‘अभिनव राजस्थान अभियान’ के तहत हमने राजस्थान के 35 कस्बों का चयन अपने विस्तृत अध्ययन के लिए कर रखा है. कस्बों का चयन इसलिए किया गया, क्योंकि अमूमन कस्बे, गाँव और शहर के बीच की कड़ी साबित होते रहे हैं. गांव और शहर, दोनों की झलक कस्बों में मिल जाया करती है. ‘अभिनव राजस्थान अभियान’ को हम ‘कस्बों की क्रांति’ के रूप में इसी वजह से देखते हैं. नागौर जिले के तीन कस्बे और अन्य जिलों से एक-एक क़स्बा हमने चुन रखा है. इन कस्बों के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, प्राकृतिक और राजनैतिक पक्षों को हमें समझना है और फिर उन्हें एक सूत्र में पिरोकर देखना है. इस सूत्र के आधार पर सम्पूर्ण राजस्थान की एक तस्वीर अपने अंदाज में खींचनी है, ताकि ‘अभिनव राजस्थान’ की कार्ययोजना को साकार रूप दिया जा सके.
इसी मकसद से दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में हम राजस्थान के दक्षिणी भाग के प्रवास पर निकले थे. इस भाग में स्थित छः जिलों- राजसमन्द, उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ और चित्तौड़गढ़ में हमारी टीम सात दिनों तक रही. इस प्रवास में जिन चयनित कस्बों में हम रहे, वे थे- सलूम्बर (उदयपुर), सागवाडा (डूंगरपुर), कुशलगढ़ (बांसवाड़ा), छोटी सादड़ी (प्रतापगढ़) और निम्बाहेड़ा (चित्तौडगढ़). इन कस्बों में लगभग 400 साथियों से हमारा मिलना हुआ. उनसे अनेक मुद्दों पर चर्चा हुई. इन कस्बों के जनजीवन से जुड़े कई पहलुओं को बातों ही बातों में हमने छूने की कोशिश की. इस प्रयास में जो कुछ निकला, उसका सार यहाँ प्रस्तुत है.
उत्पादन ठप्प, व्यापार मन्दा
ये सभी कस्बे सदियों तक किसी न किसी महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग पर स्थित होने के कारण आर्थिक सम्रद्धि के केंद्र रहे थे. मालवा-मेवाड़-गुजरात-सिंध मार्ग पर कुशलगढ़-सागवाडा-सलूम्बर के कस्बे थे, तो मालवा-मेवाड़ पर छोटी सादड़ी और मालवा-अजमेर-मुल्तानमार्ग पर निम्बाहेडा क़स्बा था. व्यापार के साथ साथ इन कस्बों में विभिन्न वस्तुओं के छोटे छोटे उत्पादन केंद्र भी थे, जो इनको काफी हद तक स्वावलंबी बनाते थे. आसपास के गाँवों की कई आवश्यकताओं की पूर्ति ये कस्बे ही कर दिया करते थे. इन कस्बों के बाजार, हवेलियाँ और मंदिर उस समृद्ध व्यवस्था के आज भी गवाह बने हुए हैं.
लेकिन अंगरेजी हुकूमत की शोषण की नीति और स्थानीय शासकों की अक्षमता ने इन कस्बों की रौनक धीरे धीरे छीन ली. अपनी फेक्ट्रियों के माल को खपाने के लिए अंग्रेजों ने बाजार का रूख ही मोड दिया. कुटीर उद्यमी उनकी चालों के आगे हार से गए और अपने धंधों को समेटने में लग गए. यह दौर चल ही रहा था कि देश आजाद हो गया. आजादी आई, तो उम्मीद बंधी कि अब हमारी अपनी सरकार होगी, जो इन कुटीर उद्योगों को सहारा देगी और इन कस्बों की किस्मत संवारने का काम करेगी. गांधी की बातों से तो ऐसा ही लग रहा था ! पर यह उम्मीद दो दशकों के भीतर ही दफ़न हो गई. नेहरु के कर्मों से. गांधी की बातें थीं, छोटे उद्योगों को पुनर्जीवित करने की और नेहरु के कर्म थे, बड़े उद्योगों को पनपाने के.
इसका नतीजा क्या निकला ? कस्बों की चाल धीमी हो गयी. जिन्हें व्यापार करना था, उद्योग लगाना था, वे गुजरात और महाराष्ट्र चले गए. हमारी सरकारों और उनके कागजी सपनों पर उनका विश्वास नहीं रहा. और जो लोग यहाँ बचे हैं, वे किसी नौकरी की जुगाड़ में बैठे हैं. या फिर वे किसी लौटरीनुमा स्कीम की फ़िराक में एक दूसरे को ठगने के मूड में लगे रहते हैं. आज इन कस्बों में न जूते बनते हैं, न बर्तन बनते हैं. दरजी, लुहार और सुथार अपने पुश्तेनी काम छोड़ने का कोई सम्मानजनक मौक़ा नहीं गंवाते हैं. अपने प्रवास में हम ढूँढते ही रह गए कि कोई तो छोटा मोटा उद्योग कहीं दिखाई दे. निम्बाहेड़ा में जरूर सीमेंट की बड़ी इकाइयों को लेकर स्थानीय लोग उत्साह में दिखे, लेकिन इन इकाइयों के द्वारा किये जा रहे प्रदूषण और स्थानीय लोगों की सीमित प्रत्यक्ष भागीदारी की बात से यह उत्साह भी जाता रहा. ऐसे में स्थानीय लोगों की आमदनी कैसे बढ़ सकती है ? बिना उत्पादन के आमदनी कैसे बढ़ सकती है ? कैसे असली विकास हो सकता है ?
दिखावे में जकड़ा समाज
सभी कस्बों में सीमित आमदनी के बावजूद प्रत्येक सामाजिक अवसर पर दिखावे और फिजूलखर्ची की समस्या समान रूप से सामने आई. मुख्य रूप से तीन मदों में यह दिखावा होता है. मकान बनाने में, विवाह के अवसर पर और किसी परिजन की म्रत्यु पर. ये तीन काम 90 प्रतिशत परिवारों की आमदनी को लील जाते हैं और छोड़ देते हैं, अभावों की लंबी सूची. बच्चों की शिक्षा और रोजगार के लिए पैसा नहीं, ईलाज के लिए पैसा नहीं, खाते में पूंजी नहीं, कर्ज का बोझ. फिर भी स्वार्थी तत्वों ने माहौल ऐसा बना रखा है, जैसे यह दिखावा नहीं किया और कुरीतियों पर धन नहीं बहाया, तो मोक्ष ही नहीं मिलेगा और जीवन व्यर्थ चला जाएगा. इन कुरीतियों के समर्थन में सभी कस्बों में कुतर्कों में गजब की समानता है ! जैसे कि कोई मर गया है, तो उस ‘बेचारे’ की याद में सभी मिलने वालों को भोजन तो करवाना ही चाहिए ! आप कहते रहिये कि यह शास्त्रों के विरुद्ध है, कानून के विरुद्ध है, उन पर कोई असर नहीं होता. उनका अपना शास्त्र है.
हालात यह है कि एक तरफ सीमित आमदनी तो दूसरी तरफ दिखावों की बढ़ती सूची और उस पर महंगाई की मार ने अधिकांश परिवारों की खुशियाँ छीन रखी हैं. जीवन से उमंग ही गायब हो रखी है. उस पर भी दर्द यह कि अकेला परिवार चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता क्योंकि रिवाजों(?) में परिवर्तन तो समाज के ठेकेदार ही कर सकते हैं. परन्तु ठेकेदार ठहरे पैसे वाले. वे इन दिखावों पर समाज को अपनी हैसियत बताने के लिए इन कुरीतियों को ज़िंदा रखते हैं.
राज से दूरी
दशकों की आजादी के बाद आज भी इन कस्बों के लोग ‘राज’ से दूरी का अनुभव करते हैं. उन्हें अब भी लगता है कि पुलिस, अस्पताल, कचहरी, रोड़वेज आदि ‘राज’ के हैं, ‘सरकार’ के हैं और इनसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है. अभी भी सामन्तों और अंग्रेजों के शासन की मानसिकता गई नहीं है. लोग सही बात कहने से भी डरते हैं. अन्याय और अत्याचार को सहन करने की आदत सी हो गई है. डर के कारण न बोल पाने की बात को छुपाने के लिए ‘अच्छे और शरीफ’ लोग कई नाकारा बातें करते हैं. ‘अजी, क्या करें, सिस्टम ही खराब है’ या ‘किससे कहें कौन सुनता है’ जैसी बातों से वे ऐसा जाहिर करते हैं, जैसे एक सजग नागरिक का कर्त्तव्य निभा रहे हों.
सूचना के अधिकार के प्रयोग के बारे में जब हमने जानने की कोशिश की तो पता चला कि सात वर्षों के बाद भी इस अधिकार का प्रयोग करने में उनको हिचक लगती है. वे बाबा रामदेव या अन्ना हजारे से उम्मीद कर रहे हैं कि अपने चमत्कार से इस देश से भ्रष्टाचार मिटा दें. बस, उन्हें इस झंझट से दूर रखें. अपने कस्बों का भ्रष्टाचार मिटाने की जिम्मेदारी उन पर न डालें. हो सके तो इन कस्बों में भी बाबा या अन्ना अपने आदमी भेज दें !
व्यवस्थाओं का बुरा हाल
सभी कस्बों में सरकारी स्कूलों के हाल ठीक नहीं मिले. उच्च माध्यमिक विद्यालयों में विशेषज्ञों की कमी सभी स्थानों पर नजर आयी. विशेषकर वाणिज्य और विज्ञान जैसे आधुनिक युग के महत्वपूर्ण विषयों के अध्ययन की व्यवस्थाएं चरमराई हुई थीं. जब हमने इन कस्बों के सरकारी या निजी विद्यालयों से निकले डॉक्टरों, सी ए, आई आई टीअनों, आर ए एस, आई ए एस के नाम जानने चाहे तो मुश्किल हो गई. नाम उँगलियों पर गिने जाने लगे और संख्या किसी भी कस्बे में दहाई पार नहीं कर पाई. हम अचरज कर रहे थे कि अगर राजस्थान के कस्बों के ये हाल हैं तो गाँवों की स्थिति क्या होगी.
अस्पतालों के हाल भी ऐसे ही नजर आये. यहाँ भी विशेषज्ञ कम मिले. मातृ एवं शिशु रोग, अस्थि रोग, नेत्र रोग आदि के विशेषज्ञ चिकित्सक कम होना कस्बेवासियों की चिंता को बढाता है. वहीँ चिकित्सकों का जोश भी सेवा करने के भाव के मामले में ठंडा पाया गया. यह भी देखा गया कि कस्बे के अधिकतर समारोहों में चिकित्सक या शिक्षाविदों को अध्यक्ष या मुख्य अतिथि कम ही बनाया जाता है, जबकि कस्बे के आर ए एस, तहसीलदार या पुलिस अधिकारी और नेताओं को ज्यादा वजन दिया जाता है. शायद यह भी एक कारण हो सकता है कि चिकित्सकों और अध्यापकों का समाज की सेवा करने का जज्बा कम हो जाता हो. जो समाज इज्जत न दे, उसकी सेवा कैसे हो सकती है !
कस्बों की सफाई व्यवस्था, सड़कें और पेयजल का प्रबंध भी शिकायतों को आमंत्रण देता दिखा. माही बाँध के पास होते हुए भी कुशलगढ़ के बाशिंदों का पानी के लिए तरसना अजीब लगा. जब कुशलगढ़ और सज्जनगढ़ के लोगों ने पड़ोसी गुजरात की व्यवस्थाओं का बखान करना शुरू किया तो जैसे मन एक अशांति से भर गया. कब राजस्थान के दिन फिरेंगे ?
प्रकृति और संस्कृति संकट में
अधिक वर्षा और अरावली की गोद, ये दो कारण इस समूचे क्षेत्र को प्रकृति का वरदान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं. परन्तु मानवीय उपेक्षाओं ने इस वरदान पर पानी फेर दिया है. वृक्षों की कटाई ने पहाड़ियों को जैसे नोच लिया है. ज्यों ही हम आगे बढे तो सलूम्बर की सरणी नदी से निम्बाहेड़ा की निम्बा नदी तक के हमारे सफर में यह दर्द साथ रहा कि कैसे ये पवित्र नदियाँ गंदे नालों में तब्दील हो गयीं. सागवाड़ा के प्रसिद्द तालाब भी संरक्षण को तरसते दिखे तो रास्ते में बांसवाडा शहर का पवित्र ‘राज तालाब’ भी एक शौचालय बना दिखाई दिया. शर्म से हमारा सिर झुक गया.
इन कस्बों की संस्कृति भी तथाकथित आधुनिकता की भेंट चढ गई है. पारंपरिक उत्सवों, त्यौहारों और कलाओं को सरंक्षण न मिल पाने से धीरे धीरे वे विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं. मेवाड़ की ‘गैर’ नाचने में युवाओं को अब शर्म आती है, जबकि फूहड़ फ़िल्मी गानों पर नाचने को वे आधुनिकता मान बैठे हैं. यही नहीं हीन भावना के मारे वे गुजराती ‘डांडिया’ को भी इस आधुनिकता का पर्याय मान कर उसे मेवाड़ी गैर से श्रेष्ठ साबित करने में लगे रहते हैं. इस बेरूखी का प्रभाव पारंपरिक कलाकार जातियों पर भी वैसा ही पड़ा है जैसा हस्त कला की जानकार जातियों पर.
‘अभिनव राजस्थान’ में ?
‘अभिनव राजस्थान’ में कस्बे फिर से उत्पादन और व्यापार के जीवंत केंद्र बनेंगे. हमारी ‘अभिनव उद्योग’ की योजना में छोटे उद्यमियों के लिए आकर्षक योजनाएं हैं. हमारी वेबसाइट abhinavrajasthan.org पर इसका विस्तार से वर्णन है. कस्बों के निवासियों की आमदनी बढाकर ही कस्बों का वास्तविक विकास किया जा सकता है. आमदनी बढे, उससे पहले खर्चे भी तो कम हों. इसके लिए हम सभी समाज के जागरूक लोगों को सामाजिक परिवर्तनों के लिए तैयार करेंगे. कस्बों की स्कूलों और अस्पतालों का स्तर सुधार जायेगा, तो सफाई, सड़क और पेयजल का भी उत्तम प्रबंध होगा. कस्बों की नदियों और तालाबों को फिर से सुंदर और पवित्र बनाया जाएगा, तो हरियाली की दीवार भी कस्बों को सहलाती सी मिलेगी. ऐसा होगा तो हमारे इन कस्बों के निवासी उल्हास और उमंग से भरे नाचते क्यों नहीं दिखेंगे ?
Thanks very interesting blog!