्र’ के रूप में यह अहसास जरूरी होता है। नहीं है, तो बात खत्म समझें। इस अहसास के अभाव ने ही अधिकांश लोगों को रोके रखा है, कि क्यों पता करते फिरें कि सरकारें कैसे चलती है।
और ऐसे में थोड़ी बहुत इच्छा शासन को जानने की जगे भी, तो उसके लिए पर्याप्त जनजागरण चाहिये। आपने हथियार दिया है, तो चलाना भी सिखाते। इस जिम्मेदारी से मत बचिये। उन्हें बतायें कि सूचना के माध्यम से मिली जानकारियों के आधार पर आवश्यक कार्यवाही के लिए शासन और अदालत का उपयोग किस तरह किया जा सकता है? तभी तो सूचना मांगने का अर्थ निकलेगा वरना केवल सूचना माँग कर हल्ला मचाने से क्या फायदा। इस हल्ले ने तो अफ़सरों और नेताओं को और अधिक निठल्ला बना दिया है। अरुणा राय जी को बीच मैदान में रहना चाहिये था। सोनिया गाँधी की गोद में जाकर सलाहकार परिषद् में नहीं बैठना था। अब आप सरकारी अफ़सरों से उम्मीद कर रहे हो कि वे सूचना के अधिकार का प्रचार-प्रसार करें। वे मूर्ख हैं, जो खुद को मारने के लिए सामने वाले को हथियार चलाना सिखायेंगे? 1977 में जे.पी. भी यही करके चल दिये थे। सम्पूर्ण क्रांति का नारा देकर साइड में हो लिये और देश को सम्पूर्ण भ्रांति में धकेल गये। 1947 में गांधी जी भी ऐसा ही कर बैठे थे। जनता को लोकतंत्र सिखाने के लिए नेहरूओं को कह गये। नेहरूओं ने राजतंत्र सिखाया। जनता के साथ ये प्रयोग, मजाक नहीं होते। पीढ़ियां इन गलत प्रयोगों के दुष्परिणाम भुगतती हैं।
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सभी अधिकारों के साथ ऐसा
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केवल सूचना के अधिकार में ही आम जन की अरुचि है, ऐसा नहीं है। संविधान में कई अधिकार हैं, जिन्हें हम मूल अधिकार कहते हैं। स्वतन्त्रता का अधिकार, समानता का, जीवन का अधिकार। ये सभी अधिकार मूल अधिकार ही बने रह गये हैं। मूल (जड़) में ही हैं, कभी पत्तों तक, फूलों तक नहीं पहुँचे हैं। अगर कोई आपका कोई मूल अधिकार छीनने की कोशिश करे, तो उसे बचाने के लिए आपको लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा। पुलिस से जूझना पड़ेगा, अदालतों में वकील खड़े करने पड़ेंगे। इसलिए आम जन को इनके नाम भी ठीक से याद नहीं हैं। राजनीति शास्त्र के विद्यार्थियों की मजबूरी है कि परीक्षा के लिए इन्हें पढ़ना पड़ता है, अन्यथा वे भी याद न रखें। आप अपने किसी पढ़े-लिखे (?) मित्र से पूछ कर देखियेगा कि संविधान में एक भारतीय नागरिक को कौन-कौन से मूल अधिकार हैं।
इधर आजकल कांग्रेस शासित (या शोषित!) सरकार ने जनता की थाली में कई नये अधिकार परोस दिये हैं। जनता के बिना चाहे। रोजगार का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और खाद्य सुरक्षा का अधिकार। जनता की भूख इन अधिकारों के लिए है ही नहीं। तो क्या करेगी? या क्या करती है? खेलती है, इन अधिकारों से। नरेगा में फर्जीवाड़ा कर रही है। इस ‘छद्म’ रोजगार को चाय-बीड़ी की व्यवस्था में काम ले रही है। शिक्षा के अधिकार पर जनता हँस रही है। नामांकन सरकारी स्कूल में, पर बच्चे गायें चरा रहे हैं। या फिर किसी निजी स्कूल में पढ़ रहे हैं और मुफ्त किताबें सरकारी स्कूल से ले रहे हैं। वहीं आगे खाद्य सुरक्षा में जब घटिया गेहूँ मिलेगा, तो गाँव में किसी दुकान वाले को बेच दिया जायेगा। क्यों नहीं बेचा जायेगा? जब अधिकार बनाने वाले इसे खेल ही समझ रहे हैं, तो जनता भी भाग लेगी, इस खेल में।
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अभिनव राजस्थान में ?
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हम यह नहीं कहना चाह रहे हैं कि सूचना का अधिकार नहीं देना चाहिये था। हमारे कहने का अर्थ यह है कि हथियार दें, तो प्रशिक्षित हाथों में दें या फिर प्रशिक्षण दें, ट्रेनिंग दें। नहीं तो उसका नुकसान हो सकता है। अभिनव राजस्थान में सूचना के अधिकार का जमकर प्रयोग होगा। जमकर प्रयोग इसलिए होगा, क्योंकि जनता का इस अधिकार में विश्वास बढ़े। जनता आगे आये और कहे कि हाँ, हमें भी शासन के बारे में जानना है। लेकिन हमारे लिये केवल सूचना का अधिकार ही एक मात्र हथियार नहीं होगा। हमारे अभियान के मूल में तो राजस्थान का उत्पादन बढ़ाना है, ताकि यहाँ के डेढ़ करोड़ परिवारों की आमदनी बढ़ सके। जनता के पास पूँजी जुड़ सके। और जब ऐसी जनता खड़ी हो जायेगी, तो उसकी भूख शासन को गहराई से जानने के लिए जगेगी। तब हम उसे सूचनाएँ परोसेंगे। तभी सूचनाएँ पचेंगी।
फिलहाल हमारे कुछ चुनिंदा मित्र, शासन के विभिन्न अंगों के बारे में आवश्यक जानकारियां जुटायेंगे। ये जानकारियां जुटा कर हमें नेताओं या अफ़सरों को जनता में नंगा नहीं करना है, क्योंकि हम उन्हें भी इसी समाज के उत्पाद मानते हैं। उनकी प्रताड़ना में हमारी कोई रुचि नहीं है। हमारे अभियान में तो उनके हृदय परिवर्तन और आन्तरिक रूपान्तरण की अपेक्षा रहेगी। इसलिए हम प्राप्त जानकारियों से प्रदेश के लिए अभिनव योजनाएँ बनाने, व्यवस्थाओं में परिवर्तन करने का काम लेंगे। जनता को शासन व्यवस्था के बारे में जागृत करने का भी हमारा भाव रहेगा। अगले 6 महीनों में हमारे पास ऐसी जानकारियों का भण्डार उपलब्ध हो जायेगा। हमारा आग्रह है कि हमारे पाठक भी कम से कम एक सार्थक सूचना किसी कार्यालय से लें और हमें भिजवायें। अभिनव राजस्थान अभियान को इससे मदद मिलेगी। 10 रुपये और थोड़ी सी इच्छा, थोड़ी सी हिम्मत की ही तो बात है।
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सूचना के अधिकार के साथ हमारे प्रयोग
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पाठक यह न समझें कि हम केवल उन्हें ही सूचना के अधिकार का प्रयोग करने के लिए कह रहे हैं और स्वयं चुप बैठे हैं। दरअसल हमारा सूचना संग्रह का कार्य बड़े पैमाने पर चल रहा है। विषयवार, विभागवार सूचनाओं का विश्लेषण कर हम अभियान के दौरान जनता को शासन के बारे में तथ्यात्मक जानकारियां देंगे। कुछ सूचनाओं का हम यहाँ ब्यौरा देना चाहेंगे।
1. हमने केशवानन्द कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर से जानकारी मांगी है कि विश्वविद्यालय के अधीन चल रहे विभिन्न पशु अनुसंधान के न्द्रों के क्या हाल हैं? हमें मिली जानकारी के अनुसार नाम तो अनुसंधान केन्द्र है, परन्तु एक भी अनुसंधान अधिकारी वहाँ कार्यरत नहीं है। केन्द्रों पर केवल यही पद रिक्त हैं, बाकी सब भरे हैं। चांधन (जैसलमेर) के केन्द्र पर मात्र 150गोवंश पर 80से ज्यादा कर्मचारियों पर प्रतिवर्ष लगभग 1 करोड़ रुपये खर्च हो रहा है। कमाल यह है कि वहाँ भी अनुसंधान अधिकारियों के पद रिक्त हैं। क्या अनुसंधान हो रहा होगा?
2. हमने राजस्थान के स्वास्थ्य विभाग से जानना चाहा था कि जयपुर के दो मशहूर अस्पतालों – संतोकबा दुर्लभजी और सोनी मेमोरियल, में शर्तों के मुताबिक किन गरीबों का ईलाज हुआ है और वहाँ किन विषयों पर शोध हुआ है। अपील करने के बावजूद जानकारी नहीं दी गयी है। लेकिन हम भी अभी जल्दी में नहीं है। अभी नब्ज पर हाथ रखा है।
3. हमने राजस्थान के उद्योग विभाग से सूचना मांगी थी कि अंबुजा, जे.के. और बिड़ला की सीमेन्ट कम्पनियों के साथ विभाग का क्या करार हुआ था और उसके मुताबिक क्षेत्र में इन कम्पनियों ने कितने गरीब बच्चे पढ़ाये, कितने गरीबों का इलाज किया और कितने पेड़ लगाये। अपील के बाद भी सूचना नहीं दी गयी है, क्यों कि उन्हें पता है कि 25 हजार के जुर्माने से ज्यादा होगा। हम भी अभी चुप हैं। समय पर कार्रवाई करेंगे।
4. स्वास्थ्य विभाग की एक महत्त्वाकांक्षी योजना थी कि प्रत्येक ब्लॉक पर एक ब्लड बैंक स्थापित की जाये। जेनरेटर खरीद लिये, फ्रिज खरीद लिये, डॉक्टरों-टैक्नीशियनों को प्रशिक्षण दे दिया, पर ब्लड बैंक चालू होने से पहले ही मशीनें वारंटी से बाहर हो गयीं। चार वर्ष हो गये हैं। सूचना मांगने पर टालमटोल चल रही है।
5. नागौर के आबकारी विभाग से हमने सूचना मांगी कि उन्हें नियमों की अवहेलना की मिली शिकायतों पर क्या कार्यवाही की गयी। सूचना मिली कि लगभग 300 शिकायतें मिली, सभी झूठी थीं। अब कौन शिकायत करेगा?
6. नागौर के कलक्टर से हमने सूचना मांग ली कि उनको छ: महीने में कौन-कौन लोगों ने पत्र लिखे और उन पर क्या कार्रवाई हुई। अब कलक्टर स्कूल-अस्पताल के काम पर उंगली उठाये, तो चलता है, उनके दफ्तर पर उंगली? बस चले, तो काट न दें। मामला सूचना आयोग में जाकर डेढ़ वर्ष में निपटा।
7. हमने कई ज़िलों के पुलिस अधीक्षकों से पूछ लिया कि सी.एल.जी. (थाने में नागरिकों की बैठक) के बारे में 2006के ऑर्डर में लिखी इन बातों का पालन हो रहा है कि इन बैठकों की अध्यक्षता कोई नागरिक करेगा और इन बैठकों में राजनीति में सक्रिय नेता नहीं आयेंगे। सूचनाओं के अनुसार अब भी थानेदार जी ही अध्यक्षता करते हैं और सामने की कुर्सियों पर क्षेत्र के नेता ही कचौरी-चाय का आनंद लेते हैं।