पिछले अंक में हमने राजस्थान के दक्षिण अंचल के भ्रमण का वर्णन किया था. इस बार हम अभियान के प्रति जागरूकता के प्रसार के लिए राजस्थान के उत्तरी अंचल में थे. दक्षिण के पहाड़ी क्षेत्र की तुलना में यहाँ रेतीला धरातल है. एकदम विपरीत स्थिति. दक्षिण में वनस्पति की भरमार तो यहाँ वनस्पति जैसे नदारद. राजस्थान की विविधता वाकई में निराली है. सातों संभागों की प्रकृति और संस्कृति, इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह दिखाई देती है. फिर भी गहरे में एक अंतरंगता सात करोड लोगों को जोड़े रखती है. ‘अभिनव राजस्थान’ में यही विविधता, यही निरालापन राजस्थान की मजबूती का आधार बनेगा.
हमारी योजना के अनुसार एक जिले में एक कस्बे का चयन किया गया है. उत्तर राजस्थान में ये कस्बे हैं- लूनकरनसर (बीकानेर), सूरतगढ़(गंगानगर), नोहर (हनुमानगढ़), सुजानगढ़(चुरू), श्रीमाधोपुर (सीकर) और चिडावा (झुंझुनूं). जून की गर्मी में हमने इन कस्बों में प्रवास कर अनेक मित्रों से ‘अभिनव राजस्थान अभियान’ पर गंभीर चर्चाएं की हैं. पहली नजर में हमें यहाँ क्या कुछ लगा, उस पर यह रिपोर्ट प्रस्तुत है. इस रिपोर्ट से हम जानेंगे कि ‘अभिनव राजस्थान अभियान’ की दृष्टि से प्रदेश के इस अंचल के क्या हाल हैं.
उत्पादन की उपेक्षा
राजस्थान के अन्य भागों की तरह यहाँ भी उत्पादन पर शासन का ध्यान कम है. शसन का ही नहीं, नागरिकों का भी ध्यान उत्पादन के विषय पर नहीं है. जिले और उपखंड के कृषि अधिकारी और उद्योग अधिकारी को कम ही लोग जानते हैं. ठीक वैसे ही जैसे लोग शिक्षा अधिकारियों को नहीं जानते. उनका ध्यान उपखंड अधिकारी(एस डी एम), डेपुटी एस पी, तहसीलदार या थानेदार पर है, लेकिन स्थानीय स्कूल या कॉलेज के प्राचार्य में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं है. उन्हें इस बात में भी कोई दिलचस्पी नहीं है कि उनके क्षेत्र का उत्पादन कम है या ज्यादा. उनमें इस बात पर चर्चा नहीं होती है कि इस क्षेत्र के उत्पादन को कैसे बढ़ाया जा सकता है, ताकि समृद्धि की लहर आ सके. सभी का ध्यान छिछली वोट की राजनीति और सरकारी पैसे में हिस्सेदारी पर है. कुछ लोग सरकारी पैसे को हड़पने में लगे हैं तो बाकी बचे हुए लगे हैं, उनको कोसने में और इस इंतजार में कि कब उनको भी कभी ऐसा मौका मिल जाए ! सभी अपने बच्चों को सरकारी महकमों में ‘नौकर’ देखना चाहते हैं, अपने धंधे का ‘मालिक’ नहीं. अंग्रेजी राज का प्रभाव अभी कायम है.
मूंगफली के गढ़ लूनकरनसर, चने के लिए एशिया में विख्यात नोहर और जौ के लिए विशेष पहचान रखने वाले श्रीमाधोपुर के क्षेत्रों में खेती से सभी ध्यान हटाने में लगे हैं. जागरूक नागरिक भी इस विषय में कोई रुचि नहीं रखते कि खेती और पशुपालन को बढ़ावा देने से उनके क्षेत्र की सम्रद्धि कैसे बढ़ सकती है. कभी इस क्षेत्र में दूध की नदियाँ बहाने वाली राजस्थान की कामधेनु कही जाने वाली गाय की नस्ल राठी और हरियाणवी गायों की लोकप्रियता इसी मानसिकता से कम हो चली है और इसकी वजह से लोगों की आमदनी भी कम हो रही है.
यही हाल गाँवों और कस्बों में प्रचलित रहे छोटे और घरेलू उद्योगों का है. श्रीमाधोपुर के पीतल के बर्तनों के लिए कभी बाहर के व्यापारी आकर यहाँ की धर्मशालाओं में रूका करते थे. आज मात्र इक्के दुक्के ठठेरे बचे हैं, लेकिन सरकार ने कभी इनकी सुध नहीं ली. सरकार क्यों इन ठठेरों के लिए परेशान होती, जब श्रीमाधोपुर के नागरिकों को भी यह अहसास नहीं है कि एक मशहूर उद्योग की उनके शहर से विदाई का उनकी शहर की अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ा है. यही हाल लूनकरनसर के नमक उद्योग का, सूरतगढ़ के जूती उद्योग का और नोहर के मटका उद्योग का है. ऐसा लगा जैसे इन स्थानीय उद्योगों की दशा खराब होने से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता. किसानों के साथ ही कारीगरों की उपेक्षा भारत की खस्ताहाली का प्रमुख कारण है, पर यह बात ‘बुद्धिजीवियों’ के पल्ले नहीं पड़ रही है. उन्हें अभी तक यह अहसास नहीं है कि बिना उत्पादन बढाए किसी क्षेत्र का विकास कैसे हो सकता है. उधार के पैसों से कितने दिन काम चलेगा ?
सेम का दर्द
हनुमानगढ़ के रावतसर से नोहर के बीच किसानों की जमीन का दलदली हो जाना भी क्षेत्र के लिया बड़ा झटका है. लगभग ८४ हजार हेक्टेयर जमीन देखते ही देखते दलदल में तब्दील हो गई है. आपको जानकारी दें कि घग्घर नदी की बाढ़ से हनुमानगढ़ शहर को बचाने के लिए नदी के अतिरिक्त पानी को आसपास के टीलों(धोरों) के बीच में डाल दिया गया था. यह पानी रिसकर नीचे गया तो जिप्सम से टकराकर वापिस ऊंचा आ गया और जमीन पर दलदल के रूप में बिछ गया. कई गाँव इस दलदल (सेम) की चपेट में आ गए और उजड़ गए. हमने बडोपल गाँव के इस उजड़े रूप को देखा तो हिल गए. एक समृद्ध गाँव जैसे किसी पुरानी सभ्यता के अवशेषों का ढेर हो गया.
लेकिन सरकार ने इस विषय में केवल लीपापोती की है. क्षेत्र के नेताओं ने भी केवल घड़ियाली आंसू बहाए हैं. उनको पता है कि वोट की राजनीति के चटकारे लेते लोगों को पांच वर्ष में एक ही बार तो बेवकूफ बनाना है, तो क्यों सेम जैसे मामलों में मगजमारी करें. इस दौरान हमारे स्थानीय साथी जब हमें इस समस्या से निपटने के व्यावहारिक उपाय बताने लगे तो हम हक्के बक्के रह गए. क्यों नहीं इन उपायों पर तुरंत अमल किया जाता ? क्यों नहीं यहाँ के आम आदमी के सुझाए तरीकों पर अमल होता ? क्या इस कार्य के लिए धन की कमी है ? शायद, हाँ ! इसी काम के लिए तो पैसा नहीं है, सड़कों और मेट्रो के निर्माण के लिए पैसा खूब है, नरेगा जैसी फिजूल योजना पर लुटाने के लिए खूब है, लेकिन सेम की समस्या से बर्बाद किसानों के लिए पैसा नहीं है.
बदहाल सरकारी शिक्षा और स्वास्थ्य केंद्र
जैसे राजस्थान का प्रत्येक क़स्बा एक ही कहानी कहता है. राजस्थान के इस सबसे अधिक शिक्षित क्षेत्र में भी सरकारी स्कूल और कॉलेज की पढाई का हाल खराब है. अधिकाँश स्कूलों में विज्ञान और वाणिज्य के अध्यापक कम हैं. गणित और अंगेजी विषयों के अध्यापक भी कम हैं. आज के युग में इन्हीं विषयों के ज्ञान की अधिक आवश्यकता है. वहीं लड़कियों के स्कूलों की दशा तो और भी अधिक खराब है. बालिका शिक्षा का दंभ भरती सरकार अगर बालिका विद्यालयों की वास्तविक जानकारी ले तो सारी पोल खुल जाए. फिर भी सहशिक्षा से आज भी अधिकतर माँ-बाप बचते हैं और मजबूरन कम सुविधाओं वाले बालिका विद्यालय में बच्चियों को पढ़ाते हैं. परन्तु यहाँ हमें कुछ अपवाद भी इस क्षेत्र में मिले. मसलन सूरतगढ़ का राठी सीनिअर सेकंडरी स्कूल या श्रीमाधोपुर का सीनिअर सेकंडरी स्कूल. इन दोनों स्कूलों के शिक्षकों में अभी भी समाज के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा दिखाई दे रहा है. यह और बात है कि समाज के लोगों में इस जज्बे का सम्मान करने का कोई भाव नहीं दिखाई देता है.
दूसरी ओर लूनकरनसर, चिड़ावा और श्रीमाधोपुर में आजादी के ६५ वर्षों के बाद भी सरकारी कॉलेज नहीं खुल पाए हैं. कॉलेज की शिक्षा की जैसे सरकार की कोई जिम्मेदारी ही नहीं है. ऐसे में हर कोई परिवार अपने बच्चों को दूर जिला मुख्यालयों में उच्च शिक्षा के लिए नहीं भेज पाता है. और जहाँ कॉलेज हैं, वहाँ केवल प्रवेश होते हैं और परीक्षाएं होती हैं. बस. पढ़ने पढाने का काम तो कब का राजस्थान के कॉलेजों में बंद हो चुका है. हाँ, छात्र संघों के चुनाव जरूर हो लेते हैं. यानि, यहाँ भी समाज के अन्य हिस्सों की तरह केवल राजनीति का चस्का बचा है.
अस्पतालों की दुर्दशा भी सभी कस्बों में समान रूप से पाई गई है. कस्बे के अस्पतालों में आज भी गंभीर मरीजों के ऑपेरशन नहीं होते, क्योंकि थियेटर लगभग बंद पड़े हैं. चिकिसकों की कमी भी सभी कस्बों में है. इनमें भी महिला एवं बालरोग विशेषज्ञों और हड्डीजोड़ विशेषज्ञों की कमी, इन विषयों के संवेदनशील होने से अधिक चुभती है. अब तो इन अस्पतालों से मरीजों को केवल रेफर किया जाता है. लूनकरनसर से बीकानेर या चिडावा से जयपुर-दिल्ली. समझ में नहीं आता कि उत्पादन, शिक्षा और स्वास्थ्य की इतनी दुर्दशा के बावजूद हम एक समाजवादी-लोकतांत्रिक देश कैसे बने हुए हैं. जब इन मूलभूत मुद्दों पर ही शासन और नागरिकों का ध्यान नहीं है, तो वास्तविक विकास कैसे हो सकता है.
पवित्र तालाब भर गए कीचड़ से
समूचे राजस्थान में जाने क्या हुआ कि शहरों के पवित्र तालाबों पर से जनता और शासन का ध्यान ही हट गया है. कई तालाबों में तो अब शहर का गन्दा पानी भी जमा हो रहा है. स्पष्ट है कि हमारा स्तर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में गिर रहा है. अभी पिछले अंक में हमने बांसवाडा के पवित्र तालाब और आस्था के केंद्र ‘राजतालाब’ के शौचालय में परिवर्तित होने के बारे में दुःख के साथ लिखा था. ऐसा ही नजारा हमें सूरतगढ़ में देखने को मिला, जब शहर के गढ़ के पास स्थित ‘ढाब’ को हमने देखा. ढाब, घग्घर नदी की नाली या पाट को रोक कर बनाए गए तालाब को कहते हैं. किसी जमाने में यह शहर का सांस्कृतिक केंद्र हुआ करता था. देवझूलनी ग्यारस को शहर के सभी देवताओं को इस तालाब में लाकर नहलाया जाना, एक बड़े उत्सव के रूप में होता था. आज इस जगह पर पसरी गन्दगी को देखकर आपके मन में कोई पवित्र विचार आ जाए, मुश्किल है. आपकी आस्था जगे, मुश्किल है.
लगभग ऐसा ही हाल अन्य कस्बों का है. इन तालाबों के संरक्षण का अभाव हर तरफ पाया गया है. लूनकरनसर और नोहर का भी यही हाल है. चिडावा और श्रीमाधोपुर के सुन्दर ‘जोहड’ भी अब अपना आकर्षण खो चुके हैं. हमने इन कस्बों के मित्रों को मेड़ता शहर में तालाबों के संरक्षण के लिए किये गए प्रयासों की जानकारी दी तो वे चकित रह गए. उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि आज के युग में जनता चाहे तो ऐसा भी कर सकती है क्या. हमने उन्हें बताया कि मीरां नगरी, मेड़ता के तालाबों को उनका पवित्र दर्जा फिर दे दिया गया है और पनघटों की रौनक फिर लौट आयी है. इसी तर्ज पर ’अभिनव राजस्थान’ में हम राजस्थान के सभी पवित्र तालाबों को उनके पुराने आकर्षक और सांस्कृतिक रंग में ढालने वाले हैं.
भूल गए नाचना-कूदना-खेलना
प्रकृति को भूले सो भूले, हमारे कस्बों और गाँवों के लोग जाने क्यों हंसना, नाचना और गाना भी भूल गए हैं. कहीं भी पूछो कि आप किसी अवसर पर नाचते गाते हैं क्या, तो एक ही जवाब आता है कि आजकल तो ऐसा कुछ नहीं होता है. होली पर या तीज पर या स्थानीय मेलों में अब औपचारिक भागीदारी ही रहती है. दीपावली पर जरूर पटाखों को बच्चे फोड़ लेते हैं. लेकिन पारंपरिक नाच-गाना आम जनता ने छोड़ दिया है. और जो कलाकार जातियां नृत्य, गायन,वाद्य या नाट्य में पारंगत थीं, उनको भी जनता या शासन ने संरक्षण देना बंद कर दिया है. सपेरे, नट, भोपे, भांड, ढोली आदि पर अब आमजन की नजर नहीं है. वहीं शहर-गाँव में उभरते कलाकारों- गायकों, चित्रकारों या वादकों में भी जनता की कोई रुचि नहीं रह गयी है. रुचि है, तो केवल टी वी पर दिखाए जाने वाले भद्दे कार्यक्रमों में या मोबाइल को कान पर चिपकाए रखने में. उधर युवा मनोरंजन के नाम पर फूहड़ संगीत पर कूदने के शकीन भी हो चले हैं. उन्हें भी प्रत्येक भारतीय परंपरा की तुलना में पश्चिमी परंपरा को निभाना आधुनिकता लगता है.
खेलों में भी उनकी कोई क्रिकेट के अलावा कोई रुचि नहीं है. फुटबॉल, वॉलीबौल, कब्बडी, ऊंची या लंबी कूद या दौड़ भी गुजरे जमाने के खेल हो गए हैं. कस्बों-गाँवों के लोकप्रिय टूर्नामेंट अब आयोजित होने बंद से हो गए हैं. ऐसे में ओलम्पिक के मेडल इस देश के युवा कैसे जीत कर ला सकते हैं. मुर्दा होते इस समाज को फिर से जीवन्तता की घुट्टी की जरूरत है. ‘अभिनव राजस्थान’ में हम यह कर पायेंगे और इसकी विस्तृत योजना हमने बना ली है.
चौपालों की गपशप
हम यह भी जानने की कोशिश करते रहते हैं कि आजकल शहरों और गाँवों की चौपालों पर क्या चल रहा है. क्योंकि ये चौपालें समाज में धारणाएं बनाती हैं-अच्छी भी और बुरी भी. उत्तर राजस्थान में हमने इस पर कई मित्रों से बात की. तो पड़ताल करने पर यह निकल कर आ रहा है कि आजकल भाई लोग, स्थानीय छिछली राजनीति में ही अधिक रुचि लेते हैं. राष्ट्रीय स्तर पर भी, जो भी अखबार या चेनल बता देते हैं, उस पर वे अपना ज्ञान और ध्यान केंद्रित कर लेते हैं. अध्ययन में रुचि नहीं है, इसलिए साहित्य की बातें अब ‘बुद्धिजीवी’ नहीं करते. न ही उनकी रुचि लिखने में रह गई है. या यूँ कहें कि अधिकाँश ‘पढ़े लिखे(?)’ लोग अखबार से अधिक कुछ नहीं पढते और हस्ताक्षर से ज्यादा कुछ नहीं लिखते हैं. ज्यादातर बातचीत व्यक्तियों या घटनाओं तक सीमित रहती है, विचारों के स्तर तक अब चौपालें कम ही पहुँच पाती हैं. जाहिर है कि ऐसी चौपालें समाज को कैसी दिशा देंगी.
उस पर भी चुभने वाली बात यह है कि इन चौपालों पर शहर की स्कूल-कॉलेज-अस्पताल-पेयजल को लेकर ज्यादा विचार नहीं होता है. दिल्ली तक की चिंता कर ली जाती है, लेकिन अपने घर, बच्चों और शहर से जुड़ी समस्याओं पर ध्यान नहीं जाता है. इस चुनाव में कौन किस पार्टी का टिकट लाएगा, इसमें सबकी रुचि है, पर स्कूल में पढाई का न होना या फ्लोराइड वाले पानी की समस्या में उन्हें रूचि नहीं है. और आप कहो कि क्यों नहीं है, तो निराशा से भरा जवाब आयेगा कि क्या फायदा. अब उन्हें पूछें कि यह नेताओं वाली चर्चा से क्या फायदा है. वहीँ वे अन्ना हजारे, बाबा रामदेव या आमिर खान पर लंबी बहस करेंगे लेकिन उनके साथ जुड़ने या अपने शहर में संघर्ष की बात आते ही उन्हें घर दिखाई देता है ! चलो घर. झंझट में कौन पड़े.
राज का डर
सोचा तो यह गया था कि सूचना का अधिकार आने से अधिकारी-कर्मचारी डरने लगेंगे, पर हुआ इसका उल्टा. जनता इसके उपयोग से डर रही है. इस अधिकार का उपयोग करने से अच्छे अच्छे लोग डर रहे हैं. इस क्षेत्र में भी हमने लोगों से यह पूछा कि वे सूचना के अधिकार का कितना उपयोग करते हैं. अचरज हुआ कि उत्तर राजस्थान में भी लोग इस अधिकार के उपयोग से बचते हैं. अफसरशाही का खौफ अभी भी उनके जहन में है. कभी कभार किसी ने ऐंठ में कोई प्रतिलिपि मांग ली हो तो अलग बात है, लेकिन कार्यालयों में जाकर निरीक्षण करने की अभी हिम्मत नहीं बन पायी है. अधिकतर को तो निरीक्षण के बारे में पता भी नहीं था और वे पूछ रहे थे कि इस अधिकार में निरीक्षण भी होता है क्या.
वहीँ पुलिस अधिनियम २००७ में नागरिकों को पुलिस से जोड़ने के लिए और पुलिस का खौफ कम करने के लिए सी एल जी या सामुदायिक संपर्क समूह बनाने की बात कही गई थी. लेकिन ये समूह क्या बने, पूरे अधिनियम का ही मजाक उड़ गया. समूचे राजस्थान में इन समूहों के गठन में नियमों का खुल्ला उलंघन हुआ है और लीपापोती कर दी गई है. अभी भी इन समूहों के संयोजक नागरिकों में से नहीं चुने गए हैं और पुलिस अधिकारी ही इन समूहों के सर्वेसर्वा बने बैठे हैं. यही नहीं, सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ताओं के समूह में न होने के नियम के बावजूद, वे ही आगे के कुर्सियों पर बैठे मिलते हैं ! और जब यह बात हमारी चर्चा में आई तो सभी मित्र चौंके. ऐसा है ? उनके मुंह से निकला. स्पष्ट है कि लोगों को लोकतंत्र के बारे में शिक्षित करने का महत्वपूर्ण कार्य अभी भारत में रूका पड़ा है और इसका फायदा राजनेताओं और अफसरों को मिल रहा है.
यह भी देखा हमने
लूनकरनसर कस्बे की तीन चौथाई आबादी के पास अभी तक अपने मकान का पट्टा नहीं है. वे आजादी के ६५ वर्ष के बाद भी अपनी ही धरती पर ‘अवैध’ रूप से बसे हैं. इस कारण से ४० हजार से भी अधिक की आबादी के बावजूद वहाँ नगरपालिका नहीं बन पाई है. यहाँ पर बसे लोगों में महाजन फायरिंग रेंज से विस्थापित लोग भी हैं. इस रेंज की स्थापना में ३४ गाँवों को हटाया गया था. इन विस्थापितों की दर्द भरी कहानियों पर कोई शासन कान नहीं दे पाया है. बस मुआवजा दे दिया है, कहकर बात को टाल दिया जाता है.
चिड़ावा कस्बे में अभी भी बस स्टेंड नहीं बन पाया है. सब्जी मंडी भी नहीं है. पीने का पानी भी खारा है. लेकिन किसी के विधायक या सांसद बनने में ये समस्याएँ आड़े नहीं आती हैं, इसलिए कस्बे के निवासी भी चुप बैठ गए हैं. यमुना नदी से राजस्थान का हिस्सा लेकर झुंझुनूं जिले के लोगों को पेयजल देने की बात भी चुनावों के आसपास उठती है और फिर हवा में उड़ जाती है. और चिड़ावा की जनता यहाँ के प्रसिद्द पेडे खाकर ही मन बहला लेती है !
आगे ‘अभिनव राजस्थान अभियान’ में ?
अगले चरण में हम राजस्थान के पश्चिम में फलोदी(जोधपुर), पोकरण(जैसलमेर), बालोतरा(बाड़मेर), भीनमाल(जालोर), शिवगंज(सिरोही) और फालना(पाली) कस्बों के मित्रों से मिलेंगे. इसके बाद पूर्वी राजस्थान और फिर दक्षिण-पूर्व में जायेंगे. जुलाई तक यह क्रम पूरा कर अगस्त-सितम्बर में इस सभी कस्बों के कुछ मित्रों से एक साथ चर्चा करेंगे. फिर दिसम्बर में तीर्थराज पुष्कर में एक बड़ा सम्मेलन कर आगे की रणनीति तय करेंगे. फ़िलहाल राजस्थान के वास्तविक विकास के लिए आवश्यक मुद्दों पर माहौल बनाना हमारा उद्धेश्य है. हमारी कोशिश होगी कि दिसम्बर के सम्मेलन का प्रभाव राजस्थान के आगामी बजट(2013-14) पर पड़ सके और राजस्थान के विकास की दिशा और गति सकारात्मक रूप से बदल सके.
sir,vande matram ,sayad kafi time se me abhinav rajasthan jese platform ki talaash me tha ki kuchh kam karna h samaj ke liye desh ke liye.finally got the chance m wid u always .see u soon .
Mahendra puri
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