उपेक्षित बेणेश्वर धाम
माही और सोम-जाखम के संगम पर यह पवित्र स्थान एक मछलीनुमा टापू पर बना है. डूंगरपुर जिले की आसपुर तहसील के सबला गाँव के पास. वही सबला जहाँ मावजी नमक संत हुए, जिन्हें कलियुग के विष्णु कल्कि का अवतार माना गया. सोम नदी यहाँ पर एक डेल्टा (बेण) बनाते हुए माही में मिलती है. इसी बेण के महादेव (बेणेश्वर) को समर्पित इस मंदिर के पास खड़े होकर आस पास के नज़ारे को कोई देखे तो देखता ही रह जाए. इतना मनोहारी. लेकिन दक्षिणी राजस्थान की उपेक्षा का खामियाजा इस स्थान को भी उठाना पड़ रहा है. कहने को तो सरकार के कागजों पर इस स्थान को दक्षिण राजस्थान का सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान माना जाता है, लेकिन आप वहां जायेंगे तो ऐसा नहीं लगेगा. नहीं लगेगा कि राजस्थान के शासन के लिए इस स्थान का कोई मायना भी है. गन्दगी से सराबोर और सुविधाओं से वंचित. केवल मेले के समय प्रशासन थोड़ी बहुत हरकत कर लेता है.
ऐसा लगता है कि पर्यटन से वर्तमान शासनों का अभिप्राय केवल विदेशियों के आगे पीछे घूमने से है. महलों को दिखाना ही पर्यटन माना जाता है. लाखों देशी पर्यटकों के लिए आकर्षण के केंद्र रहे हमारे बेणेश्वर जैसे प्यारे स्थानों को अभी तक वह सम्मान और ध्यान नहीं मिल पाया है, जो वांछित है. अभी तक यह गिनती हमारे नीतिकारों के दिमाग में नहीं घुसी है कि कोई देशी पर्यटक भी जब घूमने निकलता है, तो हमारी अर्थव्यवस्था में कुछ योगदान करता है. सुविधाओं के अभाव में हमारे बेणेश्वर जैसे कई प्रसिद्द स्थान यथा पुष्कर, अजमेर दरगाह, रामदेवरा, गोगामेडी, कैलादेवी आदि पर्यटन के नक़्शे पर ठीक से नहीं उभर सके हैं. इस कारण अन्य राज्यों से यहाँ आने वाले लाखों देशी पर्यटक सुविधाओं की कमी के मारे निराश ही होते हैं. असीम श्रद्धा के अधीन वे यहाँ आते तो रहेंगे लेकिन अगर सुविधाएं ठीक हों तो उनकी संख्या कई गुना बढ़ सकती है. ‘अभिनव राजस्थान’ में हम यही करने वाले हैं.
भूली बिसरी भंवर माता
छोटी सादड़ी (प्रतापगढ़) कभी प्रतापगढ़ रियासत का महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र रहा है. ‘साद’ प्रथा के तहत यहाँ के सेठ राजस्व उगाही की गारंटी दिया करते थे. बड़ी सादड़ी(चित्तौड़) और सादड़ी(पाली) ऐसे ही अन्य केंद्र हुआ करते थे. लेकिन सागवान के वृक्षों से घिरे इस क्षेत्र को भी अंग्रेजों की नजर लग गयी और इस कस्बे की रौनक भी समाप्त हो गयी. छोटी सादड़ी के पास ही सीता माता को समर्पित घना वन क्षेत्र है, जहाँ सीता ने अपना कुछ समय निर्वासन में बिताया था. रास्ते में ही भंवर माता का स्थान है. बहुत पुराना. भंवर माता के मंदिर के पास मिले अभिलेख(491 ई.) से यह साबित हुआ है कि यहाँ पर पांचवी शताब्दी में गोर वंश का शासन था. राजस्थान में उभरी नई ताकतों, सिसोदियों, कच्छ्वाहों और राठोडों से पहले गोर और जोहियों के शक्तिशाली गणतंत्र यहाँ स्थापित थे. नए दरबारों के चाटुकार इतिहासकारों ने ऐसे सभी मूल वंशों का इतिहास दुर्भावनापूर्वक समाप्त सा कर दिया है, परन्तु लोक गाथाओं में अब भी उन वंशों के चर्चे रहते है. छोटी सादड़ी के गोर वंश की राजकुमारी वही पद्मिनी थी, जिसके जौहर ने चित्तौड़ को अमर कर दिया था. उनके परिवार के अनेक लोग भी चित्तौड़ की सहायता करते हुए मारे गए थे. पद्मिनी का भाई बादल गौरा उन्हीं वीरों में शामिल था.
ऐसे स्वर्णिम इतिहास को अपने आँचल में समेटे यह ‘स्वर्ण नगरी’ आज एक सुस्त सी आबादी के साथ जी रही है. भंवर माता इस नगरी की यादों को ताजा कर देती हैं. पास बहता हुआ झरना अब माता के आंसुओं का सा लगता है, क्योंकि शासन को राजस्थान के ऐसे झरनों में रुचि नहीं है. शासन के लिए तो छोटी सादड़ी मात्र एक क़स्बा है, जहाँ कुछ कर्मचारी में रखने हैं. भंवर माता के स्थान को सुन्दर और सुविधाजनक बनाने का कोई सरकारी प्रयास नजर नहीं आता है. ‘अभिनव राजस्थान’ में भंवर माता का स्थान भी राजस्थान के पर्यटन के नक़्शे पर उभर कर आएगा और छोटी सादड़ी भी फिर से स्वर्ण नगरी बन जायेगी.
भीलों को आदिवासी मत कहो
न जाने क्यों अजीब लगता है जब हमारे बहादुर और स्वाभिमानी भीलों को लोग ‘बेचारे’ आदिवासी कह कर उनके ‘कल्याण’ की बात करते हैं. यह उनका अपमान लगता है. जिस कौम का सदियों का गौरवशाली इतिहास रहा हो, उस पर दया खाने की क्या आवश्यकता है ? हम क्यों भूल जाते हैं कि भीलों ने ही तो मेवाड़ के शासक प्रताप का साथ दिया था ? क्यों भूल जाते हैं कि गोविन्द गुरु के नेतृत्व में भीलों ने अंग्रेजों का वैसा ही विरोध किया था, जैसा कभी गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में सिक्खों ने मुगलों का किया था ? लेकिन कहाँ सिक्ख ओर कहाँ भील. कितना जिक्र हुआ जलियां वाला कांड का और कहाँ खो गयी मानगढ धाम के नरसंहार की कहानी ? आज भी भीलों को राजस्थान के इतिहास और वर्तमान में उचित स्थान की दरकार है, दया की नहीं.
भीलों को आदिवासी मानकर आरक्षण दिया गया, लेकिन उनकी स्थिति में आज भी कोई फर्क इस आरक्षण से नहीं आया है. एक प्रतिशत से ज्यादा परिवार इससे लाभान्वित नहीं हुए हैं. यही हाल राजनीति में है. चंद परिवारों के सदस्य भील होने के कारण ठीक उसी प्रकार से विधान सभा और संसद में पहुंचे हैं, जैसे अन्य अंचलों के जातिगत नेता. लेकिन भीलों का असली विकास तभी होगा, जब उनको आदिवासी न मानकर केवल राजस्थानी के रूप में देखा जाएगा. उनको किसान मानकर उनके खेतों से उत्पादन बढाने का ईमानदार प्रयास होगा. उनके पशुपालन और छोटे धंधों को बढ़ावा दिया जाएगा. केवल एन जी ओ और अफसरों को फर्जी योजनाओं का पैसा लुटाने का कोई सार्थक परिणाम नहीं आया है. अपनी जिम्मेदारी से दूर भागने की इस सरकारी शैली ने तो भीलों को अब भी समाज और प्रदेश के हाशिए पर रख छोड़ा है. परन्तु ‘अभिनव राजस्थान’ में सब बदलने वाला है. तब भीलों को ससम्मान आगे बढ़ने के अवसर समाज के अन्य वर्गों के साथ ही दिए जायेंगे, अलग करके नहीं. उनके ‘कल्याण’ की बजाय उनके विकास पर ध्यान दिया जाएगा. उन पर ‘दया’ खाने की बजाय उनका हक देने का प्रयास होगा.
तलवाड़ाके तरसते कारीगर
बांसवाड़ा से त्रिपुरा सुन्दरी के रास्ते में तलवाड़ा गाँव है. तलवाड़ा का नाम याद आते ही यहाँ के काले पत्थर पर काम करने वाले सोमपुरा कारीगरों की याद आ जाती है. इनके बारे में कई बार पढ़ा है. यह भी ख्याल आया कि राजस्थान सरकार ने इन कारीगरों के लिए भी एक क्लस्टर विकास योजना बनाई है, जिसके तहत इनको समूह (क्लस्टर) के रूप में प्रशिक्षण, डिजाइन और बाजार की उत्तम सुविधाएं दी जायेंगी, ताकि इनकी बनाई मूर्तियों के उचित दाम इन्हें मिल सकें. सरकार के उद्योग आयुक्त की वेबसाइट बड़े गर्व से बयान करती है कि तलवाड़ा के क्लस्टर विकास की परियोजना वर्ष 2005-06 में प्रारंभ हुई थी, जो अब पूरी हो गयी है ! हमें बड़ी उत्सुकता से इस विकास परियोजना को देखने का इन्तजार था.
लेकिन वही हश्र हुआ, जैसा देश की आजादी के बाद से योजनाओं का अक्सर होता है. कारीगरों से मुलाक़ात में पता चला कि कुछ वर्ष पहले कोई इन्स्पेक्टर आये थे और सभी कलाकारों को बड़े बड़े सब्ज बाग दिखाकर गए थे. इन कारीगरों से वे रजिस्ट्रेशन के लिए सौ-सौ रूपये लेकर गए थे, पर आज तक वापिस नहीं लौटे. लगभग तीस सोमपुरा परिवार अभी भी सरकारी मदद को तरस रहे हैं. यह तो भला हो गुजरात के पड़ोस का, जिसके सहारे ये अपना जीवन बसर कर रहे हैं, वर्ना अभी तक तो यह प्रसिद्द कला इतिहास का अंग बन चुकी होती, जैसी राजस्थान की अन्य कई हस्तकलाएँ बन चुकी हैं. राजस्थान सरकार की वेबसाइट पर ऐसे भयावह जोक्स आप प्रत्येक विभाग के बारे में पढ़ सकते हैं. ‘अभिनव राजस्थान’ में ऐसे जोक्स नहीं होंगे. गंभीरता होगी. कारीगरों और कलाकारों का अपमान नहीं होगा, उनकी कला का मान और मूल्य होगा. विस्तृत योजना हमारी साईट abhinavrajsthan.org पर.