25 दिसम्बर 2011 की मेड़ता शहर की आमसभा का एजेन्डा
अब जब हमारे अभियान की औपचारिक शुरूआत हो रही है, तो इसका एजेन्डा, इसकी रूपरेखा अधिक स्पष्ट होनी चाहिए। कई वर्षों से शोध हो रहा है, चिन्तन हो रहा है, लेखन हो रहा है और चर्चाएँ हो रही है। अन्दर ही अन्दर अपनी गति से सब चल रहा है। पिछले डेढ़ वर्षों से हमारा मासिक अखबर भी हमारे उद्देश्य सामने रखने के प्रयास में छप रहा है। अपेक्षित और शानदार प्रतिक्रियाएँ आने लगी हैं। प्रदेश भर से। जैसा हमने सोचा था। भरतपुर से, बाँसवाड़ा से, गंगानगर से, बीकानेर से, उदयपुर से। कस्बों से और गाँवों से। ऐसे में पर्दा हटाकर रंगमंच पर प्रदेश भर के बुद्धिजीवियों को आम जनता के सामने ससम्मान खड़ा करने का समय आने का अहसास हो रहा है। आम जनता का मतलब भी सौ-दो सौ नहीं, बल्कि हजारों की संख्या। बुद्धिजीवी कहें जनता के दिल की बात और यह बात जनता के दिल तक टकराकर वापिस आये, तो ही गूंज होगी-शंखनाद से अनुनाद होगा। अभिनव राजस्थान अभियान की ऐसी ही शुरूआत होगी।
लेकिन हमारा 25 दिसम्बर का एजेन्डा क्या होगा? इस अंक में संक्षिप्त रूपरेखा। अगले अंक से सातों विषयों पर विस्तार से वर्णन और सातवें अंक के साथ ही आम सभा में हमारी उद्घोषणा – हम राजस्थान के लोग अपने लिए और अगली पीढ़ी के लिए इस तरह की व्यवस्था चाहते हैं। मांगते नहीं, चाहते हैं। हमारे पैसे से चलने वाले शासन में हम भूखे रहकर किससे माँगे? अब अंग्रेज हमारे शासक नहीं है। हमारे अपने लोगों के सामने क्या गिड़गिड़ाना। अब कोई फैक्ट्री का मालिक, मैनेजरों से क्या अपना हक मांगे? नहीं यह ठीक नहीं है। शायद हमें अभी भी लोकतंत्र की भाषा बोलनी नहीं आयी है। हम अभी भी इसे राजतंत्र मानकर नये ‘राजाओं’ से मांगने पर तुले हैं। अभिनव राजस्थान में कोई अनशन नहीं, कोई मांग नहीं, बल्कि स्पष्ट घोषणा है – हमारी चाहत की, जो हमारा अधिकार बनता है, जिसके लिए हम पैसे (टैक्स) देते हैं, वोट देते हैं। आमसभा की हमारी तैयारी इस प्रकार होगी।
हमारी मानसिकता कैसी होगी ?
(1) आशावादिता, सकारात्मकता, आत्मविश्वास – मूलमंत्र
सबसे पहले हमें आशावादी होना आवश्यक है। मुश्किल है या सम्भव नहीं है, ऐसी बातें करते हुए सदियाँ बीत गयी हैं। अब इस पर ब्रेक लगाना, रोक लगाना ही एक मात्र रास्ता है। क्या असम्भव है इस दुनिया में? दूसरे हमें नकारात्मक दृष्टिकोण पर अंकुश लगाना है। बात-बात में नेगेटिव, नकारा तर्क देना भी अच्छे प्रयोगों में बाधा बनता है। ऐसा करेंगे तो वैसा हो जायेगा, गलत हो जायेगा, जैसे वाक्यों की जगह हमें बोलना होगा – हाँ, बिल्कुल, पक्का परिवर्तन आयेगा और इसके अच्छे परिणाम आयेंगे।
तीसरे हमें अपनी हीनता के भाव से मुक्ति पानी है। अपनी ताकत को पहचानकर, आत्मविश्वास से आगे बढऩा है। अपने अंदर की घबराहट से पार पाना है। बेकार के तर्क देकर अपनी कमजोरी छुपाने की कला ने हमें बहुत नुकसान पाया है। हम इसलिए नहीं कर रहे, हमारा इस धारणा में विश्वास नहीं, इसमें राजनीति की बू आ रही है या क्या होने वाला है जैसे तर्कों को तिलांजलि दे देनी है। 60 वर्षों से हमारे ऐसे स्वभाव या अकर्मण्यता के कारण ही लोकतंत्र का, विकास का सही रूप हम देख नहीं पाये हैं।
(2) आलोचना से परे-विश्लेषण पर जोर रहेगा
विश्लेषण करना अलग बात है, लेकिन मात्र कमी निकालने के लिए या अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए आलोचना करने से हम कहीं नहीं पहुँचते हैं। एक कुंठित आत्मसंतुष्टि मात्र हो पाती है। इसलिए अभिनव राजस्थान में नेताओं या अफसरों की आलोचनाओं से बचने की कोशिश की जायेगी। हमें यह मानना होगा कि ये सब हमारे समाज के ही अंग हैं, कहीं बाहर से नहीं आये हैं। व्यवस्था की कमियों से उनमें आये दोषों का इलाज मात्र आलोचना ही तो नहीं है।
इसी प्रकार हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हमें आलोचना (विश्लेषण!) का अधिकार तभी है जब हमने भी कोई प्रयास किया हो। हमने जीवन एक पत्थर भी इधर से उधर नहीं रखा हो तो, हमें प्रयोग करने वालों पर रहम करना चाहिये। जो भी व्यक्ति मैदान में उतरा है, उसका सहयोग करना चाहिए। अन्ना हजारे या बाबा रामदेव पर घर में दुबके-दुबके नकारात्मक टिप्पणियों की बजाय, हमें मैदान में आना चाहिये, उनका समर्थन खुलकर करना चाहिये।
(3) यह आदर्श नहीं हैं, कम से कम आवश्यक परिवर्तन हैं
अभिनव राजस्थान की परिकल्पना को कई मित्रों ने एक अच्छा ‘आदर्श’ माना है। फिर वे ‘लेकिन’ शब्द से आगे की व्याख्या करने लगते हैं। लेकिन हकीकत में भाई साहब यह सम्भव नहीं है। लेकिन ऐसा हमारे यहाँ नहीं हो सकता। इस ‘लेकिन’ का हमारे पास एक ही जवाब है और वह यह कि यह कोई ‘आदर्श’ नहीं है। हमारा उत्पादन बढ़े, सार्थक शिक्षा हो, या हमें शासन अपना सा लगे, तो इसमें आदर्श क्या है? यह तो एक आवश्यक स्थिति है। हमारे जैसे दो हाथ-दो पाँव वाले अमेरीकियों या यूरोपियनों ने यह इसी जमीं पर कर दिखाया है। आदर्श तो हम रामायण, या महाभारत में वांछित स्थिति को कह सकते हैं। वहाँ भी तो बुरे लोग थे, छल कपट था। इसलिए हमें इसे कम से कम आवश्यक परिवर्तन मानकर आगे बढऩा है। हम तो कभी-कभी एक ‘ईमानदार’ आदमी को भी ‘आदर्श’ मान बैठते हैं। अरे भाई ईमानदारी तो होनी ही चाहिये, इसमें आदर्श क्या है? हाँ, बेईमानी न हो, तो अच्छा है। किरण बेदी ईमानदार पुलिस अफसर रही है, तो इसमें एहसान क्या है? हमने तनख्वाह दी है काम की। हाँ, सुभाषचन्द्र बोस हमारे आदर्श हो सकते हैं। शायद आप फर्क समझ गये होंगे।
(4) सिस्टम-सिस्टम का राग बंद करेंगे
आजकल ‘सिस्टम’ शब्द बड़ा प्रचलित हो चला है। स्कूल-कॉलेज के बच्चे भी सीख गये हैं कि ‘सिस्टम’ ही खराब है। ‘सिस्टम’ के कारण ही सारी परेशानियाँ हैं। उन्होंने अपने घरवालों से, मीडिया से सीख लिया है, यह सब। उन्हेंं नहीं बताया जा रहा है कि ‘सिस्टम’ क्या है। वे भी सिस्टम का मतलब नेताओं-अफसरों से समझ लेते हैं। बड़े भी यही करते हैं। सब अपनी जिम्मेदारी से बचने की फिराक में है। वे नहीं जानना चाहते कि हम सभी से मिलकर ही ‘सिस्टम’ बनता है, ‘व्यवस्था’ बनती है। अगर इसमें दोष है, गड़बड़ है, तो हम भी बराबर के भागीदार हैं। अब यह बहानेबाजी बंद होनी चाहिये। सिस्टम-सिस्टम चिल्लाने में खर्च हो रही ऊर्जा को बचाना चाहिये।
अभिनव राजस्थान में ‘सिस्टम’ या व्यवस्था में मात्र परिवर्तन का लक्ष्य है। व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का कोई विचार नहीं है। यह उखाड़ फेंकना उतना ही गैर-जिम्मेदार कृत्य है, जितना व्यवस्था की आलोचना। कई लोग व्यवस्था उखाड़ फेंकने को क्रांति भी कहते हैं। हम इससे सहमत नहीं है। अफ्रीका और योरोप में हुए ऐसे प्रयोगों से तब के और कुछ-कुछ आज के बुद्धिजीवी खुश हुए थे, परन्तु उन प्रयोगों से आज उन देशों की दुर्दशा हो गयी है। इसी अंक में पृष्ठ 2 पर डॉ. जगमोहन के लेख से यह विषय और स्पष्ट हो जायेगा।
(5) पिछले उदाहरणों से सबक लेंगे
एक चलन 1977 के बाद यह हो गया है कि अगर किसी व्यवस्था में या शासन के अंग में दोष है, तो उसे बदल डालो। यह आसान सा तरीका नजर आता है – दोष को कम करने का। और फिर इसकी जगह नई व्यवस्था बना लेना।एक योजना न चले, दूसरी बना दो। यह परीक्षा पद्धति ठीक नहीं है, बदल दो। फिर नई विधि में भ्ी पक्षपात हो रहा है, उसे बदलकर नई परीक्षा पद्धति बनाओ। इस योजना से गरीबी नहीं मिटी, दूसरी बनाओ। बेरोजगारी नहीं मिटी, दूसरी योजना बना दो। सहकारी संस्था काम न करे, बंद कर दो। सार्वजनिक उपक्रम में घाटा हो रहा है, बंद कर दो। निजी व्यक्तियों को दे दो। पिछले 30-40 वर्षों में यह फैशन बन गया है। हमारा मानना है कि अक्सर व्यवस्था में दोष कम होता है, कमी व्यवस्था चलाने वालों में होती है। लेकिन उसे ठीक करने में हमारी ईच्छा शक्ति कम होती है, तो हम बेचारी व्यवस्था के पीछे पड़ जाते हैं। कुम्हार का बस न चले, तो गधे के कान खींचता है! अभिनव राजस्थान में हम कोशिश करेंगे कि वर्तमान व्यवस्थाओं में, योजनाओं में, विभागों में समय की आवश्यकता के अनुसार सुधार करेंगे।
कई मित्र यह भी कहते हैं कि साहब, पहले भी ऐसे कई प्रयास हुए हैं। सफलता नहीं मिली। हम मानते हैं कि ऐसे प्रयास हुए हों, तो उनका फिर से विश्लेषण करना चाहिए। यह भी देखना होगा कि ये प्रयास सफल क्यों नहीं हो पाये। या फिर ऐसे प्रयास केवल पत्र लिखने में, सेमीनार में या ड्राइंग रूम में हुए हैं। ऐसा हुआ है भी, तो उन बहुमूल्य विचारों का हम संग्रह करेंगे और फिर से संगठित प्रयास करेंगे।
हमारी रणनीति
(1) माहौल बनाना – हमारी मूल कार्यशैली
आदमी कितना भी पढ़ ले, लिख ले माहौल का गुलाम बना ही रहता है। हवा के साथ चलना पसन्द करता है। यह मूल प्रवृति है। बार रूम में जायेगा, आँखे तरेरने लगेगा, मंदिर में जायेगा, आंखे झुका लेगा। आप भडक़ा दो, पत्थर फेंकेगा, बस-ट्रेन को आग लगा देगा। आप प्रवाह को मोड़ दो, तो आग बुझाने दौड़ पड़ेगा, खून देने के लिए बांह आगे कर देगा। इसलिए अभिनव राजस्थान की मूल रणनीति में माहौल बनाना प्रमुख कार्य है। कई मित्रों ने यह सवाल सबसे पहले पूछा है। कैसे करोगे? तो इसका पहला जवाब है – परिवर्तन का माहौल बनायेंगे। लेखन से, चर्चा से, बैठक से। कविता से, शायरी से, गाकर, नाचकर। प्रेम से, हिम्मत से, आशावाद से।
दूसरे यह हमारा स्पष्ट मानना है कि अच्छाई भी मार्केटिंग मांगती है। अच्छे आदमी को भी अपने विचार को, कार्य को प्रस्तुत करने का ढंग सीखना होगा। कहते हैं न कि न्याय होना ही नहीं चाहिये, होते हुए प्रतीत होना चाहिये। हमें भी अभिनव राजस्थान की धारणा को आम आदमी के दिल-दिमाग में उतारना होगा। उनकी भाषा में बात करनी होगी, उनके पास जाकर बैठना होगा। शिक्षक, किसान, कर्मचारी, हस्तशिल्पी या मजदूर के पास जाना होगा। उनसे जुडऩा होगा। अब आप जिन्हें बुरा कहते हैं, वे अपना काम निकालने के लिए कितने जतन करते हैं। हमें भी अपने सकारात्मक अभियान के लिए प्रत्येक माध्यम का सहारा लेना होगा। बुरों की आलोचना भर काफी नहीं। व्यवस्था पर कटाक्ष काफी नहीं है। लस्सी अच्छी है, परन्तु मार्केटिंग से, विज्ञापन के कारण कोकाकोला के वाहियात रंगीले पानी से पिट रही है। हमारा पौष्टिक बाजरा, चारे जैसे गेहूँ से यूँ ही हार गया। हमारी गौरवपूर्ण गैर, हा-हू करते गरबा एवं भांगड़ा से पीछे क्यों? तिल्ली का तेल, पाम ऑयल से कैसे पिछड़ा? माहौल का खेल। काली घणी कुरूप कस्तूरी कांटा तुले, शक्कर घणी सरूप, रोड़ा तुले राजिया! मार्केटिंग? अभिनव राजस्थान के सभी सहयोगी, ऐसा माहौल बनायेंगे कि हर कोई इसके रंग में रंग जायेगा। और पक्का मानिये कि माहौल की अजीब ताकत होती है। जब हम ऐसा कर लेंगे और वाकई में कर ही लेंगे, तब हमारे सभी नेता, अफसर, कर्मचारी और आमजन इसके प्रभाव से बच नहीं पायेंगे। आखिर वे भी इंसान हैं। अरे! जानवर भी माहौल में ढल जाते हैं। 25 दिसम्बर की आम सभा ऐसे ही माहौल के, वातावरण के निर्माण का अनूठा प्रयास होगा।
(2) बुद्धिजीवी केन्द्रीय भूमिका में होंगे
अभिनव राजस्थान की रचना में मुख्य भूमिका प्रदेश के बुद्धिजीवियों की रहेगी। भले ही आज वे अपनी सामाजिक या राष्ट्रीय जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभा पा रहे हों, परन्तु हमारा स्पष्ट मानना है कि बुद्धिजीवियों के द्वारा ही परिवर्तन किये जा सकते हैं। मानव जाति के इतिहास में जो सभ्यताएँ या देश समृद्ध हुए हैं, वे बुद्धिजीवियों के दम पर ही हुए थे। प्राचीन मिश्र, यूनान, भारत, चीन या वर्तमान अमेरिका, या यूरोप, सब तरफ कमाल बुद्धिजीवियों का ही रहा है। और जब यह वर्ग किसी कारणवश निष्क्रिय या दिशाहीन हो जाता है, तो सभ्यताएँ विनाश की तरफ चल देती हैं।
लेकिन बुद्धिजीवी वर्तमान में शिकायत करते रहते हैं कि उनकी कोई सुनता नहीं है। वे भीड़ नहीं जुटा पाते हैं, चुनाव नहीं जीत पाते हैं। लेकिन यह एकदम झूठ बात है, सफेद झूठ। स्वतन्त्रता के हमारे संग्राम के सभी नायक बुद्धिजीवी थे। अरविंद, रासबिहारी बोस, भगतसिंह, सुभाष बोस, बाल गंगाधर तिलक, मोहनदास गांधी, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया। कौन बुद्धिजीवी नहीं था? सभी अच्छा बोलते थे, लिखते थे और उन्हें पढ़ा और सुना गया था। अपने राजस्थान में ही लीजिये। केसरीसिंह बारहठ, अर्जुनलाल सेठी, विजयसिंह पथिक, जयनारायण व्यास। सभी बुद्धिजीवी थे। गीत रचते थे, जो जनमानस को उद्वेलित करते थे, आंदोलित करते थे। इसलिए निष्क्रिय रहने के बहाने जब बुद्धिजीवी वर्ग बंद करेगा, तभी कुछ हो पायेगा। लेकिन बिना बुद्धिजीवी? हमारा शोध व चिंतन कहता है कि इसके बिना आप परिवर्तन, वह भी सकारात्मक और स्थायी, के बारे में सोचने की गलती भी मत करिये। कभी कभार इक्का-दुक्का कोई नेता लच्छेबाजी से परिवर्तन का भ्रम पैदा कर दे, परन्तु वांछित एवं स्थायी परिवर्तन बिना बुद्धिजीवी वर्ग के नहीं आ पायेगा। 25 दिसम्बर 2011 का मंच हमारी इसी धारणा की कड़ी परीक्षा लेगा। यदि यह सफल रहा, तो परिवर्तन की लहरें, उस शाम की सर्दी में गर्मी का अहसास करवा देंगी। जड़ता की बर्फ पिघल जायेगी।
(3) सामूहिक नेतृत्व
राजस्थान वास्तविक विकास के रास्ते तभी चलेगा, जब सामूहिक नेतृत्व की भावना विकसित हो पायेगी। एक नेता, चाहे कितना ही दूध का धुला हो, तपस्वी हो, सत्ता के पास जाते ही चकरायेगा, अहंकार से भरेगा, दिशा भटकेगा। इसलिए बौद्धिक वर्ग का प्रभावी नियंत्रण प्रत्येक महत्वपूर्ण निर्णय में होना चाहिए। कहने को तो कोई एक व्यक्ति शासन के मुख्य पद पर होगा, परन्तु बिना सामूहिक सार्थक चर्चा के, एकाधिकारी नहीं होगा। उसके केबिनेट व पार्टी के सहयोगी, उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलायेंगे, जैसा अभी हो रहा है। वहीं दूसरी और, हमारा नया नेतृत्व, परिवर्तनों की अगुवाई करेगा। वह पिछलग्गू नहीं बनेगा। आगे चलेगा।
(4) जन समर्थन-जन भागीदारी
अभिनव राजस्थान मात्र सेमीनारों या गोष्ठियों के भरोसे खड़ा नहीं होगा। ये बैठकें भी जरूरी हैं, लेकिन व्यापक जन समर्थन के बगैर लाया गया परिवर्तन कागजों पर सिमट जायेगा। अभी तो ऐसा ही है। कागजों में कानून कुछ लिखा है, व्यवहार में कुछ और हो रहा है। देश की सत्ता का हस्तान्तरण भी तैयारी के अभाव में आज तक आजादी नहीं बन पाया है। पहले अंग्रेजों की गुलामी थी, आज नये सामंतों की गुलामी का वातावरण है। राजतन्त्र में लोकतन्त्र की यात्रा बीच में ही अटक गयी है, क्योंकि यात्रियों को तैरने के प्रशिक्षण के बिना ही नदी में धक्का दे दिया गया था। जन समर्थन से शासन को भी सुधार करने में आसानी रहेगी वरन् स्वार्थी संगठन धमकियाँ देकर रास्ता रोक लेते हैं। इसलिए हम पूरी तैयारी से आगे बढेंगे। अधिकांश जनता तक हमारी बात सही रूप में पहुँचे, लोग मन से परिवर्तन की चाह करें, तभी परिवर्तन लाया जायेगा। वही सफल भी होगा और स्थायी भी। वरन् सूचना का अधिकार या नरेगा, जैसा हाल होगा। बिना भूख के खाना परोसने से या तो उल्टी होगी, या बदहजमी होगी और या फिर खाना ऊपर से आयेगा और तुरन्त नीचे से निकल जायेगा। जैसा अभी हो रहा है। गरीबी या बेरोजगारी खत्म करने के लिए आने वाला धन किस तरह गरीबों के पेट में रूके बगैर ही निकल जाया करता है और कुछ लोग है कि इसे भी हजम कर लेते हैं, बिना नाक बंद किये!
जिस किसी वर्ग या समूह या क्षेत्र के लिए अभिनव राजस्थान में योजना बनेगी, उस वर्ग या क्षेत्र के लोगों से खुलकर बात होगी। तभी योजना की स्वीकारिता बढ़ेगी। शिक्षा के क्षेत्र में योजना बने, तो शिक्षकों अभिभावकों और विद्यार्थियों से पूछे बिना बनी योजनाएँ इसी बजट से पिट रही हैं, कि उनका निर्माण ए.सी.कमरों में ऐसे लोगों ने किया है, जिन्होंने कभी जीवन में हाथ में चॉक नहीं पकड़ी। या जिनके बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते हैं। यही हाल किसानों या गरीबों का है। उनसे कभी नहीं पूछा गया कि उनके लिए क्या ठीक रहेगा। बस योजनाएँ कल्पनाओं या अनुमानों के आधार पर बन गई हैं, तो अफसर बेचारे कैसे लागू करें। उनका ध्यान अब मात्र टारगेट पूरे करने पर रह जाता है। तस्वीर नहीं बदल पाती है। खेती पर पैसा खर्च हो जाता है परन्तु उत्पादन नहीं बढ़ता। स्वास्थ्य पर पैसा खर्च होता है, परन्तु नागरिक अस्वस्थ ही रहते हैं। शिक्षा पर पैसा खर्च होता है, परन्तु शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर गिरता जाता है।
(5) तथ्यों का महत्त्व
सीधी-साधी, बिना आधार की धारणाओं पर अभिनव राजस्थान में बात नहीं होगी। तथ्यों के अभाव में बोलना गैर जिम्मेदाराना होगा। विषय का गम्भीर अध्ययन-मनन होने पर ही अपनी बात रखी जायेगी। अरे साहब, सभी अध्यापक निकम्मे है, का क्या मतलब है? अजी, सब कर्मचारी चोर हैं। क्या ऐसा बोलना जायज है? बोलने से पहले यह भी देखिये कि आप स्वयं कितने क्षमतावान और ईमानदार हैं या अपनी नागरिकता को आप कैसे जिम्मेदारी से निभा रहे हैं, कानूनों का पालन कर रहे हैं या टैक्स दे रहे हैं। तथ्यों से ही हम समाधान तक पहुँचेंगे। राजस्थान के प्रत्येक क्षेत्र के प्रामाणिक तथ्य जुटाये जायेंगे और उन्हीं के विश्लेषण पर योजनाएँ आधारित होंगी।
(6) वर्तमान संसाधनों पर ही निर्भरता
अचानक से अगर हमारे योजनाकार लम्बे-चौड़े अनुमान लगाकर खड़े हो जायेंगे, तो अभिनव राजस्थान नहीं बन पायेगा। अमूमन प्रशासनिक अमला ऐसा किया करता है। बस मामले को अटका दो। यहाँ सावधानी रखनी होगी और अथक परिश्रम से वर्तमान संसाधनों को ही विकास का आधार बनाना होगा। मानव संसाधन, भौतिक संसाधन और वित्तिय संसाधनों का कैसे सदुपयोग नये संदर्भ में, नये वातावरण में हो सके, इस पर विशेष ध्यान देना होगा।
(7) जनमानस में विश्वास करेंगे
अजी, लोग ही ऐसे हैं, निठ्ठले हैं, जैसी उक्तियों को अब मुँह के अंदर ही रखेंगे। इन लोगों में हम भी तो शामिल हैं, ऐसा क्यों नहीं सोचते। अपने प्रदेश-देश के नागरिकों में ही अविश्वास करते रहेंगे, तो एक परिवार के रूप में कैसे आगे बढ़ेंगे। नेता हो या अफसर, किसान हों या शिक्षक-चिकित्सक-अभियंता, सभी में विश्वास करना होगा। अंध-विश्वास नहीं, विश्वास। तभी हमारी शक्ति एक जगह होगी, हमारी ऊर्जा एक दिशा में लगेगी। वरन् अविश्वास की खाई के दोनों तरफ खड़े होकर चिल्लाने से खाई छोटी नहीं होगी। खाई को विश्वास से भरना होगा।
(8) समन्वित (इन्टिग्रेटेड) प्रयास
कई मित्र कहते हैं कि पहले एक व्यवस्था में सुधार हो तो फिर दूसरी पर जाया जा सकता है। एक साथ कई मोर्चों पर लडऩा ठीक नहीं है। लेकिन यह विकास का चक्र, वर्तमान परिस्थितियों में इतना आसानी से नहीं घूमेगा। अभी भारत में और अपने राजस्थान में किसी भी क्षेत्र में वास्तविक विकास नहीं हो पाया है, इसलिए हम किसी भी क्षेत्र को विकसित मानकर उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हमारे माने तो भी विकास के रंगमंच की साज-सज्जा भी ठीक से नहीं हो पाई है, तो किसी एक पात्र पर कम ध्यान देने का तो विषय ही नहीं उठता है। अभी तो घर बसाना है और उसके लिए सभी क्षेत्रों में ध्यान देना होगा। शिक्षा का स्तर बढ़ गया और उत्पादन नहीं बढ़ा, तो शिक्षा बेसर हो जायेगी और हमारा शिक्षित व्यक्ति किसी दूसरे देश के काम आकर हमे ही कमजोर करेगा। वर्तमान में इसी खतरनाक नीति पर देश के कर्णधार चल रहे हैं। इसी प्रकार उत्पादन बढ़ गया और प्रकृति व संस्कृति बर्बाद हो गयी, तो विकास की खुशी छिन जायेगी। इसलिए हमने सातों क्षेत्रों पर एक साथ काम करने की ठानी है। इन्टीग्रेटेड अप्रोच बनायी है।
(9) सामूहिक परिवर्तन
रणनीति के अंत में और सबसे महत्वपूर्ण विषय – एक्शन, क्रिया के बारे में हमारा मानना है कि यह सामूहिक, बड़े स्तर पर होनी चाहिये। हम सामाजिक प्राणी हैं और हमारा स्वभाव ऐसा है कि सही या गलत वही करना चाहेंगे, जो लोग कर रहे हैं। हम सुधरेंगे, युग सुधरेंगे की धारणा यहाँ नहीं चलने वाली। हम तो कहीं यात्रा में भी जाते हैं, तो साथ चाहिये। समूह में चलना विशुद्ध भारतीय प्रवृति पहले भी थी और आज भी है। इस प्रवृति को नहीं भूलना है। खेती में सुधार करना है, तो एक पूरे गाँव में सुधार हो, तभी कुछ परिणाम दिखेगा। वरन् दो-चार किसानों को कितना ही समृद्धशाली बना दो, आधुनिक बना दो, पुरस्कृत कर दो, बाकी गाँव पर कोई असर नहीं पड़ेगा। इसी प्रकार एक दो परिवार दहेज के बगैर शादियाँ कर भी लें, तो बाकी समाज पर इसका असर न के बराबर पड़ेगा। आपने ऐसा देखा भी होगा। लेकिन अगर पूरे समाज ने दहेज न लेने की या देने की घोषणा की हो, तो समस्या आसानी से मिट जायेगी। हमने मृत्युभोज निवारण के अपने विशाल आन्दोलन में यह सफल प्रयोग किया था। सामूहिकता ही उस आंदोलन की सफलता का राज थी।
(10) राजनीति में रहकर भी राजनीति से दूर
अभिनव राजस्थान, गैर-राजनैतिक अभियान होने का ढोंग नहीं होगा। यह पूर्णतया राजनैतिक या हमारे शब्दों में लोकनैतिक होगा, जो लोक-नीति को प्रभावित करेगा। हमारा उद्देश्य किसी भी रूप में नया राजनैतिक दल खड़ा करने का कदापि नहीं होगा। हम यह स्पष्ट रूप से मानते हैं कि क्षेत्रीय दलों के पनपने से देश की एकता खतरे में पड़ती है। संघीय ढाँचा गड़बड़ाता है। केन्द्रीय शासन की दिक्कतें बढ़ती हैं। दो दल ही हों तो भारत के लिए अच्छा होगा। इसका मतलब यह नहीं होगा कि हम चुनावों से घबराकर कोने में खड़े रहेंगे। अभियान के सभी सदस्य अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार दलों से चुनाव लड़ सकेंगे। आखिर ऐसे जागरूक नागरिकों का प्रत्येक दल में होना और विधानसभा या संसद में पहुँचना आवश्यक भी है। परन्तु अभियान के मंच से किसी भी सदस्य के पक्ष में वोट का आह्वान नहीं किया जायेगा। अभियान का मूल कार्य नीति निर्माण, योजना निर्माण में सहयोग करना और इसे जनहित में प्रभावित करते रहना होगा।
इस तैयारी के साथ हम अभिनव राजस्थान के सात सुरों- सात विषयों- समाज, शिक्षा, शासन, कृषि, उद्योग, प्रकृति व संस्कृति पर हाथ रखेंगे, ताकि विकास का राग निकल सके। विकास-राग। सातों सुरों का समन्वय से बजना जरूरी है, वरन् एक भी सुर गड़बड़ रह गया, तो राग बेसुरी हो जायेगी। अगले अंकों में क्रमश: प्रत्येक विषय के बिन्दुओं पर विस्तार से विचार होगा। एक बार पुन: गहरी सांस लें, अपने आप में विश्वास करें और कह दें – अभिनव राजस्थान का निर्माण अवश्य होकर रहेगा और भारत के अन्य प्रदेश भी इसी राह पर चलकर राष्ट्र निर्माण कर देंगे, देश को विश्व का सबसे शक्तिशाली देश बनाकर रख देंगे। वंदे मातरम्।